है यह जीवन पान फूल सा ,
हवा लगे मुरझा जाता ,
कैसे इसे सँवारा जाये ,
यह भी नहीं ज्ञात होता ,
हर मोड़ पर झटके लगते हैं ,
उर में दर्द उभरता है ,
हो जाती जब सीमा पार ,
हो जातीं बाधाएं पार ,
तभी मुक्ति मिलती है ,
आत्मा बंधन मुक्त होती है ,
इससे अनजानी नहीं हूँ ,
फिर भी मोह नहीं जाता ,
जीवन और उलझता जाता ,
इस सत्य से कब मुँह मोड़ा ,
क्या सही क्या गलत किया ,
गहन दृष्टि भी डाली ,
विचार मंथन भी किया ,
पर हल कुछ भी ना निकला ,
फिर भी इसकी देखरेख ,
बहुत कठिन लगती है ,
पान फूल से जीवन को ,
जाने कैसे नजर लग जाती है ,
हर झटका अब तक पार किया ,
कोई और उपाय न दिखाई दिया ,
कब आशा निराशा में बदली ,
इस तक का भी ना भान हुआ ,
आगे क्या होगा पता नहीं ,
बस दूर सच्चाई दिखती है ,
है यह जीवन नश्वर ,
और निर्धारित साँसों का कोटा ,
जब कोटा समाप्त हो जायेगा ,
और ना कोई चारा होगा ,
यह भी समाप्त हो जायेगा ,
पंच तत्व में मिल जायेगा ,
छोड़ कर पुराना घर ,
आत्मा भी मुक्त हो जायेगी ,
नये घर की तलाश में ,
जाने कहाँ जायेगी |
आशा
23 नवंबर, 2010
22 नवंबर, 2010
तुम मुझे ना पहले समझे
तुम मुझे ना पहले समझे ,
और न कभी समझ पाओगे ,
हर बात का कुछ अर्थ होता है ,
अर्थ के पीछे छिपा ,
कोई सन्देश होता है ,
वह भी यदि ना समझ पाए ,
तो क्या फायदा बहस का ,
बिना बात तनाव झेलने का ,
इसी तरह यदि रहना था ,
नदी के दो किनारों की तरह ,
जो साथ तो चलते हैं ,
पर कभी मिल नहीं पाते ,
इसका दुःख नहीं होता ,
पर है यह फर्क सोच का ,
मुझे बार-बार लगता है ,
है इतनी दूरी आखिर क्यूँ ?
यह दूरी है या कोई मजबूरी ,
ऐसा भी यदि सोचा होता ,
अपने को दूसरे की जगह ,
रखा होता फिर विचारा होता ,
तब शायद समझ पाते ,
प्यार क्या होता है ?
होती है भावना क्या ?
साथ-साथ रहना ,
धन दौलत में धँसे रहना ,
क्या यही ज़िंदगी है ?
भावना की कद्र ना कर पाये ,
तो क्या लाभ ऐसी ज़िंदगी का ,
मैं जमीन पर फैला पारा नहीं ,
जिसे उठाना बहुत कठिन हो ,
हूँ हाड़ माँस का इंसान ,
जिसमें दिल भी धड़कता है ,
मुझे समझ नहीं पाते ,
दिल की भाषा पढ़ नहीं पाते ,
तुम कैसे न्याय कर सकते हो ,
अपने साथ या मेरे साथ,
हो कोसों दूर भावनाओं से ,
अपनी बात पर अड़े रहते ,
है कहाँ का न्याय यह ,
कभी सही गलत समझा होता ,
कुछ झुकना भी सीखा होता ,
तब शायद कोई हल होता ,
किसी की क्या समस्या है ,
यदि दूर उसे नहीं कर सकते ,
दो बोल सहानुभूति के भी ,
मुँह से यदि निकल पाते ,
कुछ बोझ तो हल्के होते ,
पर शायद मेरा सोच ही है गलत ,
नागरिक दूसरे दर्जे का ,
पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
वह सोचता है क्या ,
शब्दों में बता नहीं सकता |
आशा
और न कभी समझ पाओगे ,
हर बात का कुछ अर्थ होता है ,
अर्थ के पीछे छिपा ,
कोई सन्देश होता है ,
वह भी यदि ना समझ पाए ,
तो क्या फायदा बहस का ,
बिना बात तनाव झेलने का ,
इसी तरह यदि रहना था ,
नदी के दो किनारों की तरह ,
जो साथ तो चलते हैं ,
पर कभी मिल नहीं पाते ,
इसका दुःख नहीं होता ,
पर है यह फर्क सोच का ,
मुझे बार-बार लगता है ,
है इतनी दूरी आखिर क्यूँ ?
यह दूरी है या कोई मजबूरी ,
ऐसा भी यदि सोचा होता ,
अपने को दूसरे की जगह ,
रखा होता फिर विचारा होता ,
तब शायद समझ पाते ,
प्यार क्या होता है ?
होती है भावना क्या ?
साथ-साथ रहना ,
धन दौलत में धँसे रहना ,
क्या यही ज़िंदगी है ?
भावना की कद्र ना कर पाये ,
तो क्या लाभ ऐसी ज़िंदगी का ,
मैं जमीन पर फैला पारा नहीं ,
जिसे उठाना बहुत कठिन हो ,
हूँ हाड़ माँस का इंसान ,
जिसमें दिल भी धड़कता है ,
मुझे समझ नहीं पाते ,
दिल की भाषा पढ़ नहीं पाते ,
तुम कैसे न्याय कर सकते हो ,
अपने साथ या मेरे साथ,
हो कोसों दूर भावनाओं से ,
अपनी बात पर अड़े रहते ,
है कहाँ का न्याय यह ,
कभी सही गलत समझा होता ,
कुछ झुकना भी सीखा होता ,
तब शायद कोई हल होता ,
किसी की क्या समस्या है ,
यदि दूर उसे नहीं कर सकते ,
दो बोल सहानुभूति के भी ,
मुँह से यदि निकल पाते ,
कुछ बोझ तो हल्के होते ,
पर शायद मेरा सोच ही है गलत ,
नागरिक दूसरे दर्जे का ,
पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
वह सोचता है क्या ,
शब्दों में बता नहीं सकता |
आशा
21 नवंबर, 2010
सत्ता ईश्वर की
है ईश्वर का वास मनुष्य में
जानते हैं सभी
पर फिर भी क्यूँ
अच्छाई और बुराई
साथ-साथ रह पाती हैं
अच्छाई दबती जाती है
मन के किसी कोने में
खोता जाता है मनुष्य
बुराई के दलदल में
जब भी किसी ऐसे व्यक्ति से
हो जाता संबंध
वह रिश्ता नहीं होता
होता है केवल समझौता
धीरे-धीरे अवगुण भी
अच्छे लगने लगते हैं
और साथ रहते-रहते
रिश्ता निभाने लगते हैं
है मनुष्य खान अवगुण की
बुराई का वर्चस्व बना रहता
बुद्ध और महावीर तो
बहुत कम होते हैं
मन में यदि ईश्वर रहता है
ऐसा क्यूँ होता है
चाहे जितनी करें प्रार्थना
प्रभाव नगण्य होता है
एक ही बात दो लोग साथ-साथ
जब भी देखते हैं
प्रतिक्रिया भिन्न होती है
है अच्छाई और बुराई
मन की ही तो उपज
फिर ईश्वर की सत्ता हो जहाँ
बुराई क्यूँ पनपती है |
आशा
20 नवंबर, 2010
ना जाना ऐसे ऑफिस में
ना जाना ऐसे ऑफिस में ,
जिसमें बिना 'मनी',
कुछ काम ना हो ,
चक्कर लगाते रह जाओगे ,
था काम क्या
यह भी भूल जाओगे |
वहाँ हर मेज़ पर ,
बड़े २ झमेले हैं ,
सब आस लगाए बैठे हैं ,
हैं ऐसे गिद्ध भी ,
जो ताक लगाये बैठे हैं |
नोटों की एक झलक भी ,
यदि जेबों में दिखाई दी
आख़िरी पैसा,
तक छुड़ा लेंगे,
तभी चैन की सांस लेंगे |
आदर्श अगर बघारा तुमने ,
और ना ढीली अंटी की ,
लगाते रहोगे ,
चक्कर पर चक्कर ,
फिर भी काम ,
ना करवा पाओगे |
वहाँ कोई भी सगा नहीं है ,
दो मेज़ों में दूरी नहीं है ,
जब मेज़ों के नीचे से ,
मोटी रकम पहुँचती है ,
सिलसिला काम का ,
तभी शुरू होता है |
यदि है इतनी जानकारी ,
और दिलेरी दिल दिमाग में ,
तभी वहाँ का रुख करना ,
वरना भूले से भी कभी ,
उधर की ओर मुँह नहीं करना |
लगे मुखौटे चेहरे पर ,
असलियत कोई नहीं जानता ,
कथनी और करनी की दूरी ,
भी ना पहचान पाता ,
भूले से यदि फँस जाओ,
नोट साथ लेते जाना ,
तभी होगा कुछ हासिल ,
नहीं तो दीमक के बमीटे से,
कुछ भी हाथ न आयेगा |
है महिमा रिश्वत की अनोखी ,
जो भी इसे जान पाया ,
बहती गंगा में हाथ धो ,
मज़ा ज़िन्दगी का लूट पाया ,
अंत चाहे जो भी हो ,
वह वर्तमान में जीता है ,
घूस खोरी को भी ,
अपनी आय समझ लेता है |
आशा
जिसमें बिना 'मनी',
कुछ काम ना हो ,
चक्कर लगाते रह जाओगे ,
था काम क्या
यह भी भूल जाओगे |
वहाँ हर मेज़ पर ,
बड़े २ झमेले हैं ,
सब आस लगाए बैठे हैं ,
हैं ऐसे गिद्ध भी ,
जो ताक लगाये बैठे हैं |
नोटों की एक झलक भी ,
यदि जेबों में दिखाई दी
आख़िरी पैसा,
तक छुड़ा लेंगे,
तभी चैन की सांस लेंगे |
आदर्श अगर बघारा तुमने ,
और ना ढीली अंटी की ,
लगाते रहोगे ,
चक्कर पर चक्कर ,
फिर भी काम ,
ना करवा पाओगे |
वहाँ कोई भी सगा नहीं है ,
दो मेज़ों में दूरी नहीं है ,
जब मेज़ों के नीचे से ,
मोटी रकम पहुँचती है ,
सिलसिला काम का ,
तभी शुरू होता है |
यदि है इतनी जानकारी ,
और दिलेरी दिल दिमाग में ,
तभी वहाँ का रुख करना ,
वरना भूले से भी कभी ,
उधर की ओर मुँह नहीं करना |
लगे मुखौटे चेहरे पर ,
असलियत कोई नहीं जानता ,
कथनी और करनी की दूरी ,
भी ना पहचान पाता ,
भूले से यदि फँस जाओ,
नोट साथ लेते जाना ,
तभी होगा कुछ हासिल ,
नहीं तो दीमक के बमीटे से,
कुछ भी हाथ न आयेगा |
है महिमा रिश्वत की अनोखी ,
जो भी इसे जान पाया ,
बहती गंगा में हाथ धो ,
मज़ा ज़िन्दगी का लूट पाया ,
अंत चाहे जो भी हो ,
वह वर्तमान में जीता है ,
घूस खोरी को भी ,
अपनी आय समझ लेता है |
आशा
19 नवंबर, 2010
बैलगाड़ी
दो पहियों की बैलगाड़ी ,
खींचते बैल जिसे ,
लकड़ी बाँस लोहा अदि,
होते साधन बनाने के ,
भार चाहे जितना होता ,
पहिये ही उसे वहन करते ,
अपना कर्त्तव्य समझ वे ,
पीछे कभी नहीं हटते |
है परिवार भी एक बैलगाड़ी ,
पति पत्नी गाड़ी के पहिये ,
संबंधी कभी सहायक होते ,
बच्चे मन का बोझ हरते ,
हो जाता पूरा परिवार ,
गाड़ी जीवन की चलती जाती ,
पर भार होता केवल ,
दोनों के कन्धों पर |
आशा
खींचते बैल जिसे ,
लकड़ी बाँस लोहा अदि,
होते साधन बनाने के ,
भार चाहे जितना होता ,
पहिये ही उसे वहन करते ,
अपना कर्त्तव्य समझ वे ,
पीछे कभी नहीं हटते |
है परिवार भी एक बैलगाड़ी ,
पति पत्नी गाड़ी के पहिये ,
संबंधी कभी सहायक होते ,
बच्चे मन का बोझ हरते ,
हो जाता पूरा परिवार ,
गाड़ी जीवन की चलती जाती ,
पर भार होता केवल ,
दोनों के कन्धों पर |
आशा
17 नवंबर, 2010
मन की ऑंखें
मन ने सोचा खोली आँखें ,
देखा अपने आस पास ,
था कुछ विशिष्ट इन आँखों में ,
कल्पना ने उड़ान भारी
ली अनुमति इन आँखों से ,
दूर जाती एक पगडंडी तक ,
जो खो जाती घने जंगल में ,
हैं अनगिनत निशान उस पर ,
हैं दस्तावेज उन क़दमों के ,
जो सुबह शाम बनते मिटते ,
कहते कथा वहाँ रहने वालों की ,
नित नए निशान करते वर्णन ,
उस दिन हुई घटनाओं की |
बहुत निकट झुण्ड हिरणों का ,
ओर दर्शन बायसन समूह का ,
एकाएक सुन दहाड़ बाघ की ,
सारा जंगल गूँज उठा ,
पशु पक्षी कॉल दे दे कर ,
उपस्थिति उसकी दर्शाने लगे ,
जैसे ही वह गुज़र गया ,
शांत हुआ पूरा जंगल ,
शेष था कहीं-कहीं बहता पानी ,
ठंडी हवा और घना जंगल |
जाने अनजाने कितनी बातें,
सहेजी गईं कल्पना में ,
हालत कुछ ऐसी हुई ,
ह़र जगह वही दिखने लगा ,
जो देखा मन की आँखों ने ,
और सिमटने लगा ,
दृश्यों में, कृतियों में |
एक झाड़ी की दो शाखाएँ ,
पीछे उसके बड़ा पत्थर ,
हिरन सा ही दिखने लगा ,
पास पहुँच जब देखा ,
पाया केवल पेड़ और पत्थर |
सच्चाई सामने आई ,
तरस भी आया एक बार ,
मन की आँखों पर ,
कल्पना की उड़ान पर ,
फिर भी जो आनन्द मिला ,
भूल ना पाई आज तक |
हैं आखिर मन की आँखें ,
जो सोचती हैं वही देखती हैं ,
होता है ऐसा क्यूँ ?
यह तक नहीं समझ पाई ,
इस क्यूँ से परेशानी क्यूँ ,
जब मिलता भरपूर ,
आनंद मन की आँखों से |
आशा
देखा अपने आस पास ,
था कुछ विशिष्ट इन आँखों में ,
कल्पना ने उड़ान भारी
ली अनुमति इन आँखों से ,
दूर जाती एक पगडंडी तक ,
जो खो जाती घने जंगल में ,
हैं अनगिनत निशान उस पर ,
हैं दस्तावेज उन क़दमों के ,
जो सुबह शाम बनते मिटते ,
कहते कथा वहाँ रहने वालों की ,
नित नए निशान करते वर्णन ,
उस दिन हुई घटनाओं की |
बहुत निकट झुण्ड हिरणों का ,
ओर दर्शन बायसन समूह का ,
एकाएक सुन दहाड़ बाघ की ,
सारा जंगल गूँज उठा ,
पशु पक्षी कॉल दे दे कर ,
उपस्थिति उसकी दर्शाने लगे ,
जैसे ही वह गुज़र गया ,
शांत हुआ पूरा जंगल ,
शेष था कहीं-कहीं बहता पानी ,
ठंडी हवा और घना जंगल |
जाने अनजाने कितनी बातें,
सहेजी गईं कल्पना में ,
हालत कुछ ऐसी हुई ,
ह़र जगह वही दिखने लगा ,
जो देखा मन की आँखों ने ,
और सिमटने लगा ,
दृश्यों में, कृतियों में |
एक झाड़ी की दो शाखाएँ ,
पीछे उसके बड़ा पत्थर ,
हिरन सा ही दिखने लगा ,
पास पहुँच जब देखा ,
पाया केवल पेड़ और पत्थर |
सच्चाई सामने आई ,
तरस भी आया एक बार ,
मन की आँखों पर ,
कल्पना की उड़ान पर ,
फिर भी जो आनन्द मिला ,
भूल ना पाई आज तक |
हैं आखिर मन की आँखें ,
जो सोचती हैं वही देखती हैं ,
होता है ऐसा क्यूँ ?
यह तक नहीं समझ पाई ,
इस क्यूँ से परेशानी क्यूँ ,
जब मिलता भरपूर ,
आनंद मन की आँखों से |
आशा
16 नवंबर, 2010
इच्छा अधूरी रही मन में
इच्छा अधूरी रही मन में ,
कि दो कदम साथ चलो ,
बेगानों का साथ छोड़ ,
कभी अपनों को भी याद करो ,
यूँ चुप ना रहो अनसुनी न करो ,
कुछ तो बोलो बात करो ,
पर तुम मौन हुए ऐसे ,
खुद को अपने में कैद किया ,
चाहा पर लब नहीं खोले ,
शब्द मुँह से नहीं निकले ,
हो गये इतनी दूर कि ,
यह दूरी नहीं पट पाती ,
गैरों के साथ के अहसास की ,
छाया नहीं मिट पाती,
जब भी मौन टूटे, दिल बोले ,
मन का बोझ हल्का करना हो ,
मुझे याद कर लेना ,
ज़रा सी जगह दिल के कोने की ,
मेरे लिए भी रख लेना ,
किसी और को ना देना ,
शायद यह दूरी मिट जाये ,
कभी मेरी याद आये ,
और इच्छा पूरी हो पाये ,
दो कदम साथ चलने की |
आशा
कि दो कदम साथ चलो ,
बेगानों का साथ छोड़ ,
कभी अपनों को भी याद करो ,
यूँ चुप ना रहो अनसुनी न करो ,
कुछ तो बोलो बात करो ,
पर तुम मौन हुए ऐसे ,
खुद को अपने में कैद किया ,
चाहा पर लब नहीं खोले ,
शब्द मुँह से नहीं निकले ,
हो गये इतनी दूर कि ,
यह दूरी नहीं पट पाती ,
गैरों के साथ के अहसास की ,
छाया नहीं मिट पाती,
जब भी मौन टूटे, दिल बोले ,
मन का बोझ हल्का करना हो ,
मुझे याद कर लेना ,
ज़रा सी जगह दिल के कोने की ,
मेरे लिए भी रख लेना ,
किसी और को ना देना ,
शायद यह दूरी मिट जाये ,
कभी मेरी याद आये ,
और इच्छा पूरी हो पाये ,
दो कदम साथ चलने की |
आशा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)