कभी मुझे भी उस दृष्टि से देखा होता
मुझ में और भैया में अंतर
ना किया होता
मैं भी तुम्हारी अपनी होती
दो कुल की प्यारी होती
मैं भी अपने कर्तव्य निभाती |
पूरे मन से सब के समक्ष आती
ससुराल में वही सन्मान पाती
दूसरों को दिल से अपनाती
तुम्हारा सर उन्नत होता
जब दो कुलों में प्यार बांटती |
यूँ तो कहते हो बेटी और
बेटे में
कोई भेद नहीं किया कभी तुमने
पर अब स्पष्ट दिखाई देता है
कितना अंतर है मुझ में और भैया में |
जब भी कोई बात होती मुझे
पराई कहकर
कर मन को ठेस पहुंचाई जाती
कभी पराया धन कहा जाता
कहीं मैं इस घर को भी अपना ना समझ लूं |
आई हूँ महमानों की तरह वही
हो कर रहूँ
अपनी सीमाएं नहीं भूलूँ
यही बचपन से सिखाया गया मुझको
मैंने भी अंतर को समझा मन
में सहेजा है |
आशा सक्सेना