15 फ़रवरी, 2013

व़जूद मेरा


अपना व़जूद कहाँ खोजूं
फलक पर ,जमीन पर
 या जल के अन्धकार के अन्दर 
सोच सोच   कर थक गयी
लगा  पहुँच से बाहर वह
मन  मसोस कर रह गयी
फिर उठी उठ कर सम्हली
बंधनों में बंधा खुद को देख
कोशिश की मुक्त होने की 
असफल रही आहत हुई 
निराशा ही हाथ लगी 
रौशनी की एक किरण से 
एक अंकुर आस का जागा
जाने कब प्रस्फुटित हुआ 
नव चेतना से भरी 
खोजने लगी अस्तित्व अपना 
वह सोया पडा था 
घर के ही एक कौने में 
दुबका हुआ था वहीँ 
जहां किसी की नजर न थी 
जागृति ने झझकोरा 
क्यूं व्यर्थ उसे गवाऊं 
हैं ऐसे  कई कार्य 
जो अधूरे मेरे बिना 
तभी एक अहसास जागा 
वह जगह मेरी नहीं 
क्यूं जान नहीं पाई 
है व़जूद मेरा अपना 
यहीं इसी दुनिया में  |

आशा 


 



13 फ़रवरी, 2013

वास्तविकता

       बचपन से ही उमा को लड़किया बहुत अच्छी लगती थीं आस पास की बच्चियों के साथ खेलना ,उनकी चोटी करना उन्हें खिलाना  पिलाना आए दिन की बात थी |कभी कभी तो उंहें घर ले आती और अपने पास रखने की जिद्द करती |
         शादी के बाद जब पहला बेटा हुआ तब उमा खुश तो हुई पर उसकी बेटी की चाह अधूरी रह गयी |वह बेटे को ही लड़कियों की तरह सजाती सवारती और सोचती अगली बार तो निश्चित ही बेटी होगी |
जहां इतना इंतज़ार किया कुछ वर्ष और सही |
पर जब दूसरा भी बेटा हुआ तब वह बहुत रोई और अनमनी सी रहने लगी |
           उसने एक बेटी गोद लेने का मन बना लिया और  गोद लेने की हट करने लगी   |सब ने बहुत समझाया कहा "जब तेरी बहू आएगी तब सारे अरमां पूरे कर लेना वह भी तो तेरी बेटी ही होगी "
           बेटे की शादी की जब बातें चलने लगीं अति उत्साह से सारी तैयारी की |जब पर्चेजिग सीमा पार करने लगी तब भी समझाया "क्या एक दिन में ही सारे अरमां पूरे करोगी "|
         पर बह तो बहू में ऐसी डूबी कि भूल ही गयी कि daughter के आगे in law भी लगा है |सालभर भी न हुआ था कि बहू ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए |बहू बहू न हो कर बेटी से भी ज्यादा हो गयी और अपनी मर्यादा भूल स्पष्ट शब्दों में कह दिया "मैंने पहले कभी काम नहीं किया है ,मुझसे रोटी नहीं बनाती "
खैर तीन तीन बाई रखने के बाद भी जब फिजूल की बातें होने लगी तब उमा का मन बहुत दुखी हो गया |वह सोचने लगी आखिर कहाँ भूल हो गयी बहू के साथ व्यवहार  में |
|              अब उसे लगा अति हर बात की बुरी होती है |यह तो तब ही समझ जाना चाहिए था जब बहू हर बात
बढ़ा चढा कर अपनी सहेलियों को बताती थी और अपनी माँ  की आए दिन बुराई किया करती थी |जब वह अपनी माँ की सगी नहीं हुई तब सास की क्या होगी  |

11 फ़रवरी, 2013

क्या तुमने कहा ?

क्या तुमने कहा 
क्या मैंने सुना
जो सुना उसी पर सोचा विचारा 
फिर भी  गहन प्रतिक्रिया दी |
जो तुमने कहा कहीं खो गया 
कुछ नया ही हो गया 
कहा सुना बेमानी हुआ 
अर्थ का अनर्थ हो गया  |
फिर भी बहुत खुशी हुई
मन में कुछ हलचल हुई 
मैंने कुछ तो सुना सोचा 
अपने में खोया नहीं रहा  |
यही मुझे भला लगा 
कुछ अपना सा लगा 
फिर से डूबा अपने में
 और व्यस्त सा  हो गया |
आशा 

09 फ़रवरी, 2013

वह पल



बौराता  अमवा
महका वन उपवन
चली वासंती पवन
बसंत में रंग गयी
फूलों से लदी  डालियाँ
झूमती अटखेलियाँ करतीं
आपस में चुहल करतीं
बहार आगमन की सूचक वे
बीता कल याद दिला जातीं
यादे ताजी कर जातीं
कुछ नई और जुड़ जातीं
यादें होती बेमानीं
लौट कर न आनीं
पर होती मीठी सी
 रह न पाती अनजान  उनसे
जब पलकें  अपनी मूँदूं
दृष्टि पटल से वे गुजरतीं
जाने कब गाड़ी थम जाती
आगे बढ़ना नहीं चाहती
बंद घड़ी के कांटे सी
वहीँ ठिठक कर रह जाती
उस पल को भरपूर जीती
वह लम्हा विशिष्ट होता
सारे दुःख पीछे रह जाते
सुख के झरने झरझर झरते
फिरसे नव ऊर्जा भरते
उन्मुक्त कदम आगे बढते|
आशा 
 

06 फ़रवरी, 2013

प्रकृतिके अनमोल नज़ारे


(१) प्रकृति के अनमोल नजारे 
लगते बहुत प्यारे 
आँखोंमें बस गए 
रंग जीवन में भर गए |

(२) इधर  पत्थर उधर पत्थर
जिधर देखो उधर पत्थर
जमाने की अनुभूतियों ने
बना दिया मुझे पत्थर |

आशा

05 फ़रवरी, 2013

सड़क

सड़क को कम न समझो 
बड़ा महत्त्व रखती है 
सब का भार वहन करती है 
बड़ा  संघर्ष करती है 
कोई  आये कोई जाए 
वह कहीं नहीं जाती 
गिला शिकवा नहीं करती 
हर  आने जाने वाले के 
मनोभाव तोलती है |
है  बच्चों की वह प्रिय सहेली 
बनती रेस का ट्रेक 
कभी क्रिकेट का मैदान होती
विकेट  रखती समेत
सब मिलते सुबह शाम यहीं 
सबको प्यारी  लगती
है  मानक देश की समृद्धि की 
और जीवन रेखा प्रदेश की
वह कितना भार वहन करती है
 यह किसी ने नहीं  देखा
इस  पर हुए अत्याचार कई
सब ने अनदेखा किया
इसका महत्त्व न जाना 
यही बात मन को 
बहुत दुखी करती है
यह है अपनी  सड़क 
बहुत महत्त्व रखती है |
आशा




03 फ़रवरी, 2013

बंद करके जुगनुओं को

बंद करके जुगनुओं को
अपने पास रखा है
एक छोटे से कमरे में
उन्हें छिपा रखा है
|जब भी वे चमकें
रौशनी करें
केवल मेरे ही लिए हो
किसी और का सांझा न हो
सांझा चूल्हा मुझे नहीं भाता 
मन  अशांत कर जाता
तभी  तो एकाकीपन मैंने
सम्हाल कर रखा
बड़े यत्न  से
सदुपयोग उसका किया
एकांत पलों को भी जीना
सीख लिया है
अब परिवर्तन नहीं चाहती
एकांत का महत्त्व जान गयी
अपूर्व शान्ति पाते ही
कुछ सोच उभरते हैं
जिनके अपने मतलब होते हैं
यह अदभुद प्रयास
है नमूना एक
सार्थक जीवन जीने  का |