03 सितंबर, 2019

पहेली जिन्दगी की


                                         
एक अजीब पहेली
है जिन्दगी
कभी चलती है
कभी ठहर जाती है
जब चलती है
तब अहसास कराती है
न जाने और कितने
पड़ाव अभी बाकी हैं
जिन्दगी की रफ्तार
कभी ज्यादा
तो कभी कम हो जाती है
यही पड़ाव है
या जिन्दगी का ठहराव
यही बात मुझे
समझ नहीं आती
और यह पहेली
अनसुलझी ही रह जाती
यह शाम का धुँधलका
कहता है
साँस अभी बाकी है
न हो उदास
आस अभी बाकी है
जीवन की शाम का
शायद यहीं कहीं है विराम
पर हो क्यूँ ऐसा सोच
पूरी रात अभी बाकी है |
आशा

02 सितंबर, 2019

आराधना



हे शिवशम्भू भोलेनाथ
नमन करू मनोयोग से
लगा दो मेरा बेड़ा पार
मझधार में खडी हूँ
ना डूबती हूँ
ना मिलता किनारा
तुम से  ही आस लगाए हुए हूँ
तुम हो मेरे जीवन आधार
सहारा लिया कागज़ की नाव का
वह तिलतिल गलने लगी है
अगर हाथ न थामा मेरा
कोई ना होगा
जो पार लगाएगा नैया
अभी तो बहुत काम करने हैं
सभी अधर में लटके रह जाएंगे
तुम्हारे सहारे के बिना
है यही अरदास मेरी
निकालो मुझे मेरी उलझन से
जब सारे काम पूरे हो जाएंगे
तभी जीवन सफल हो पाएगा |
आशा

29 अगस्त, 2019

शतरंज की बिसात







शतरंज की बिसात पर 
तरह तरह के मोहरे
अलग अलग रंग रूप
कोई राजा कोई बजीर
कोई पैदल चलते
चाल सब की होती भिन्न
जब राजा
चक्र व्यूह में फंसता
शह और मात का
सिलसिला चलता
दोनो प्रतिद्वंदी
बहुत सोच समझ कर
चलते अपने मोहरे
जब सभी चालें
व्यर्थ हो जातीं
और आगे की
राह ना सूझती
खिलाड़ी अपनी हार मान 
नई बाजी फिर से
करते प्रारंभ
यह खेल बहुत
पेचीदा होता
शतरंज की बिसात पर
खेलना सरल नहीं होता
राज नीति के दावपेच 
भी तो होते  ऐसे
राजनीति के मंच पर
चलना सरल नहीं होता
हर मोहरा अपना
 महत्व जताता
सही समय पर
 अपनी चाल चलता
चक्रव्यूह से उबरने में
कितने मोहरे पिटते
कोई नहीं जानता |


आशा

28 अगस्त, 2019

शब्दों का चोला





क्या सोच है मेरा ?
क्यों  स्वप्न बुन रहा हूँ
यह सब किसलिए है
किस के लिए सज रहा हूँ?
मुंह में शब्द सोए पड़े हैं
आँखें खुलना नहीं चाहतीं
फिर भी अपने उद्गारों को
स्पष्ट करना चाहता हूँ मैं
 जनता हूँ  जगहसाई को
पर मझे भय नहीं इसका
जो सच है वह नहीं बदल सकता
तभी अपनी भावनाओं को
शब्दों का चोला पहना रहा  हूँ मैं
मैं कहाँ तक सफल रहा हूँ
कैसे जान पाऊँ ?
फिर भी तुझे अपना बनाने की
कोशिश में लगा  हूँ मैं
जो भी इम्तहान देना पड़े दूंगा
बाक़ी भाग्य पर है निर्भर
 आशा लिए जिए जा रहा हूँ मैं |
आशा



26 अगस्त, 2019

सोच की इन्तहा



अब तो  सोच  की
इन्तहा आम  हो गई
हम क्या थे ?क्या चाहते थे ?
क्या हो गए ?
किसने बाध्य किया
राज फाश करने को
अब तो बात फैल गई
चर्चा सरेआम हो गई
गैरत ने मजबूर किया
पलटवार ना करने को
बात ख़ास थी पर
अब आम हो गई
मन कुंठित हुआ
निगाहें झुक गईं
कसम खाई मौन रहने की
किसी बात पर
बहस न करने की
यदि कुछ जानने  की
इच्छा भी हुई
मन पर नियंत्रण रखने की
आदत सी  हो गई
पहचान अपनी खुद हो गई|
                                                                             आशा

23 अगस्त, 2019

हाईकू






१-जिए जाते हैं
मन पर है  बोझ 
कैसे उतारें 

२-मन भारी है
दुर्दशा देख कर
देश बेहाल

३-स्वतंत्र देश
पर सुकून कहाँ
जिसे खोजते

३-मन में शोक
गहन उपजता
व्यवस्था देख

आशा |

22 अगस्त, 2019

हथकड़ी



बंधे  हाथ दोनो
समाज के नियमों से
है बंधन इतना सशक्त 
तिलभर भी नहीं  खसकता
कोई इससे बच  नहीं पाता 
यदि बचना भी चाहे तो
वह नागपाश सा कसता  जाता
यदि कोई इससे भागना चाहता 
भागते भागते हार जाता
पर कभी यह प्यारा भी लगता
सामाजिक बंधन बने हुए
कुछ नियमों से
हित छिपा होता इनमें
समाज के उत्थान का
हूँ एक सामाजिक प्राणी
वहीं मुझे जीना मरना है
तभी तो भाग नहीं पाती इससे
खुद ही बाँध लिया  है
इसमें अपने को  
अपनी मन मर्जी से  |
आशा