27 जून, 2010

काले कजरारे भूरे बादल

काले कजरारे भूरे बादल,
सारे आसमान में छाये ,
आशा कि किरणें जागी मन में ,
अब तो शायद बरसेंगे ,
पहले सा निराश नहीं करेंगे ,
सारे दिन का इन्तजार ,
निराशा में बदल गया ,
जल की एक बूँद ना बरसी ,
और उमस बढ़ती गई ,
हवा के झोंको को भी ,
बादल सहन न कर पाये ,
जाने कहाँ गुम हो गये ,
हवा को भी संग ले गए ,
दिन में शाम नजर आई ,
चारों ओर अंधियारी छाई,
पर पानी तो बरसा ही नहीं ,
गर्मी और चौगुनी हो गई ,
अब आसमान बिल्कुल साफ है ,
बेचारा किसान बहुत उदास है ,
जाने कब वर्षा आयेगी ,
धरती की प्यास बुझा पायेगी ,
हाथों में बीज लिए वह सोच रहा ,
पिछला साल कहीं फिर तो ना लौटेगा ,
एक-एक बूँद पानी के लिये ,
जब त्राहि-त्राहि मचती थी ,
बिना पर्याप्त जल के ,
बहुत कठिनाई होती थी ,
सूखे की चपेट में आ कर ,
यदि धरती बंजर हो जायेगी ,
सारी खुशियाँ तिरोहित होंगी ,
रोज़ी रोटी भी जायेगी |


आशा

26 जून, 2010

जब भी कोरा कागज़ देखा

जब भी कोरा कागज़ देखा ,
पत्र तुम्हें लिखना चाहा ,
लिखने के लिए स्याही न चुनी ,
आँसुओं में घुले काजल को चुना ,
जब वे भी जान न डाल पाये ,
मुझे पसंद नहीं आये ,
अजीब सा जुनून चढ़ा ,
अपने खून से पत्र लिखा ,
यह केवल पत्र नहीं है ,
मेरा दिल है ,
जब तक जवाब नहीं आयेगा ,
उसको चैन नहीं आयेगा ,
चाहे जितने भी व्यस्त रहो ,
कुछ तो समय निकाल लेना ,
उत्तर ज़रूर उसका देना ,
निराश मुझे नहीं करना ,
जितनी बार उसे पढूँगी ,
तुम्हें निकट महसूस करूँगी ,
फिर एक नये उत्साह से ,
और अधिक विश्वास से ,
तुम्हें कई पत्र लिखूँगी ,
जब भी उनको पढूँगी ,
मैं तुम में खोती जाऊँगी ,
आत्म विभोर हो जाऊँगी |


आशा

25 जून, 2010

बंजारा

मैं बंजारा घूम रहा ,
कभी यहाँ तो कभी वहाँ ,
कहीं रात गुजरती है ,
सुबह कहीं और होती है ,
जिंदगी यूँ ही बसर होती है |
चाहे जहाँ घर बन जाता है ,
भोजन पानी भी मिल जाता है ,
जब भी पैर थक जाते हैं ,
पड़ाव वहीं डल जाता है |
दुनिया की चमक दमक से ,
दूरी अब तक रख पाया ,
सीमित आवश्यकताओं से ही,
खुद को जीत पाया |
मैं तो एक बंजारा हूँ ,
जगह-जगह घूमता हूँ ,
एक जगह बंध कर रहना ,
आजादी का हनन लगता,
नहीं चाहता महल अटारी ,
मेरा घर दुनिया सारी ,
मेहनतकश इंसान हूँ,
मेहनत रंग लाती है मेरी |
जब थकान हो जाती है ,
फटा चादरा ओढ़ कर ,
चाहे जहाँ सो जाता हूँ ,
सपनों में खो जाता हूँ |
जैसे ही सुबह होती है,
फिर खानाबदोश हो जाता हूँ |


आशा

24 जून, 2010

पल दो पल की खुशियाँ

संघर्ष रत इस दुनिया में ,
उलझनों से भरा हुआ जीवन ,
फूलों की सेज सा दिखता है ,
पर काँटों की कमी भी नहीं है ,
समस्याओं का पिटारा है वह ,
जिन्हें सुलझाना ही होता है ,
शिकायतों के लिए जगह नहीं होती |
पल दो पल की खुशियाँ ,
इस में यदि झाँक पायें ,
उलझनों से दूरी रख कर ,
समस्याओं से भी निपट पायें ,
जीवन इतना भी सहज नहीं ,
जितना कि दिखाई देता है ,
सच तो यही है ,
दूर का ढोल सुहावना लगता है ,
कुछ क्षणों की प्रसन्नता की चाहत ,
हर किसी को होती है ,
वह भी यदि ऐसा ही चाहे ,
इसमें हानि ही क्या है ,
खुशियाँ जब जीवन में होंगी ,
कष्टों की पीड़ा कुछ तो कम होगी ,
तब जीवन असफल नहीं रहेगा ,
कुछ करने की चाह बढ़ेगी |


आशा

23 जून, 2010

एक सत्य चित्रण (केरीकेचर)

जब उसको देखा परखा ,
तभी उसे जान पाये ,
उसकी अजीब आदतों का ,
कुछ मज़ा उठा पाये ,
हीनता से भरा हुआ वह ,
अपने दोष छुपाता था ,
कमज़ोर हुआ तो क्या ,
पहलवान सा चलता था,
यदि कोई देख रहा हो ,
दुगुना तन कर चलता था ,
कभी हिन्दी तो कभी अंग्रेजी में ,
अपना रौब झाड़ता था ,
यदि इसका भी प्रभाव न हो ,
चंद किताबों के संदर्भ बताता था ,
सबसे आगे रहने की चाहत ,
उसके मन में रहती थी ,
सब करने की क्षमता थी ,
ऐसा सब को जतलाता था ,
एक बार कड़ाके की ठण्ड में ,
सब को शान बताने के लिये ,
नदी में तैरने उतर गया ,
ठण्ड से दाँत बजने लगे ,
हाथ पैर भी रुकने लगे ,
जैसे तैसे बचाया गया ,
बुखार से हाल बेहाल हुआ ,
आदत शान बताने की ,
खुद को बहुत समझने की ,
उससे दूर न होती थी ,
रोज नये करतब करता था ,
चर्चा में खुद को रखता था ,
जब भी खेलों की चर्चा होती ,
वह हरफनमौला हो जाता था ,
जब भी मैदान में उतरता ,
कुछ देर भी न टिक पाता था ,
चोट यदि भूल से भी लगती ,
दूसरों को दोषी ठहराता था ,
पर बहस करने की आदत ,
वह छोड़ नहीं पाता था ,
सवा सेर जब कोई मिल जाता ,
वह पतली गली से निकल जाता था ,
सभी लोग पीठ पीछे ,
उसकी हँसी उड़ाते थे ,
वह एक ऐसा नमूना था ,
हँसी का पात्र बन कर भी जो ,
खुद में सुधार न कर पाया ,
वह क्या है क्या चाहता है ,
यह भी नहीं समझ पाया ,
पासिंग शो से अच्छा उन्वान,
जिसके लिए नहीं मिलता ,
उससे मिलने के लिए,
किसका जी नहीं होता |


आशा

22 जून, 2010

आज के संदर्भ मै

भ्रष्टाचार का दानव पनपा ,
महँगाई सीमा लाँघ गयी
जमाखोरी और रिश्वतखोरी भी ,
सारी हदें पर कर गई ,
कई लोग लिप्त हुए इसमें ,
सिक्ता कण से रमे सब में |
विषमता की विभीषिका ने ,
पग-पग पर कदम बढ़ाये अपने ,
गरीबों की जमीन हथिया कर ,
चालाक किसान धनवान हो गया ,
छोटा किसान बिना ज़मीन के ,
केवल मजदूर बन कर रह गया |
संख्या गरीबों की बढ़ी है ,
आवाज बुद्धिजीवी की ,
दवा दी जाती है ,
स्थिति देश की बिगड़ती जाती है ,
चंद हाथों में धन के सिमटने से ,
धनिक अधिक धनाढ्य हो गया ,
इस मकड़ जाल में फँस कर ,
जीना आम आदमी का कठिन हो रहा |
नेतागिरी एक धंधा बनने से ,
कई गुंडे नेता बन बैठे हैं ,
करते हैं देश हित की बातें ,
पर जेब अपनी भरते हैं ,
जब भी क्रांति आयेगी ,
जागृति समाज में लायेगी ,
सत्य की आवाज न दबाई जाएगी ,
गरीबों और अमीरों के बीच की ,
खाई पटती जायेगी ,
देश में खुशहाली आयेगी |



आशा

21 जून, 2010

एक झलक तेरी

चूड़ियों की खनक ,
मेंहदी की महक ,
पैरों से पायल की छन-छन,
मन में मिश्री घोल रही ,
एक झलक पाने को तेरी ,
मन की कोयल बोल रही |
मीठी मधुर हँसी तेरी ,
घूँघट से झाँकती चितवन तेरी ,
क्यों बार-बार खींच लाती मुझको ,
तेरे दामन को छूती हवा ,
और करीब लाती मुझको |
लाल रंग के जोड़े में ,
लहरा कर जब चलती है ,
दामिनी सी दमकती है ,
और अधिक सम्मोहित करती है |
तू चपला है या मुखरा है ,
यह तो मुझे पता नहीं ,
पर यह तेरा सुन्दर चेहरा ,
जो छिपा हुआ अवगुंठन में ,
अपनी ओर खींचता मुझको |
मन पंछी उड़ना चाह रहा ,
पंखों को अपने तोल रहा ,
तेरी एक झलक पाने के लिये ,
मन का पिंजरा छोड़ रहा |


आशा