25 अगस्त, 2011

क्या पाया


इंसान का इंसान से यह बैर कैसा
सब जान कर अनजान बना रहता
यूं वैमनस्य लिए कब तक जियेगा
आज नहीं तो कल
सत्य उजागर होगा |
बिना बैर किये जो जी लिया
कुछ तो अच्छा किया
जिंदगी नासूर बनने न दी
चंद क्षण खुशियों के भी जिया |
कुछ नेक काम भी किये
जो जिंदगी के बाद भी रहे |
जिसने नज़र भर देखा उन्हें
उसे भरपूर सराहा याद किया |
जिसके ह्रदय में बैर पनपा
कुछ नहीं वह कर पाया
खुद जला उस आग में
दूसरों को भी जलाया उसी में |
आत्म मन्थन तक न किया
आत्म विश्लेषण भी न कर पाया
बस मिट गया यह सोच कर
क्या चाहा था क्या पाया ?

आशा



23 अगस्त, 2011

जब आँख खुली


उस दिन जब आँख खुली
प्रथम किरण सूरज की
जैसे ही चेहर पर पड़ी
दमकने लगा 
वह  और अधिक |
आँखें झुकी वह शरमाई
उसे देख कर सकुचाई
खोजी नजर जब उधर गयी
प्यार भरे नयनों से देखा
धीमें  से वह मुस्काई |
जो संकेत नयनों से मिले
मन की भाषा पढ़ पाया
पहले प्यार की पहली सुबह
और उष्मा उसकी
अपने मन मैं सजा पाया |

आशा

21 अगस्त, 2011

कान्हा


द्वापर में भादों के महीने में

काली अंधेरी रात में

जन्म लिया कान्हा ने

मथुरा में कारागार के कक्ष में |

था दिवस चमत्कारी

सारे बंधन टूट गए

द्वार के ताले स्वतः खुले

जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ |

बेटे को बचाने के लिए
गोकुल जाने के लिए

वासुदेव ने जैसे ही

जल में पैर धरा

जमुना की श्रद्धा ऐसी जागी

बाढ आ गई नदिया में |

बाहर पैर आते ही

कान्हा के पैरों को पखारा

जैसें ही छू पाया उन्हें

अद्भुद शान्ति छाई जल में |

सारा गोकुल धन्य हो गया

कान्हा को पा बाहों में

गोपिया खो गईं

मुरली की मधुर धुन में |

बंधीं प्रेम पाश में उसके

रम कर रह गईं उसी में

ज्ञान उद्धव का धरा रह गया

उन को समझाने में |

वे नहीं जानती थीं उद्देश्य

कृष्ण के जाने का

कंस के अत्याचारों से

सब को बचाने का |

अंत कंस का हुआ

सुखी समृद्ध राज्य हुआ

कौरव पांडव विवाद मैं

मध्यस्थ बने सहायता की |

सच्चाई का साथ दिया

युद्ध से विचलित अर्जुन को

गीता का उपदेश दिया

आज भी है महत्त्व जिसका |

जन्म दिन कान्हा का

हर साल मनाते हैं

श्रद्धा से भर उठाते हैं

जन्माष्टमी मनाते हैं |

आशा

18 अगस्त, 2011

भ्रष्टाचार



कहाँ रहे कैसे दिन बीते
इसकी सुरती नहीं उनको
भीग रहे उस फुहार में
आकंठ लिप्त भ्रष्टाचार में |
जब से बैठे कुर्सी पर
उससे ही चिपक कर रह गए
धन दौलत में ऐसे डूबे
सारे आदर्श धरे रह गए |
वे भूल गए वे क्या थे
नैतिक मूल्य थे क्या उनके
सब कुछ पीछे छोड़ दिया
घड़ा पाप का भरता गया |
भ्रष्टाचार के दलदल से
कोई न बाहर आ पाया
है यह एक ऐसा कीटाणु
समूचा देश निगल रहा |
जाने कितने मुद्दे हैं
पहले से हल करने को
उन पर तो ध्यान दिया नहीं
बढ़ावा दिया भ्रष्टाचार को |
वह अमर बेल सा छाता गया
सारा सुख हर ले गया
पूरा पेड़ सूखने लगा
बरबादी का कहर ढहा |
एक युग नायक ने
उनके अनेक समर्थकों ने
अपना विरोध दर्ज किया
जन जागरण मुखर हुआ |
देश में हलचल हुई
जागृति की लहर चली
कुछ तो प्रभाव हुआ इसका
सोते शासन को हिला दिया |
यदि विरोध नहीं करते
यह कैंसर सा बढ़ता जाता
कोई इलाज काम न करता
भयावह अंत नजर आता |
सभी तो लिप्त हैं इस में
लगे हुए हैं घर भरने में
देश की चिंता कौन करे
नाम उजागर कौन करे|
चक्रव्यूह रचने वालों से
या दलाल हवाला वालों से
जाने कब मुक्ति मिलेगी
भ्रष्टाचार के दानव से|
आशा

17 अगस्त, 2011

बोझ दिल का



बहुत कुछ छिपा है ह्रदय में
जैसे चिंगारी दबी हो राख में
घुटन सी रहती है
बेचैनी बनी रहती है |
कुछ सच का कुछ झूठ का
हर वक्त बोझ दिल पर
बढता ही जा रहा
बेबात उलझाता जा रहा |
कब तक दबूं
उस अहसास से
जो चाहता कुछ और है
पर हो जाता कुछ और |
अच्छे और बुरे दिनों ने
बहुत कुछ सिखाया है
बदलाव इस जीवन में
कुछ तो आया है |
मन की किस से कहूँ
अवकाश ही नहीं किसी को
मुझे सुनने के लिए
समस्या समझने के लिए |
अब खिंच रही है जिंदगी
बिना किसी उद्देश्य के
बोझ कम होने का
नाम नहीं लेता |
उसका हर क्षण बढ़ना कैसे रुके
कोइ राह नहीं दिखती
यह तक सोच नहीं पाता
होगा क्या परिणाम इसका |

आशा





15 अगस्त, 2011

गृहणी




शाम ढले उड़ती धूल
जैसे ही होता आगाज
चौपायों के आने का
सानी पानी उनका करती |
सांझ उतरते ही आँगन में
दिया बत्ती करती
और तैयारी भोजन की |
चूल्हा जलाती कंडे लगाती
लकड़ी लगाती
फुकनी से हवा देती
आवाज जिसकी
जब तब सुनाई देती |
छत के कबेलुओं से
छनछन कर आता धुंआ
देता गवाही उसकी
चौके में उपस्थिति की |
सुबह से शाम तक
घड़ी की सुई सी
निरंतर व्यस्त रहती |
किसी कार्य से पीछे न हटती
गर्म भोजन परोसती
छोटे बड़े जब सभी खा लेते
तभी स्वयं भोजन करती |
कंधे से कंधा मिला
बराबरी से हाथ बटाती
रहता सदा भाव संतुष्टि का
विचलित कभी नहीं होती |
कभी खांसती कराहती
तपती बुखार से
व्यवधान तब भी न आने देती
घर के या बाहर के काम में |
रहता यही प्रयास उसका
किसी को असुविधा न हो |
ना जाने शरीर में
कब घुन लग गया
ना कोइ दवा काम आई
ना जंतर मंतर का प्रभाव हुआ
एक दिन घर सूना हो गया
रह गयी शेष उसकी यादें |
आशा

12 अगस्त, 2011

नौनिहाल


लो आया पन्द्रह अगस्त

त्योहार स्वतंत्रता दिवस का

याद दिलाने उन शहीदों की

जो प्राण न्योछावर कर गए

देश की आजादी के लिए |

खुशियों से भरे नौनिहाल

सोच कैसे मनाएं त्यौहार

तैयारी में जुट गए

भाषण ,कविता और नाटिका

सब में भाग लेने के लिए |

नए कपड़ों में सजे

एकत्र हुए तिरंगे की छाँव तले

देश भक्ति में ओतप्रोत

गीत गाते नारे लगाते

सही कर्णधार नजर आते

स्वतंत्र भारत के |

देख उनकी कर्मठता लगता

है सारा भार

उन नन्हें कन्धों पर

आने वाले कल का |

हर बार की तरह

शपत भी ली है

उन नन्हें बच्चों ने

कोइ एक कार्य पूर्ण करने की |

वे पूर्ण श्रद्धा से करते नमन

उन आजादी के परवानों को

जो आहुति अपनी दे गए

स्वतंत्रता का मीठा फल

भेट देश को कर गए |