01 जनवरी, 2019
क्षणिकाएं
1-है क्या इसकी आवश्यकता
जब क्षमा नहीं की जा सकती खता
मैं तो हारी यही जता
वह है नहीं क्षमा योग्य
क्या फ़ायदा उसे यह जता |
2- सदा समय के साथ चले
ना ही कोई भूल की हमनें
बीती बातें भूल नववर्ष का
जश्न मनाने लगे |
३-मौसम सर्दी का आया
ठण्ड से तालमेल रखने का
खुद को स्वस्थ बनाने का
सन्देश लाया खुशहाली का |
४-तुम जाना गोकुल ग्राम ले जाना सन्देश मेरा
गोप गोपियों को बड़े प्यार से समझाना
मैं कहीं दूर नहीं उनसे रहता सदा जुदा उनसे
ज्ञान बांटना वैराग्य का मेरा महत्त्व समझाना
|
5-सच में झूट की मिलावट है कि नहीं कहने को तो कटु लगता है
बात मेरी सत्यपरक है या नहीं
किसी भी मानक पर तोल लो
मुझे सत्य की परख है कि नहीं |
6-खुसरो दरिया प्रेम का
कलकल बहता जाए
डूबकी लगाए जब तक
मन अनंग न हो जाए |
आशा
आशाआशा
30 दिसंबर, 2018
साथी मेरे
दिल है हमाराकोई शिकार नहींतीर नयनों सेक्यूँ चलाने लगेजो कहर बरपाने लगेराह में कंटक अनेकपर फूल भी कम नहींऔर राहें भी जुदा नहींफिर किस लिएदामन में मुंहछुपाने लगेक्यूँ राह से भटकने लगेहम हैं सरल सहजव्यक्तित्व के धनीना कोई फरेवीना ही कपटीस्वच्छ छवि है हमारीजो मन में है वहीचहरे के भावों मेंदुनियादारी सेदूरी बना कर चलतेएक ही राह परकदम बढ़ाते हैंआवश्यकता नहींकिसी की सलाह कीनयनों के तीरों कीया ताकाझांकी कीखुद के नयन ही काफी हैपथ प्रदर्शन के लिये |
28 दिसंबर, 2018
लौटा दो मुझे बीता हुआ बचपन
कोई उपहार
बस लौटा दो मेरा
बीता हुआ बचपन
कहना बहुत सरल है
पचपन में बचपन की बातें
शोभा नहीं देतीं
मैंने तो पचपन पार कर लिया
तुम क्या जानों ?
कितना सुकून मिलता है
उस दौर को याद कर
वहीं जाना चाहता है
पीछे पलटना चाहता है
वे दिन भी कितने प्यारे थे
खिलोने थे मुझे बहुत प्यारे
दिन उनमें खो कर
कहाँ गुम हो जाता था
जान न पाती थी
सिलाई कढ़ाई सीखी थी
सभी खेल खेल में
पढ़ना पढ़ाना भी
तभी का शौक था
जीवन जीने का
था शगल अनोखा|
आशा
बस लौटा दो मेरा
बीता हुआ बचपन
कहना बहुत सरल है
पचपन में बचपन की बातें
शोभा नहीं देतीं
मैंने तो पचपन पार कर लिया
तुम क्या जानों ?
कितना सुकून मिलता है
उस दौर को याद कर
वहीं जाना चाहता है
पीछे पलटना चाहता है
वे दिन भी कितने प्यारे थे
खिलोने थे मुझे बहुत प्यारे
दिन उनमें खो कर
कहाँ गुम हो जाता था
जान न पाती थी
सिलाई कढ़ाई सीखी थी
सभी खेल खेल में
पढ़ना पढ़ाना भी
तभी का शौक था
जीवन जीने का
था शगल अनोखा|
आशा
27 दिसंबर, 2018
नव वर्ष कैसा हो
स्वागत आगत नव वर्ष का
यह वर्ष तो बीत चला
अपनी कमियों को पीछे छोड़
कुछ अच्छे कुछ व्यर्थ कार्यों का
बोझ अपने साथ लिए
नया साल आया है
आत्म विश्लेषण का
क्यूँ न आत्म मंथन कर लें
कुछ बादे खुद से करलें
कम ही वादे खुद से हों
जो हों दिखावे के लिए नहीं
हों ऐसे जो पूरे किये
जा सकें
ना हों सतही हों उपयोगी
अपने को समाज में
करने को स्थापित
अपने को समाज में
करने को स्थापित
किसी का अहित न हो
मेल मिलाप का हो मंजर
आनेवाले वर्ष में
हों ऐसे कार्य जिन में
सभी के हित निहित
सबके लिए सुखदायक हों
सभी के हित निहित
सबके लिए सुखदायक हों
कामना है यही कि आने वाला वर्ष
सुख
समृद्धि ले कर आए
चारों ओर खुशहाली लाए
हों ऐसे कार्य कि
जग को मिले प्रेरणा
जग को मिले प्रेरणा
साकार हो समूह में
रहने की कल्पना
रहने की कल्पना
फलेफूले वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा |
आशा
26 दिसंबर, 2018
एहसासों की छुअन
जीवन वृक्ष में हरियाली छाई
अनगिनत पत्ते लगे
हरे भरे और पीले भूरे
उन पर धूप एहसासों की
तरह तरह के अनुभवों की
भावनाएं उकेरी गई उन पर
अनुभव कभी कटु हुए
कभी हुए सुमधुर
कड़वाहट घुली मन में
पर समय पा भुला दी गई
यादों में बसी मीठी यादें
उनके एहसासों की छुअन
पैठ गई दिल के कौने में
अनुभवों का हुआ जखीरा
शब्दों का साथ पा हुआ गतिमान
वह बह चला तीव्र गति से
अभिव्यक्ति की नदिया में
वह बह चला तीव्र गति से
अभिव्यक्ति की नदिया में
नई रचना ने जन्म लिया
फिर नई खोज में किया विचरण
निर्वाध गति से अनवरत आगे बढ़ता
पर एहसासों की छुआन दूर न हो पाती
आस पास लिपटी रहती
घेर लेती अपनी बाहों में
बढ़ती उम्र के साथ
होता एहसास भिन्न
बचपन में बात्सल्य का प्रभाव
होता एहसास भिन्न
बचपन में बात्सल्य का प्रभाव
युवा अवस्था में
प्रेम प्रीत के एहसासों की छुअन
प्रेम प्रीत के एहसासों की छुअन
वानप्रस्थ आते ही
छुअन बिचारों की करवट लेती
भक्ति की ओर झुकती
आस्था बढ़ती जाती
प्रभु से एकाकार होना चाहती |
आशा
25 दिसंबर, 2018
सन्देश
तुम जाना उस देश
पहुंचाना उसका सन्देश
वे तो भूल गए
ना ही पत्र लिखा
ना दिया कोई सन्देश
पलक पावड़े बिछाए रही
विरहन मन को बहलाए रही
पर कब तक खुद को भुलावे में रखती
मन में खुद को तोल रही
क्या खता उसकी रही
जो बाँध न सकी उनको
अपने प्रेमपाश में
कहाँ कमी रह गई उस बंधन में
मन में रहा बोझ
है यह कैसी विडंबना
कोई नहीं समझ पाया
शायद है यही नीयती का फैसला
इससे कोई न बच पाया
यहीं सभी झुक जाते हैं
समदर्शी की सत्ता के आगे
अपने कर्मों का हिसाब
इसी लोक में हो जाता है
कहीं और नहीं जाना पड़ता |
आशा
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