16 अगस्त, 2012

उपहार प्रकृति के


नव निधि आठों सिद्धि छिपी
इस वृह्द वितान में
जब भी जलधर खुश हो झूमें  
रिमझिम बरखा बरसे
धरती अवगाहन करती
अपनी प्रसन्नता बिखेरती
हरियाली के रूप में |
नदियां नाले हो जल प्लावित
बहकते ,उफनते उद्द्वेलित हुए
बहा ले चले सभी अवांछित
अब उनका स्वच्छ जल
है संकेत उनकी उत्फुल्लता का  
वह खुशी शब्दों में व्यक्त न हो पाई
पर ध्वनि अपने मन की कह गयी |
पर सागर है धीर गंभीर
जाने कितना गरल समेटा
उसने अपने उर में
कोइ प्रभाव उस पर न हुआ
रहा शांत स्थिर तब भी  |











14 अगस्त, 2012

उत्साह कहीं खो गया


उत्साह कहीं खोगया
जब स्वतंत्र हुए बहुत खुश थे
था गुमान उपलब्धि पर
उत्साह से भरे थे
 रहता था इंतज़ार 
स्वतन्त्रता दिवस का
इसे त्यौहार सा मनाने का
फिर सर उठाया चुपके से 
अनगिनत समस्याओं ने
सोचा समय तो लगेगा
 समृद्धि के आगमन में
पर ऐसा कुछ भी न हुआ
दूकान लगी समस्याओं की
विसंगतियाँ बढ़ने लगीं
दरार पड़ी भाईचारे में
हुआ धन वितरण असमान
गरीब और गरीब हो गया 
धनिक  वर्ग की चांदी हुई
भृष्टाचार ने सीमा लांघी
महंगाई भी पीछे न रही
बढती हुई जनसंख्या ने
प्राकृतिक आपदाओं ने
समृद्धि पर रोक लगाई
आम आदमी पिसने लगा
समस्याओं की चक्की में
 प्रतिवर्ष स्वतन्त्रता दिवस
नए स्वप्न सजा जाता
तिरंगे की छाँव तले
झूठे  वादे  करवाता
पर सपने सच नहीं होते
चीनी की मिठास भी
होने लगी कम कम सी
धुनें देश भक्ति गीतों की
आकृष्ट अब  नहीं करतीं
 लगती सब औपचारिकता
उत्साह कहीं खो गया
पहले भी विकासशील थे 
आज  भी वहीँ हैं
लंबी अवधि के बाद भी
आगे नहीं बढे हैं |
समय का काँटा
 थम सा गया है
समृद्धि से कोसों दूर
अब भी जी रहे हैं
है बड़ा अंतर सिद्धांत
और व्यवहार में |
आशा 


12 अगस्त, 2012

तम और गहराता


तम और अधिक गहराता
गैरों सा व्यवहार उसका
जीवन बेरंग कर जाता
कोई  अपना नहीं लगता
जीना बेमतलब लगता
जब कोई  साथ नहीं देता
मन में कुंठाएं उपजाता
 खुशी जब  चेहरे पर होती
 सहना भी उसे मुश्किल होता
यही परायापन यही बेरुखी
अंदर तक सालती
लगती अकारथ जिंदगी
उदासी घर कर जाती
घुटन इतनी बढ़ जाती
व्यर्थ जिंदगी लगने लगती
जाने कब तक ढोना है
इस भार सी जिंदगी को
निराशा के गर्त में फंसी
इस बेमकसद जिंदगी को |

आशा




10 अगस्त, 2012

वन देवी

एकांत पा पलकें मूंदे 
खो जाती  प्रकृति में
विचरण करती  उसके
 छिपे आकर्षण में|
वह  उर्वशी घूमती 
झरनों सी कल कल करती 
तन्मय हो जाती 
सुरों की सरिता में |
साथ पा वाद्ध्यों का
देती अंजाम नव गीतों को 
हर प्रहर नया गीत होता 
चुनाव वाद्ध्यों का भी अलग होता
वह गाती गुनगुनाती 
कभी  क्लांत तो कभी शांत
जीवन का पर्याय  नजर आती 
लगती  ठंडी बयार सी 
जहां से गुजर जाती 
पत्तों से छन कर आती धूप
सौंदर्य को द्विगुणित करती 
समय ठहरना चाहता
हर बार मुझे वहीँ ले जाता 
घंटों बीत जाते 
लौटने का मन न होता |
वह कभी उदास भी होती 
जब मनुष्य द्वारा सताई जाती 
सारी  शान्ति भंग हो जाती 
मनोरम छवि धूमिल हो जाती |
है वही वन की देवी 
संरक्षक वनों की 
विनाश उनका सह न पाती 
बेचैनी  उसकी छिप न पाती |
आशा





07 अगस्त, 2012

भाषा नहीं भाव प्रवल हैं

नयनों नयनों में बातें करना 
बोलो किससे सीख लिया 
जो सोचा हंस कर जता दिया 
मन मोह लिया सबका तुमने |
इस भोली भाली सूरत में 
कितने राज छुपाए हैं 
मन मोहनी मुस्कान से 
अपने भाव जताए हैं|
हो तुम इतनी प्यारी सी
सफेद मॉम की गुडिया सी 
नयनों के भाव जताए हैं 
है क्या तुम्हारे मन में ?
भाषा नहीं भाव प्रवल हैं
तुम्हारे मधुर स्पर्श में 
 |मन मेरा गदगद होता
पा कर तुम्हें गोद में |
आशा

04 अगस्त, 2012

प्रायश्चित

 
प्रातः से संध्या तक
क्या गलत क्या सही आचरण
उस पर चिंतन मनन और आकलन
सरल तो नहीं
यदि स्थिर मन हो कर सोचें
आत्मावलोकन  करें
कुछ तो परिवर्तन होगा
स्वनियंत्रण भी होगा |
वही निश्चित  कर पाएगा
होती क्यूं रुझान
उन कार्यों  के प्रति
जो सर्व मान्य नहीं
उचित और अनुचित में
विभेद क्षमता जागृत तो होगी
पर समय लगेगा
है कठिन विचारों पर नियंत्रण
सही दिशा में जाने का आमंत्रण
पर असंभव भी नहीं
तभी है परम्परा त्रुटियाँ स्वीकारने की
उन सभी कार्यों के लिए
जो हैं उचित की परिधी के बाहर
क्यों न प्रयत्नरत हों अभी से
आदत बना लें समय निर्धारण करें
आत्म बल जागृत होते ही
त्रुटियों पर नियंत्रण होगा
जाने अनजाने यदि हुईं भी
प्रायश्चित की हकदार होंगी |
आशा