30 नवंबर, 2016

शत शत नमन

भारत माता के सच्चे सपूत
देश के रखवाले
तुम्हें शत शत नमन
दिन रात सुरक्षा
सीमा की करते
उत्साह क्षीण न होने देते
तुम्हें मेरा प्रणाम
वह मां है बहुत भाग्यशाली
जिसने जन्म दिया
तुम जैसे वीर सपूत को
उसे शत शत नमन
तुम्हारी वीरता के चर्चे
पूरा देश कर रहा
जाती धर्म वर्ग से हटकर
वीरता के चर्चे कर रहा
तुम्हें शत शत नमन
देश है हमारा
उसके लिए जियेंगे
उसके लिए ही
जान न्योछावर करेंगे
यही जज्बा यही शक्ति
मन में धारण करने वाले
देश के रक्षक
तुम्हें मेरा सलाम |

07 अक्तूबर, 2016

बहार


आ जाती है बहार
उसके आने से
बगिया में खिलते फूल
इसी बहाने से
भ्रमर गुंजन करने लगते
खिलते फूल देख
तितलियाँ रंगबिरंगी
गाती तराने
उसके शबनमी एहसास से
उदासी छाने लगती
उसके जाने से
रंग फ़िजा का
बदलने लगता
उसके रूठ जाने से
खुशियों का पिटारा खुलता
उसके मन जाने से
आजाती बहार फिर से
उसके लौट आने से | |
आशा

06 अक्तूबर, 2016

समय रेत सा


काल चक्र
चलता जाता
कभी न थकता
कभी न रुकता
हाथों से दूर
होता जाता
उसे पकड़
कर रखना
असंभव सा
प्रतीत होता
वह लगता
उस रेत सा
जिसे कैद किया
मुठ्ठी में
सोचा अब
कहाँ जाएगी
पर वह
टिक नहीं पाई
धीरे धीरे
खिरने लगी
मुठ्ठी खाली हो गई
भ्रम मन में ना रहा
समय को पकड़ना
नहीं सरल
वह तो रेत सा
फिसलता है
टिका नहीं रहता |
आशा

05 अक्तूबर, 2016

बरसात के मौसम में



बहता जल 
छोटा सा पुल उस पर
 छाई  हरियाली 
चहु ओर 
पुष्प खिले बहुरंगे 
मन को रिझाएँ 
उसे बांधना चाहें 
लकड़ी का पुल
 जोड़ता स्रोत के
 दोनो किनारों को 
हरीतिमा जोड़ती 
मन से मन को 
आसमा में स्याह बादल 
हुआ शाम का धुंधलका
समा सूर्यास्त होने का 
ऐसे प्यारे मौसम में 
मन लिखने का होय |
आशा

03 अक्तूबर, 2016

वह मां है तेरी



वह है माँ तेरी
हर समय फ़िक्र तेरी करती
छोटी बड़ी बातें तेरी
उसके मन में घर करतीं
वह जानती तेरी इच्छा
पूरी जब तक नहीं होती
बेफ़िक्र नहीं हो पाती
सुबह से शाम तक
वह बेचैन ही बनी रहती
उसकी ममता तू क्या जाने
जब तक न हो एहसास तुझे
मां का मन कैसा होता 
जब तू हंसती है 
निहाल वह तुझ पर होती
तेरे अश्रु देख 
मन उसका दुखी होता 
तू नहीं जानती
मन मॉम के जैसा होता 
तभी पिघलने लगता है
आठ आठ आंसू रोता है  
जब कष्ट में तू होती है |
आशा


01 अक्तूबर, 2016

आरक्षण

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बचपन से आज तक
एक ही शब्द सुना आरक्षण
हर वर्ग  चाहता आरक्षण
क्या सभी लाभ ले पाते हैं ?
चन्द लोग ही लाभ उठाते हैं
आरक्षण के लाभ गिनाते हैं
सच्चे चाहने वाले

 देखते रह जाते हैं
आरक्षण की मलाई
चंद लोग ही खा पाते हैं
बात यहीं समाप्त नहीं हुई है
कितने सालों तक मिले आरक्षण
इसकी कोई सीमा तो हो
किसको मिले किसे न मिले
नियम तो कोई हों
आरक्षण जिसे मिल गया
वह हुआ बादशाह
अमीर और अमीर हो गया
जिसे थी आवश्यकता
मुंह ताकता रह गया |
आशा

29 सितंबर, 2016

परजीवी



ऐसी जिन्दगी का लाभ क्या
जो भार हुई स्वयं के लिए
हद यदि पार न की होती
भार जिन्दगी न होती |
औरों के लिए कुछ कर न सके
केवल स्वप्न बुनते रहे 
यदि जीवन अपना सवारा होता 
दूर हकीकत से न रहते |
 
दूर सत्य से सदा रहे
आज सत्य सामने है
छोटी बड़ी बातों के लिए
दूसरों पर आश्रित हुए |

आज हुए आश्रित दूसरों पर 
शरीर साथ नहीं देता
खुद कुछ कर नहीं  पाते
परजीवी हो कर रह गए |
आशा



27 सितंबर, 2016

शौक



शौक सहेज कर रखा है
बचपन से लेकर आज तक
उसमें ही डूबी रहती हूँ
सारी उलझने भूल कर
पहले भी अच्छा लगता था
तरह तरह के कपड़े सिलना
उनसे गुड़िया को सजाना
धूमधाम से ब्याह रचाना
आज भी यादों में सजा रखा है
बचपन के उन मित्रों को
उन गलियों को उन खेलों को
रूठना मनाना
खेल से बाहर हो जाना
मनुहार पर वापिस आना
यादों को जीवित रखती हूँ
उन गलियों में जा कर
जो आज भी यथा स्थित हैं
सजोया है यादों को ऐसे
शौक सहेज कर रखा है जैसे |
आशा


26 सितंबर, 2016

तीनों पीढी एक साथ


कमरे में  तस्वीरों पर 
बहुत धूल थी
सोचा उनको साफ करूँ
नौकर से उन्हें उतरवाया 
टेबल पर रखवाया 
डस्तर ले झाड़ा बुहारा
करीने से लगाने को उठाया 
दादा दादी चाचा ताऊ 
हम और हमारे बच्चे
 आगे रखी तस्वीर में
 तीनों पीढी एक साथ देख
 आँखें खुशी से हुई नम
अद्भुद चमक चहरे पर आई
यही तो है मेरी
 सारे जीवन की कमाई
सभी साथ साथ हैं
भरा पूरा है धर मेरा
अलग अलग रहने की
कल्पना तक कभी
 मन में न आई
बरगद की छाँव में
 बगिया मेरी  हरी भरी
मेरे मन को बहुत भाई|

आशा


24 सितंबर, 2016

ग्राम



ग्राम छोटा सा
जीवंत लोग वहां
मस्ती में जीते |

चौपाल पर
शाम ढले आजाते
भजन गाते |

नाचना गाना
ढोल की थाप पर
रोजाना होता |


कच्चा टापरा
द्वार पर खटिया
खेलते बच्चे |

पीपल तले
ठंडी ठंडी छाँव में
राहत मिले |


आम की पाल
खुलेगी आज अभी
ग्राहक आए |

कुए का पानी
गौरी भरने चली
ले कर घड़ा |

गांधी चरखा
सूत कातती बाला
व्यस्त कार्य में |

काम ही काम
नहीं कोई आराम
यही जीवन |


आशा

22 सितंबर, 2016

उर्मियाँ


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लगता है मुझे  मनमोहक
घंटों सागर तट पर बैठना
अंतहीन सागर को निहारना
तरंगों के संग बह जाना |
उत्तंग तरंगें नीली नीली
उठती गिरतीं आगे बढ़तीं
आपस में टकरातीं
चाहे जब विलीन हो जातीं |
प्रातः झलक बाल अरुण की
रश्मियों के साथ दीखती
कभी अरुण को बाहों में भरतीं  
चाहे जब उर्मियों से खेलतीं |
उनका बादलों में छिपना निकलना
छोटी बड़ी लहरों से उलझना
दृश्य मनोहारी होता
मन तरंगित कर जाता |
स्वर्णिम दृश्य ऐसा होता
समूचा मुझे सराबोर   करता
मन उर्मियों सा होता तरंगित
भावविभोर हो बहना चाहता |
अब उठने का मन न होता
ठंडी रेत पर बैठ वहीं 
दृश्य मन में उतारती
स्वप्नों का किला बनाती|
तभी एक लहर अचानक
मुझे भिगो कर चली गई
झाड़ी रेत  भीगे तन से
ठोस धरातल पर पैर टिके|
पीछे लौटी जाने को घर
 सागर तट का मोह  छोड़
बाल अरुण  सुनहरी धूप
 उर्मियों की   लुका छिपी
और स्वप्नों से मुंह मोड़ कर |
आशा










20 सितंबर, 2016

जुल्फें


जुल्फें तेरी  के लिए चित्र परिणाम
जुल्फें हैं तेरी
काले बदरवा सी
मन में बसीं |

चंचल बाला
बालों में है गजरा
मोहक चाल |

लम्बी सी  चोटी
सर्पिणी सी हिलती
मन मोहती |

कुंतल केश 
बांध न पाए  तुझे 
हुआ ऐसा क्यूं |

जुल्फों का साया 
थकान मिटा गया 
जगाया प्यार |

आशा


18 सितंबर, 2016

मैं हूँ हिन्दुस्तानी


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थे बाबूजी बुन्देल खंड के
अम्मा राजस्थान की
जन्मी मैं बुंदेलखंड में
पर मालवा न छूटा कभी
बोलते समझते थे सब
 अपनी अपनी  भाषा
 मैंने सुनी मालवी  ,मराठी
बुन्देलखंडी ,राजस्थानी
अपने बचपन से आज  तक
पर बोली सदा हिन्दी  बोली
इसी लिए हूँ  हिन्दुस्तानी   
स्कूल में आंग्ल भाषा प्रमुख
हिन्दी दूसरे  स्थान पर थी
संस्कृत कभी पढ़ न पाई   
बहुत ही कठिन लगती थी
पर अब भी सोच नहीं पाती  
त्रिशंकू हो कर रह गई  
आ न पाई परिपक्वता
लिखने और पढ़ने में  
 किसी भी भाषा को
अपने में समाहित करने में  |
आशा