हे सुमन ,तुम हो शिव ,हो मंगल ,
तुम्हें मेरी सादर वंदन ,
जब तुम थे बाल सुमन ,
लोग बहुत प्यार देते थे ,
तुम्हें अनवरत देखा करते थे ,
जैसे जैसे वय बढ़ती गई ,
सौंदर्य बोध ने बहकाया ,
मदिरा का प्याला भी छलकाया,
पर कर्तव्यों से पीछे न हटे ,
हर चुनौती की स्वीकार ,
कहीं भी असफल ना रहे ,
नियमित जीवन संयत आचरण ,
जीवन के थे मूल मंत्र ,
अध्ययन ,मनन और चिंतन ,
में थी गहन पैंठ ,
मूर्धन्य साहित्यकार हुए ,
तुम्हारी कृतियों की,
कोई सानी नहीं है ,
प्रशंसकों की भी कमी नहीं है ,
इस दुनिया से दूर बहुत हो ,
पर कण कण में बसे हुए हो ,
साँसों का हिसाब किया करते थे ,
आज हो बहुत दूर उनसे ,
पहचान यहाँ की है तुमसे ,
हो वटवृक्ष ऐसे ,
जिसके आश्रय में आ कर ,
कई हस्तियाँ पनप गईं हें ,
आकाश की उचाई छू रही हें ,
है मेरा तुमको सादर नमन |
आशा
12 अक्टूबर, 2010
11 अक्टूबर, 2010
वे बेवफा नहीं हें
उदास होते हुए भी ,
दुखी नहीं हूं ,
है विश्वास खुद पर ,
लाचार नहीं हूं ,
सताया बहुत दुनिया ने ,
पर दोषी नहीं हूं ,
ना चाहते हुए भी ,
चुप हूं ,
कहना बहुत है ,
पर मौन हूं ,
जोड़ा है नाता,
ग़मों से ,
हाथ मिलाया,
है उनसे ,
क्यूँ कि वे ,
बेवफा नहीं हें,
है दुनिया उनकी भी ,
अब उसी में,
खो गई हूं ,
पर बातें कल की,
याद जब आतीं हें ,
जग की,
निष्ठुरता की ,
पहचान कराती हें ,
जान गई हूं ,
समझ गई हूं ,
है क्या अर्थ,
निष्ठुरता का ,
साहस भी है,
कहने का ,
पर शब्द होंटों तक ,
आकर लौट जाते हें ,
परिणीति है यह ,
ग़मों के साथ जीने की ,
उन्हीं में,
डूबे रहने की ,
उनसे सीखी,
सहनशीलता ,
और सीमाएं उसकी ,
वे सदा,
साथ निभाते है ,
जब भी हाथ बढाया ,
साथ खड़े,
हो जाते हें ,
मित्रता निभाते हें ,
कितनी भी विषम ,
परिस्थिती हो ,
मैं उन्हीं में,
डूबी रहती हूं ,
तभी अपने को ,
सम्हाल पाती हूं |
आशा
दुखी नहीं हूं ,
है विश्वास खुद पर ,
लाचार नहीं हूं ,
सताया बहुत दुनिया ने ,
पर दोषी नहीं हूं ,
ना चाहते हुए भी ,
चुप हूं ,
कहना बहुत है ,
पर मौन हूं ,
जोड़ा है नाता,
ग़मों से ,
हाथ मिलाया,
है उनसे ,
क्यूँ कि वे ,
बेवफा नहीं हें,
है दुनिया उनकी भी ,
अब उसी में,
खो गई हूं ,
पर बातें कल की,
याद जब आतीं हें ,
जग की,
निष्ठुरता की ,
पहचान कराती हें ,
जान गई हूं ,
समझ गई हूं ,
है क्या अर्थ,
निष्ठुरता का ,
साहस भी है,
कहने का ,
पर शब्द होंटों तक ,
आकर लौट जाते हें ,
परिणीति है यह ,
ग़मों के साथ जीने की ,
उन्हीं में,
डूबे रहने की ,
उनसे सीखी,
सहनशीलता ,
और सीमाएं उसकी ,
वे सदा,
साथ निभाते है ,
जब भी हाथ बढाया ,
साथ खड़े,
हो जाते हें ,
मित्रता निभाते हें ,
कितनी भी विषम ,
परिस्थिती हो ,
मैं उन्हीं में,
डूबी रहती हूं ,
तभी अपने को ,
सम्हाल पाती हूं |
आशा
10 अक्टूबर, 2010
हे शक्ति दायनी
हे शक्तिदायानी वर दायनी ,
हे कल्याणी ,हे दुर्गे ,
तुम्हारे द्वार पर जो भी आता ,
खाली हाथ नहीं जाता ,
पूर्ण कामना होती उसकी ,
जो भी तुम्हें मन से ध्याता ,
है उसकी झोली खाली क्यों?
उसने तो सभी यत्न किये ,
तुम्हें पूरी तरह मनाने के ,भक्ति भाव में डूबा था ,
फिर रही कहाँ कमी ,
यदि इसका भान करा देतीं,
कठिन परीक्षा ना लेतीं ,
वह भव सागर से तर जाता ,
इस जीवन से मुक्ति पाता ,
उसकी झोली खाली थी ,
आज तक भी भरी नहीं है ,
कोई उपाय सुझाया होता ,
वह ठोकर नहीं खाता ,
यदि गिरता भी तो सम्हल जाता ,
बड़े अरमान थे बेटी के ,
तुम बेटी बन कर आजातीं ,
वह तुम्हारे और निकट होता ,
तुम में ही खोता जाता ,
यश गान तुम्हारा सदा करता ,
संतुष्टि का अनुभव करता |
आशा
कुछ ना कुछ सीख देती है ,
आदित्य की प्रथम कीं ,
भरती है जीवन ऊर्जा से ,
कलकल बहता जल सरिता मै ,
सिखाता सतत आगे बढना ,
जल स्त्रोत सिखाता है ,
कपट ह्रदय मै कभी न रखना ,
निर्मल जल से सदा रहना ,
कोकिला की कुहुक कुहुक ,
देती सन्देश मीठी वाणी का ,
हरी भरी वादी कहती ,
सदा विहसते रहना ,
शाम ढले पक्षी समूह ,
जब आसमान मै करते विचरण ,
लगते बहुत अधीर ,
गंतव्य तक पहुंचने के लिए ,
उन्हीं दीख लगता है ,
द्वार पर बैठ राह कोइ देख रहा ,
उसके भी धर लौटने की ,
चाँद चांदनी ओर आकाश ,
जिसमे दिखती आकाश गंगा ,
उसमे चमकते तारे अनेक ,
होता परिचय प्राकृतिक सौंदर्य का ,
प्रकृति की अनुपम छटा ,
हर और दिखाई देती है ,
कुछ न कुछ सीख देती है ,
जो होती है बहुत अमूल्य ,
प्रकृति से छेड़छाड ,
दुःख से भर देती है ,
पर्यावरण का संकल्प ।
बहुत महत्व रखता है ,
जो भागीदार होता इसका ,
वृहद कार्य करता है |
आशा
भरती है जीवन ऊर्जा से ,
कलकल बहता जल सरिता मै ,
सिखाता सतत आगे बढना ,
जल स्त्रोत सिखाता है ,
कपट ह्रदय मै कभी न रखना ,
निर्मल जल से सदा रहना ,
कोकिला की कुहुक कुहुक ,
देती सन्देश मीठी वाणी का ,
हरी भरी वादी कहती ,
सदा विहसते रहना ,
शाम ढले पक्षी समूह ,
जब आसमान मै करते विचरण ,
लगते बहुत अधीर ,
गंतव्य तक पहुंचने के लिए ,
उन्हीं दीख लगता है ,
द्वार पर बैठ राह कोइ देख रहा ,
उसके भी धर लौटने की ,
चाँद चांदनी ओर आकाश ,
जिसमे दिखती आकाश गंगा ,
उसमे चमकते तारे अनेक ,
होता परिचय प्राकृतिक सौंदर्य का ,
प्रकृति की अनुपम छटा ,
हर और दिखाई देती है ,
कुछ न कुछ सीख देती है ,
जो होती है बहुत अमूल्य ,
प्रकृति से छेड़छाड ,
दुःख से भर देती है ,
पर्यावरण का संकल्प ।
बहुत महत्व रखता है ,
जो भागीदार होता इसका ,
वृहद कार्य करता है |
आशा
09 अक्टूबर, 2010
लक्ष्मण रेखा
क्यूं बंद किया
लक्ष्मण रेखा के घेरे मै
कारण तक नहीं समझाया
ओर वन को प्रस्थान किया
यह भी नहीं सोचा
मैं हूँ एक मनुष्य
स्वतन्त्रता है अधिकार
यदि आवश्कता हुई
अपने को बचाना जानती
पर शायद यहीं मै गलत थी
अपनी रक्षा कर न सकी
बचा न सकी खुद को रावण से
मैं कमजोर थी अब समझ गयी हूं
यदि तुम्हारा कहा सुन लिया होता
अनर्गल बातों से दुखित तुम्हें न किया होता
दहलीज पार न करती
हा राम हा राम कि आवाज सुन
राम तक पहुंचने के लिए
कष्ट मैं उन को देख
सहायतार्थ जाने के लिए
तुम्हें बाध्य ना किया होता
मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करती
रावण को भिक्षा देने के लिए
दहलीज पार न करती
यह दुर्दशा नहीं होती
विछोह भी न सहना पड़ता
अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़ता
धोबी के कटु वचनों से
मन भी छलनी ना होता
क्या था सही ओर क्या गलत
अब समझ पा रही हूं
इसी दुःख का निदान कर रही हूं
धरती से जन्मी थी
फिर धरती में समा रही हूं |
आशा
लक्ष्मण रेखा के घेरे मै
कारण तक नहीं समझाया
ओर वन को प्रस्थान किया
यह भी नहीं सोचा
मैं हूँ एक मनुष्य
स्वतन्त्रता है अधिकार
यदि आवश्कता हुई
अपने को बचाना जानती
पर शायद यहीं मै गलत थी
अपनी रक्षा कर न सकी
बचा न सकी खुद को रावण से
मैं कमजोर थी अब समझ गयी हूं
यदि तुम्हारा कहा सुन लिया होता
अनर्गल बातों से दुखित तुम्हें न किया होता
दहलीज पार न करती
हा राम हा राम कि आवाज सुन
राम तक पहुंचने के लिए
कष्ट मैं उन को देख
सहायतार्थ जाने के लिए
तुम्हें बाध्य ना किया होता
मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करती
रावण को भिक्षा देने के लिए
दहलीज पार न करती
यह दुर्दशा नहीं होती
विछोह भी न सहना पड़ता
अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़ता
धोबी के कटु वचनों से
मन भी छलनी ना होता
क्या था सही ओर क्या गलत
अब समझ पा रही हूं
इसी दुःख का निदान कर रही हूं
धरती से जन्मी थी
फिर धरती में समा रही हूं |
आशा
08 अक्टूबर, 2010
था वह मेरा अतीत
जाने कहां खो गया ,
मेरी छाया से भी दूर हो गया ,
जब तक लौट कर आएगा,
बहुत देर हो जाएगी ,
मुझे क्या पहचान पाएगा ,
है वह मेरा अतीत ,
जिसने मिलना भी ना चाहा ,
वर्तमान में भी उसे,
मेरी याद नहीं आई ,
है यह कैसी रुसवाई ,
मेरा समर्पण याद नीं आया ,
ख्यालों की दुनिया सीमित की ,
खुद ही तक सीमित रहा ,
मेरा ख्याल नहीं आया ,
सीमाएं छोड़ नहीं पाया ,
खोया रहा अपने में ,
मुझे अधर में लटकाया ,
था वह मेरा अतीत ,
जुड़ा हुआ था बचपन से ,
यदि वर्त्तमान में भी होता ,
दुःख मुझे कभी ना होता ,
मैं उसी तरह प्यार करती ,
अपनाती स्नेह देती ,
खोया हुआ जब भी मिलता ,
अपनेपास छिपा लेती ,
पर वह मुझे समझ ना पाया ,
वफा का मोल न कर पाया ,
यदि वह पहचान लेता ,
कुछ तो मेरा साथ देता ,
गैरों सा व्यवहार न करता ,
मेरे साथ न्याय करता |
आशा
मेरी छाया से भी दूर हो गया ,
जब तक लौट कर आएगा,
बहुत देर हो जाएगी ,
मुझे क्या पहचान पाएगा ,
है वह मेरा अतीत ,
जिसने मिलना भी ना चाहा ,
वर्तमान में भी उसे,
मेरी याद नहीं आई ,
है यह कैसी रुसवाई ,
मेरा समर्पण याद नीं आया ,
ख्यालों की दुनिया सीमित की ,
खुद ही तक सीमित रहा ,
मेरा ख्याल नहीं आया ,
सीमाएं छोड़ नहीं पाया ,
खोया रहा अपने में ,
मुझे अधर में लटकाया ,
था वह मेरा अतीत ,
जुड़ा हुआ था बचपन से ,
यदि वर्त्तमान में भी होता ,
दुःख मुझे कभी ना होता ,
मैं उसी तरह प्यार करती ,
अपनाती स्नेह देती ,
खोया हुआ जब भी मिलता ,
अपनेपास छिपा लेती ,
पर वह मुझे समझ ना पाया ,
वफा का मोल न कर पाया ,
यदि वह पहचान लेता ,
कुछ तो मेरा साथ देता ,
गैरों सा व्यवहार न करता ,
मेरे साथ न्याय करता |
आशा
07 अक्टूबर, 2010
प्रतिमा सौंदर्य की
प्रातः से संध्या तक ,
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा
वह तोड़ती पत्थर ,
भरी धुप मै भी नहीं रुकती ,
गति उसके हाथों की ,
श्रम कणों की अपूर्व आभा ,
दिखती मुख मंडल पर ,
फटे कपड़ों में लिपटी लाज की गठरी सी ,
लगती है किसी शिल्पी की अनोखी कृति सी ,
महनत से बना सुडौल तन
छन छन कर झांकता अल्हड़ यौवन,
सावला सलोना रंग ,
है वह अनजान अपने रूप से ,
वह भोलापन और आकर्षण ,
ओर सुराही सी गर्दन ,
जो सजी है ,कच्चे कांच के
मनकों की माला से ,
वह जैसे ही झुकती है तगारी उठाने के लिए ,
भंगिमा उसकी लगती प्रस्तर प्रतिमा सी ,
लगता है वह,
इतना वजन कैसे उठा पाएगी ,
तगारी रख सिर पर सरलता से ले जाती है ,
उसका मुखर होना हंसना ओर गुनगुनाना ,
विस्मृत कर देता है ,
फटे कपड़ों में छिपे तन को ,
लगने लगती है ,
स्वर्ग की किसी अप्सरा सी ,
आकृष्ट करती अपनी सुंदरता से ,
जो देन है प्रकृति नटी की ,
चाहता उसे अपलक निहारना ,
अप्रतिम सौन्दैर्यकी मिसाल समझ ,
उसके सम्मोहन में खो जाना ,
सरलता सहजता और भोलापन ,
भराहुआ है कूट कूट कर ,
मजदूरी मिलते ही चेहरे पर भाव,
संतुष्टि का आता है ,
सारी थकान भूल चल देती है डेरे पर ,
पुनः सुबह होते ही काम पर आ जाती है ,
महनत का दर्प चेहरे पर लिए ,
नया उत्साह मन में लिए |
आशा
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