03 सितंबर, 2019
02 सितंबर, 2019
आराधना
हे शिवशम्भू भोलेनाथ
नमन करू मनोयोग से
लगा दो मेरा बेड़ा पार
मझधार में खडी हूँ
ना डूबती हूँ
ना मिलता किनारा
तुम से ही आस लगाए हुए हूँ
तुम हो मेरे जीवन आधार
सहारा लिया कागज़ की नाव का
वह तिलतिल गलने लगी है
अगर हाथ न थामा मेरा
कोई ना होगा
जो पार लगाएगा नैया
अभी तो बहुत काम करने हैं
सभी अधर में लटके रह जाएंगे
तुम्हारे सहारे के बिना
है यही अरदास मेरी
निकालो मुझे मेरी उलझन से
जब सारे काम पूरे हो जाएंगे
तभी जीवन सफल हो पाएगा |
आशा
29 अगस्त, 2019
शतरंज की बिसात
शतरंज की बिसात पर
तरह तरह के मोहरे
अलग अलग रंग रूप
कोई राजा कोई बजीर
कोई पैदल चलते
चाल सब की होती भिन्न
जब राजा
चक्र व्यूह में फंसता
शह और मात का
सिलसिला चलता
दोनो प्रतिद्वंदी
बहुत सोच समझ कर
चलते अपने मोहरे
जब सभी चालें
व्यर्थ हो जातीं
और आगे की
राह ना सूझती
खिलाड़ी अपनी हार मान
नई बाजी फिर से
करते प्रारंभ
यह खेल बहुत
पेचीदा होता
शतरंज की बिसात पर
खेलना सरल नहीं होता
राज नीति के दावपेच
भी तो होते ऐसे
राजनीति के मंच पर
चलना सरल नहीं होता
राजनीति के मंच पर
चलना सरल नहीं होता
हर मोहरा अपना
महत्व जताता
सही समय पर
अपनी चाल चलता
चक्रव्यूह से उबरने में
कितने मोहरे पिटते
कोई नहीं जानता |
सही समय पर
अपनी चाल चलता
चक्रव्यूह से उबरने में
कितने मोहरे पिटते
कोई नहीं जानता |
आशा
28 अगस्त, 2019
शब्दों का चोला
क्या सोच है मेरा ?
क्यों स्वप्न बुन रहा हूँ
यह सब किसलिए है
किस के लिए सज रहा हूँ?
मुंह में शब्द सोए पड़े हैं
आँखें खुलना नहीं चाहतीं
फिर भी अपने उद्गारों को
स्पष्ट करना चाहता हूँ मैं
जनता हूँ जगहसाई को
पर मझे भय नहीं इसका
जो सच है वह नहीं बदल सकता
तभी अपनी भावनाओं को
शब्दों का चोला पहना रहा हूँ मैं
मैं कहाँ तक सफल रहा हूँ
कैसे जान पाऊँ ?
फिर भी तुझे अपना बनाने की
कोशिश में लगा हूँ मैं
जो भी इम्तहान देना पड़े दूंगा
बाक़ी भाग्य पर है निर्भर
आशा लिए जिए जा रहा हूँ मैं |
आशा
26 अगस्त, 2019
सोच की इन्तहा
अब तो सोच की
इन्तहा आम हो गई
हम क्या थे ?क्या चाहते थे ?
क्या हो गए ?
किसने बाध्य किया
राज फाश करने को
अब तो बात फैल गई
चर्चा सरेआम हो गई
गैरत ने मजबूर किया
पलटवार ना करने को
बात ख़ास थी पर
अब आम हो गई
मन कुंठित हुआ
निगाहें झुक गईं
कसम खाई मौन रहने की
किसी बात पर
बहस न करने की
यदि कुछ जानने की
इच्छा भी हुई
मन पर नियंत्रण रखने की
आदत सी हो गई
पहचान अपनी खुद हो गई|
आशा
23 अगस्त, 2019
22 अगस्त, 2019
हथकड़ी
बंधे हाथ दोनो
समाज के नियमों से
है बंधन इतना सशक्त
तिलभर भी नहीं खसकता
कोई इससे बच नहीं पाता
यदि बचना भी चाहे तो
यदि बचना भी चाहे तो
वह नागपाश सा कसता जाता
यदि कोई इससे भागना चाहता
भागते भागते हार जाता
भागते भागते हार जाता
पर कभी यह प्यारा भी लगता
सामाजिक बंधन बने हुए
कुछ नियमों से
हित छिपा होता इनमें
समाज के उत्थान का
हूँ एक सामाजिक प्राणी
वहीं मुझे जीना मरना है
तभी तो भाग नहीं पाती इससे
खुद ही बाँध लिया है
इसमें अपने को
अपनी मन मर्जी से |
आशा
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