हूँएक दैनिक वेतन भोगी
नेत्र खुलते ही सुबह होती है
धुदलका होते ही घर जाने की जल्दी में
चल देता हूँ अपने बसेरे में |
सड़क के किनारे पेड़ के नीचे
लकडियाँ जला रोटी बना लेता हूँ |
फिर बाँध कर सामान एक कपडे में
झाड के ऊपर रख लेता हूँ |
वही है असली विश्राम घर मेरा रात भर के लिए |
सुबह सवेरे सुलभ काम्प्लेस में
नित्य कर्म से निवृत्त हो चल देता
काम की तलाश में |
नहाता धोता हूँ कभी वैसा ही रह जाता हूँ
जब अवसर नहीं मिलता |
सारे दिन का बेतन दो टाइम का भोजन दे सकता है
पर घर भेजने को कुछ भी नहीं |
अपने धर वालों को गाँव भेज दिया है
बुजुर्गों की देख रेख के लिए |
और मैं क्या करता कोई और तरीका नहीं सूझा मुझे |
वे भी दिन भर काम करते हैं वहां
उन्हें शिकायत रहती है मुझसे कोई भी मुफ्त रोटी नहीं देता
हाड़ की बूँद बूँद सोख लेता है |
उनके लिए क्या किया मैंने ?शिकायत वाजिब है यह
मैं अपने कर्तव्य पूर्ण नहीं कर पाता यहीं मैंने मात खाई है
दो अक्षर भी ध्यान से नहीं पढ़े यदि पढ लिया होता
आज यह दिन न देखना पडता |
पर समय बीत गया अब पछताने से क्या लाभ
लॉग डाउन होने पर कितने ही दिन भूखा रहा
केवल पानी से ही काम चलाया फिर विचार आया
वेतन न मिला फिर धन के अभाव में
पैदल ही चल दिया अपने गाँव
बीबी बच्चों के पास |
आशा