01 जुलाई, 2010

मैं तो एक शमा हूं ,

मैं जलती हुई शमा हूं
यह कैसे समझाऊं परवानों को
तरह तरह की भाषा जिनकी
और जाति भी जुदा जुदा |
बिना बुलाये आते हैं
जब तक कुछ कहना चाहूं
जल कर राख हो जाते हैं
बदनाम मुझे कर जाते है |
मैं जलती हूं रोशनी के लिए
सब को राह दिखाने के लिए
एक रात का जीवन मेरा
नहीं चाहती अहित किसी का |
इसी लिए तो कहती हूँ
 यहां रात में क्या रखा है
छोटा सा जीवन है तुम्हारा
आज नहीं तो कल जाना है
जीवन का अंत तो होना है
दिन के प्रकाश में तुम जाओ
उन अतृप्त चिड़ियों के पास
जिनका भोजन यदि बन पाओ
तृप्त उन्हें तुम कर सकते हो
तब यह तो लोग न कह पाएगें,
मैं जलती हूं तुम्हारे लिए
रिझाती हूं तुम्हें
अपने पास आने के लिए |
तुम एक बात मेरी सुन लो
फिर से मेरे पास न आना
मरने की यदि चाहत ही हो
उन चिड़ियों के पास चले जाना
यदि मेरी बात रास न आए
तुमको यदि यह ना भाए
तब कहीं और चले जाना
फिर से बापस ना आना |
आशा

30 जून, 2010

रूढ़िवादिता

ना ही धोखा दिया ,
ना ही हम बेवफा हैं ,
हैं कुछ मजबूरियाँ ऐसी,
कि हम तुम से जुदा हैं |
समाज ने हम को ,
किसी तरह जीने न दिया ,
साथ रहने की चाहत को ,
समूल नष्ट किया ,
पर अब जो भी हो ,
समाज में परिवर्तन लाना होगा ,
रुढीवादी विचारधारा को ,
आईना दिखाना होगा ,
उसे जड़मूल से मिटाना होगा ,
आने वाली पीढ़ी भी वर्ना,
कुछ ना कर पायेगी,
इसी तरह यदि फँसी रही ,
कैसे आगे बढ़ पायेगी ,
हम तो बुज़दिल निकले ,
समाज से मोर्चा ले न सके ,
कुछ कारण ऐसे बने कि ,
अपनी बात पर टिक न सके ,
अब बेरंग ज़िंदगी जीते हैं ,
हर पल समाज को कोसते हैं ,
अपनी अगली पीढ़ी को ,
दूर ऐसे समाज से रखेंगे ,
समस्या तब कोई न होगी ,
स्वतंत्र विचारधारा होगी |


आशा

29 जून, 2010

परम सत्य

जन्म जीवन की सुबह है ,
तो मृत्यु शाम है,
शाम जब ढल जाती है ,
अंधकार हो जाता है ,
दिन का प्रकाश,
जाने कहाँ खो जाता है ,
जीवन साथ छोड़ जाता है ,
सब कुछ यहीं रह जाता है ,
मृत्यु शैया पर पड़ा हुआ वह ,
विचारों में खो जाता है ,
कई बातें याद आती हैं ,
कभी पश्चाताप भी होता है ,
मन में भय भी उभरता है ,
लोभी का लोभ यदि ना छूटे ,
वह विचलित भी होता है ,
सत्कर्म हो या दुष्कर्म ,
सभी यहीं छूट जाते हैं ,
जाने वाले अपने निशान छोड़ जाते हैं ,
दुष्कर्मों की गहरी खाई ,
समय के साथ पट जाती है ,
यादें सत्कर्मों की ,
लम्बे समय तक रहती हैं ,
जन्म और मृत्यु शाश्वत सत्य हैं .
है जन्म जीवन का प्रारम्भ ,
तो मृत्यु अंतिम छोर है ,
सब जानते हुए भी ,
लालसा जीने की रहती है ,
यदि सचेत न हुए ,
आत्मा को शांति नहीं मिलती ,
सच है परम सत्य यही है ,
मृत्यु ही परम शांति है ,
जीवन की विश्रान्ति है |


आशा

28 जून, 2010

पाप और पुण्य

होते सिक्के के दो पहलू
एक पाप और एक पुण्य
बाध्य करते सोचने को
है पाप क्या और पुण्य क्या
है यह अवधारणा
विकसित मस्तिष्क की |
निजी स्वार्थ हित धन देना
क्या पाप नहीं होता ?
पर मंदिर में दिया दान
कैसे पुण्य हो जाता |
जहाँ किसी का हित होता
वही पुण्य निहित होता
जब पश्चाताप किसी को होता
उसके लिए वही पाप होता
आवश्यकता से अधिक संचय
आता पाप की श्रेणी में
लोक हित के लिए संचय
महान कार्य कहा जाता |
यदि पशु की बलि देते हैं
कहलाता देवी का प्रसाद
पर है पशु वध हिंसा ही
यह पाप भी कहलाती है |
है दोनों में अंतर क्या
यह कठिन प्रश्न सा लगता है |
पाप है क्यापुण्य क्या ?
दृष्टिकोण है सब का अपना
जो जैसा सोचता है
वैसा ही उसको लगता |


आशा

27 जून, 2010

नई राह

ना तुम बदले, ना हम बदले
पिछली बातों में क्या रखा है
क्यूँ न हम उन्हें भूल जायें
फिर से अनजान हो जायें
समय बदलाव लाता है
अनुभव भी कुछ सिखाता है
यदि रास्ता नहीं खोजा
साथ-साथ चलते ही रहे
जीवन एक रस हो जायेगा
जब नई राहें होंगी
बंधन कोई नहीं होगा
एक नई पहचान बनेगी
और जिंदगी कट जायेगी
वादा बस एक करना होगा
ना तुम मुझसे मिलना
और ना मैं तुमसे
इसी राह पर यदि चल पाये
फिर से अजनबी हो जायेंगे |


आशा

काले कजरारे भूरे बादल

काले कजरारे भूरे बादल,
सारे आसमान में छाये ,
आशा कि किरणें जागी मन में ,
अब तो शायद बरसेंगे ,
पहले सा निराश नहीं करेंगे ,
सारे दिन का इन्तजार ,
निराशा में बदल गया ,
जल की एक बूँद ना बरसी ,
और उमस बढ़ती गई ,
हवा के झोंको को भी ,
बादल सहन न कर पाये ,
जाने कहाँ गुम हो गये ,
हवा को भी संग ले गए ,
दिन में शाम नजर आई ,
चारों ओर अंधियारी छाई,
पर पानी तो बरसा ही नहीं ,
गर्मी और चौगुनी हो गई ,
अब आसमान बिल्कुल साफ है ,
बेचारा किसान बहुत उदास है ,
जाने कब वर्षा आयेगी ,
धरती की प्यास बुझा पायेगी ,
हाथों में बीज लिए वह सोच रहा ,
पिछला साल कहीं फिर तो ना लौटेगा ,
एक-एक बूँद पानी के लिये ,
जब त्राहि-त्राहि मचती थी ,
बिना पर्याप्त जल के ,
बहुत कठिनाई होती थी ,
सूखे की चपेट में आ कर ,
यदि धरती बंजर हो जायेगी ,
सारी खुशियाँ तिरोहित होंगी ,
रोज़ी रोटी भी जायेगी |


आशा

26 जून, 2010

जब भी कोरा कागज़ देखा

जब भी कोरा कागज़ देखा ,
पत्र तुम्हें लिखना चाहा ,
लिखने के लिए स्याही न चुनी ,
आँसुओं में घुले काजल को चुना ,
जब वे भी जान न डाल पाये ,
मुझे पसंद नहीं आये ,
अजीब सा जुनून चढ़ा ,
अपने खून से पत्र लिखा ,
यह केवल पत्र नहीं है ,
मेरा दिल है ,
जब तक जवाब नहीं आयेगा ,
उसको चैन नहीं आयेगा ,
चाहे जितने भी व्यस्त रहो ,
कुछ तो समय निकाल लेना ,
उत्तर ज़रूर उसका देना ,
निराश मुझे नहीं करना ,
जितनी बार उसे पढूँगी ,
तुम्हें निकट महसूस करूँगी ,
फिर एक नये उत्साह से ,
और अधिक विश्वास से ,
तुम्हें कई पत्र लिखूँगी ,
जब भी उनको पढूँगी ,
मैं तुम में खोती जाऊँगी ,
आत्म विभोर हो जाऊँगी |


आशा