जब रात होती है ,
नींद अपने बाहों में लेना चाहती है ,
तभी एक अनजानी शक्ति ,
अपनी ओर खिचती है ,
आत्म चिंतन के लिए बाध्य करती है ,
दिन भर जो कुछ  होता है ,
चल चित्र की तरह आता है ,
आँखों के समक्ष ,
दिन भर क्या किया ?
 विचार करती हूं ,
कभी विचारों में ठहराव भी आता है ,
गंभीर चिंतन और मनन
मन नियंत्रित कर पाता है ,
जो उचित होता है ,
कुछ खुशियाँ दे जाता है ,
पर जब त्रुति कोई  होती है ,
पश्चाताप होता है ,
कैसे उसे सुधार पाऊं ,
बारम्बार बिचारती हूं ,
जाने कब आँख लग जाती है ,
कब सुबह हो जाती है ,
यह भी पता नहीं चलता ,
कभी अहम बीच में आता है ,
क्षमा याचना  मुश्किल होती  है ,
 कहाँ गलत हूं जानती हूं ,
फिर भी स्वीकर नहीं करती ,
सोचती अवश्य हूं ,
भूल तुरंत सुधार लूं ,
एक निश्प्रह व्यक्ति की तरह ,
जब सोच पाउंगी ,
तभी अपने अंदर झांक पाउंगी ,
है यह कठिन परीक्षा की घड़ी,
फिर भी आशा रखती हूं ,
आत्म नियंत्रण कैसे हो ,
इसका पूरा ध्यान रखूंगी |
आशा
22 अगस्त, 2010
20 अगस्त, 2010
पहले तुम ऐसी न थीं ,
पहले तुम ऐसी ना थीं
 मेरी बैरी ना थीं
मैं आज भी तुम्हें
अपना शत्रु नहीं मानता |
ऐसा क्या हुआ कि
अब पीछे से वार करती हो
कहीं दुश्मन से तो
हाथ नहीं मिला बैठी हो |
वार ही यदि करना है
पीछे से नहीं सामने से करो
पर पहले सच्चाई जान लो
दृष्टि उस पर डाल लो |
कोई लाभ नहीं होगा
अन्धेरे में तीर चलाने से
मेरे समीप आओ
मुझे समझने का यत्न करो |
मेरे पास बैठो
मैं अभी भी ना
समझ पाया हूं तुम्हें
क्यूँ दुखों का सामान
इकट्ठा करती हो |
मेरी भावनाओं से खेलती हो
बिना बात नाराज होती हो
कुछ तो बात को समझो
अभी भी देर नहीं हुई है |
आओ दिल की बात करो
बैमनस्य दूर करने के लिए
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
कुछ तो मुझसे कहो |
ह्रदय पर रखा हुआ बोझ
कुछ तो कम होगा
जब सच्चाई जान जाओगी
मुझे समझ पाओगी
तभी शांति का अनुभव होगा|
आशा
मैं आज भी तुम्हें
अपना शत्रु नहीं मानता |
ऐसा क्या हुआ कि
अब पीछे से वार करती हो
कहीं दुश्मन से तो
हाथ नहीं मिला बैठी हो |
वार ही यदि करना है
पीछे से नहीं सामने से करो
पर पहले सच्चाई जान लो
दृष्टि उस पर डाल लो |
कोई लाभ नहीं होगा
अन्धेरे में तीर चलाने से
मेरे समीप आओ
मुझे समझने का यत्न करो |
मेरे पास बैठो
मैं अभी भी ना
समझ पाया हूं तुम्हें
क्यूँ दुखों का सामान
इकट्ठा करती हो |
मेरी भावनाओं से खेलती हो
बिना बात नाराज होती हो
कुछ तो बात को समझो
अभी भी देर नहीं हुई है |
आओ दिल की बात करो
बैमनस्य दूर करने के लिए
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
कुछ तो मुझसे कहो |
ह्रदय पर रखा हुआ बोझ
कुछ तो कम होगा
जब सच्चाई जान जाओगी
मुझे समझ पाओगी
तभी शांति का अनुभव होगा|
आशा
छिपा हुआ
मन मैं छिपी भावनाओं के ,
इस अनमोल खजाने को ,
क्यूँ अब तक अनछुआ रखा ,
आखिर ऐसी क्या बात थी ,
सब की नजरों से दूर रखा ,
मन में उठी भावनाओं को ,
पहले तो लिपिबद्भ किया ,
फिर क्यूँ सुप्त प्रतिभा को ,
फलने फूलने का अवसर ना दिया ,
सब की नजरों से दूर किसी कोने में ,
इसे छिपा कर रखा,
हर बात जो मन को अच्छी लगती है ,
जीवन में अपना स्थान रखती है ,
यह अधिकार किसी को नहीं है ,
कि उसे अपने साथ ले जाए ,
कोई सपना अधूरा रह जाए ,
साथ ही चला जाए ,
जीने का यह अंदाज ऐसा भी बुरा नहीं है ,
किसी भावना से जुड़ जाएं ,
यह कोई गुनाह नहीं है ,
जो बीत गया कल फिर ना आएगा ,
आनेवाले कल का भी कोई पता नहीं ,
वर्तमान में संचित पूंजी का ,
क्यूँ ना पूर्ण उपयोग करूं ,
इस अनमोल खजाने का,
जी भर कर उपभोग करूं |
आशा
 
,
इस अनमोल खजाने को ,
क्यूँ अब तक अनछुआ रखा ,
आखिर ऐसी क्या बात थी ,
सब की नजरों से दूर रखा ,
मन में उठी भावनाओं को ,
पहले तो लिपिबद्भ किया ,
फिर क्यूँ सुप्त प्रतिभा को ,
फलने फूलने का अवसर ना दिया ,
सब की नजरों से दूर किसी कोने में ,
इसे छिपा कर रखा,
हर बात जो मन को अच्छी लगती है ,
जीवन में अपना स्थान रखती है ,
यह अधिकार किसी को नहीं है ,
कि उसे अपने साथ ले जाए ,
कोई सपना अधूरा रह जाए ,
साथ ही चला जाए ,
जीने का यह अंदाज ऐसा भी बुरा नहीं है ,
किसी भावना से जुड़ जाएं ,
यह कोई गुनाह नहीं है ,
जो बीत गया कल फिर ना आएगा ,
आनेवाले कल का भी कोई पता नहीं ,
वर्तमान में संचित पूंजी का ,
क्यूँ ना पूर्ण उपयोग करूं ,
इस अनमोल खजाने का,
जी भर कर उपभोग करूं |
आशा
,
19 अगस्त, 2010
राखी आई राखी आई
राखी आई राखी आई 
भाई बहन के स्नेह बंध का 
यह त्यौहार अनोखा लाई 
राखी आई राखी आई 
पहन चुनरी ,मंहदी चूड़ी 
बहना भी सजधज कर आई 
राधा और रुकमा को लाई 
राखी आई राखी आई 
फैनी  घेवर और मिठाई 
फल और राखी बहना लाई 
रंग बिरंगी राखी ला कर 
अपने भैया को पहनाई 
केवल धागा नहीं है राखी 
रक्षा का बंधन है राखी 
बांध कलाई पर राखी को 
बहना देती दुआ भाई को |
आशा
18 अगस्त, 2010
क्या खोया क्या पाया मैंने
क्या खोया क्या पाया मैने 
 आकलन जब भी किया 
सच्चाई जानना चाही  
मैं और उदास हो गयी  
बहुत खोया कुछ ना पाया 
जब भी पीछे मुड़ कर देखा 
लुटा हुआ खुद को पाया  
जाने कितने लोग मिले 
केवल सतही संबंधों से 
जिनके चहरे खूब खिले 
यह सब मैने नहीं चाहा 
अपनों को ही अपनाया 
मन से सब का अच्छा चाहा 
पर आत्मीय कोई ना पाया 
जूझ रही हूं जिंदगी से 
कुछ अच्छा नहीं लगता 
चारों और  अन्धेरा लगता  
और उदासी छा जाती है 
सोचती हूं ,विचारती हूं 
लंबी उम्र बनी ही क्यूँ 
यदि निरोगी काया होती 
शायद तब अच्छा लगता 
पर इससे हूं दूर बहुत 
हर ओर वीराना लगता है 
फिर भी मन को छलती हूं 
देती हूँ झूटी सांत्वना 
कभी तो समय बदलेगा 
कोई अपना होगा 
निराशा नहीं होगी 
आशा का दीप जलेगा  
आशा
17 अगस्त, 2010
डायरी का हर पन्ना

मेरी डायरी का,
 हर पन्ना खाली नहीं है ,
सब पर कुछ न कुछ लिखा है ,
जो भी लिखा है असत्य नहीं है ,
पर पढ़ा जाए जरूरी भी नहीं है ,
कुछ पन्नों पर पेन्सिल से लिखा है ,
जिसे मिटाया  जा सकता है ,
कुछ नया लिख कर ,
सजाया सवारा भी जा सकता है ,
 कुछ ऐसा जब भी होता है ,
 जो मन के विपरीत होता है ,
 डायरी में वह भी ,
होता है  अंकित,
मन को लगी ठेस,
 करती है बहुत व्यथित .
 पर पल दो पल की खुशियाँ ,
बन जाती हैं यादगार पल ,
और दे जाती हैं शक्ति ,
उन पन्नों को भरने की ,
पेन्सिल से जो लिखा था ,
रबर से मिट भी गया ,
पर मन के पन्नों पर ,
है जो अंकित ,
उसे मिटाऊं कैसे ,
सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए ,
उनसे छुटकारा पाऊं कैसे |
आशा
15 अगस्त, 2010
गलती उसकी इतनी सी थी
कई बार सड़क पर चौराहों पर ,
झगडों टंटों को पैर पसारे देखा है ,
अन्याय करता तो एक होता है ,
पर दृष्टाओं को उग्र होते देखा है ,
ऐसे उदाहरण अच्छा सन्देश नहीं देते ,
उलटा भय औरअसुरक्षा से ,
भर देते हैं सब को ,
बीते कल का एक दृष्य ,
जब भी सामने आता है ,
बार बार विचार आता है ,
ऐसा क्या किया था उसने ,
जो उस पर कहर टूट रहा था ,
वहां जमा जन समूह ,
उसे समूचा निगलना चाह रहा था ,
सच्चाई जब सामने आई ,
मन मैं झंझावात उठा ,
उस निरीह प्राणी के लिया ,
एक दया का भाव उठा ,
गलती उसकी इतनी सी थी ,
वह चार दिनों से भूखा था ,
जब भूख सहन ना कर पाया ,
अपने को चौराहे पर पाया ,
पहले भीख मांगना चाही ,
पर वह भी जब नहीं मिली ,
चोरी का रास्ता अपनाया ,
जैसे ही दुकान पर पहुंचा ,
रोटी के लिए हाथ बढाया ,
दुकानदार ने देख लिया ,
बहुत मारा बेदम किया ,
जन समूह भी उग्र हुआ ,
और उसे निढाल किया ,
वह टूट गया था ,
फूट फूट कर रोता था ,
वह तो काम चाहता था ,
पर कोई ऐसा नहीं था ,
जो उसे अपना लेता ,
काम के बदले रोटी देता |
आशा
झगडों टंटों को पैर पसारे देखा है ,
अन्याय करता तो एक होता है ,
पर दृष्टाओं को उग्र होते देखा है ,
ऐसे उदाहरण अच्छा सन्देश नहीं देते ,
उलटा भय औरअसुरक्षा से ,
भर देते हैं सब को ,
बीते कल का एक दृष्य ,
जब भी सामने आता है ,
बार बार विचार आता है ,
ऐसा क्या किया था उसने ,
जो उस पर कहर टूट रहा था ,
वहां जमा जन समूह ,
उसे समूचा निगलना चाह रहा था ,
सच्चाई जब सामने आई ,
मन मैं झंझावात उठा ,
उस निरीह प्राणी के लिया ,
एक दया का भाव उठा ,
गलती उसकी इतनी सी थी ,
वह चार दिनों से भूखा था ,
जब भूख सहन ना कर पाया ,
अपने को चौराहे पर पाया ,
पहले भीख मांगना चाही ,
पर वह भी जब नहीं मिली ,
चोरी का रास्ता अपनाया ,
जैसे ही दुकान पर पहुंचा ,
रोटी के लिए हाथ बढाया ,
दुकानदार ने देख लिया ,
बहुत मारा बेदम किया ,
जन समूह भी उग्र हुआ ,
और उसे निढाल किया ,
वह टूट गया था ,
फूट फूट कर रोता था ,
वह तो काम चाहता था ,
पर कोई ऐसा नहीं था ,
जो उसे अपना लेता ,
काम के बदले रोटी देता |
आशा
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