शमा जली है चले आइये
आप बिन अधूरी है महफिलेशान
जिन मक्तों में दम नहीं है
वही गाए गुनगुनाए जाते हैं
उन में कोई रस नजर नहीं आता |
फीकी है शमा की रौशनी भी
जब परवाने न हों फिर वह तेज कहाँ
वायु वेग भी सह लिया जाता
अपने ऊपर मर मिटने वालों के लिए |
तुम गैर नहीं हो फिर भी मुझ से यह दूरी
यह कैंसी सजा दे रहे हो
महफिल है अधूरी तुम्हारे बिना
गजलें हुई बेसुरी तुम्हारे बिना |
हैं सारे गीत अधूरे साजों के बिना
जो रौनक रहा करती थी तुम्हारी उपस्थिती से
शमा थकी रात भर के जागरण से
वह भी अब विश्राम चाहती है |
अब तो आजाइए देर से ही सही
अभी है भोर की लालिमा दूर बहुत
यह दूरी पाटना कठिन न होगी
इस महफिल को फिर से रंगीन कर जाइए |
आशा