14 जनवरी, 2011

होगा क्या भविष्य

छोटी बड़ी रंग बिरंगी ,
भाँति-भाँति की कई पतंग ,
आसमान में उड़ती दिखतीं ,
करतीउत्पन्न दृश्य मनोरम ,
होती हैं सभी सहोदरा ,
पर डोर होती अलग-अलग ,
उड़ कर जाने कहाँ जायेंगी ,
होगा क्या भविष्य उनका ,
पर वे हैं अपार प्रसन्न अपने
रंगीन अल्प कालिक जीवन से ,
बाँटती खुशियाँ नाच-नाच कर ,
खुले आसमान में ,
हवा के संग रेस लगा कर |
अधिक बंधन स्वीकार नहीं उन्हें ,
जैसे ही डोर टूट जाती है ,
वे स्वतंत्र हो उड़ जाती हैं,
जाने कहाँ अंत हीन आकाश में ,
दिशा दशा होती अनिश्चित उनकी ,
ठीक उसी प्रकार
जैसे आत्मा शरीर के अन्दर |
उन्मुक्त हो जाने कहाँ जायेगी,
कहाँ रहेगी, कहाँ विश्राम करेगी ,
या यूँ ही घूमती रहेगी ,
नीले-नीले अम्बर में ,
कोई ना जान पाया अब तक
बस सोचा ही जा सकता है
समानता है कितनी ,
आत्मा और पतंग में |

आशा

13 जनवरी, 2011

अनाथ

माँ मैं तेरी बगिया की ,
एक नन्हीं कली ,
क्यूँ स्वीकार नहीं किया तूने ,
कैसे भूल गई मुझे ,
छोड़ गई मझधार में
तू तो लौट गई
अपनी दुनिया में
मुझे झूला घर में छोड़ गई ,
क्या तुझे पता है ,
जब-जब आँख लगी मेरी ,
तेरी सूरत ही याद आई ,
तेरा स्पर्श कभी न भूल पाई ,
बस मेरा इतना ही तो कसूर था ,
तेरी लड़के की आस पूरी न हुई ,
और मैं तेरी गोद में आई ,
तू कितनी पाषाण हृदय हो गई ,
सारी नफरत, सारा गुस्सा ,
मुझ पर ही उतार डाला ,
मुझे रोता छोड़ गई ,
और फिर कभी न लौटी,
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ,
अच्छी तरह समझती हूँ
मेरा भविष्य क्या होगा
मुझे कौन अपनाएगा ,
मैं अकेली
इतना बड़ा जहान ,
कब क्या होगा
इस तक का मुझे पता नहीं है ,
फिर भी माँ तेरा धन्यवाद
कि तूने मुझे जन्म दिया ,
मनुष्य जीवन समझने का
एक अवसर तो मुझे दिया !

आशा

12 जनवरी, 2011

निकटता कैसी

निकटता कैसी उन सब से ,
जो वही कार्य करते हैं ,
जिसके लिए मना करते हैं ,
हम तो ऐसे लोगों को ,
सिरे से नकार देते हैं ,
प्रतिदिन शिक्षा देते हैं ,
यह करो, यह ना करो ,
पर हैं वे कितने खोखले ,
यह सभी जानते हैं ,
कुछ रहते धुत्त नशे में ,
करते बात नशा बंदी की ,
कई बार झूमते दिख जाते ,
सामाजिक आयोजनों में ,
पर सुबह होते ही ,
करते बात आदर्शों की ,
अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर ,
फोटो जब तब छपते हैं ,
हैं कितने कुकृत्यों में लिप्त ,
सभी लोग जानते हैं ,
फिर क्यूँ हो श्रद्धा उन पर ,
जो झूठे आदर्शों की ,
बातें करते हैं ,
गले-गले तक डूबे अनाचार में ,
बात ईमानदारी की करते हैं ,
कई रंग बदलते गिरगिट की तरह ,
उससे कुछ कम नहीं हैं ,
यदि अवसर मिल जाये ,
दलाली तक से नहीं डरते ,
हम क्यूँ ऐसे लोगों में ,
गुणों कि तलाश करें ,
है महत्व क्या ,
ऐसे लोगों की वर्जनाओं का ,
क्या सब नहीं जानते ?
फिर उन्हें आदर्श मान ,
क्यूँ महत्व देते हैं ,
अधिक समझदार हैं वे ,
जो उनसे दूर रहते हैं |


आशा

10 जनवरी, 2011

बैसाखी नहीं चाहती

जब भी हाथ बढ़ा स्नेह का ,
झोली भर खुशियाँ बाँटीं ,
उस पर जब भी हाथ उठाया ,
वह जाने कितनी मौत मरी ,
है यह कैसा प्यार तकरार ,
और छिपी हुई उसमें ,
जाने कितनी भावनायें ,
है समझ भी उनकी ,
पर जब चोट लगती है ,
वह बहुत आहत हो जाती है ,
और भूल जाती है ,
उस प्रेम का मतलब ,
जो कुछ समय पूर्व पाया था ,
नफरत से भर जाती है ,
बदले का भाव प्रबल होता है ,
और उग्रता आती है ,
यही उग्रता बलवती हो ,
बदल देती राह उसकी ,
और चल पड़ी अनजान राह पर ,
मन में गहरा विश्वास लिये ,
नही जानती कहाँ जायेगी ,
किस-किस का अहसान लेगी ,
बस इतना जानती है ,
इस नर्क से तो आज़ाद होगी ,
प्यार ममता और समर्पण ,
बाँट-बाँट हो गयी खोखली ,
सहन शक्ति की पराकाष्ठा ,
बहुत दूर की बात हो गयी ,
जब अंदर ज्वाला धधकती है ,
पृथ्वी तक फट जाती है ,
थी तब वह अबला नारी ,
पर जुल्म कब तक सह पाती ,
है अब वह सबल सफल ,
कमजोर असहाय नारी नहीं ,
अपना अधिकार पाना जानती है ,
अपने पैरों पर खड़ी है ,
किसी की बैसाखी नहीं चाहती |

आशा

09 जनवरी, 2011

अनजानी

छन-छन छनन-छनन ,
पायल की छम-छम ,
खनकती चूड़ियों की खनक ,
सिमटते आँचल क़ी सरसराहट
कराते अहसास,
पहनने वाली का ,
भूल नहीं पाता मीठा स्वर ,
उस अनजानी का ,
जब भी शब्द मुँह से निकले ,
फूल झरे मधु रस से पगे ,
हँसती रहती निर्झरनी सी ,
नयनों ही नयनों में ,
जाने क्या अनकही कहती ,
उसकी एक झलक पाने को ,
तरस जातीं आँखें मन की ,
वह और उसकी शोख अदायें,
मन को हौले से छू जातीं ,
जाने कब मिलना होगा ,
उस अनजानी मृदुभाषिणी ,
मृग नयनी सुर बाला से ,
आँखें जब भी बंद करूँगा ,
उसे बहुत निकट पाऊँगा ,
उन्मत्त पवन के वेग सा ,
उसकी और खिंचा आऊँगा ,
चंचल चपल अनजानी को ,
और अधिक जान पाऊँगा |


आशा

08 जनवरी, 2011

कल्पना न थी

नया शहर, अनजान डगर ,
उस पर यह अँधेरी रात ,
कहाँ जायें, कैसे ढूँढें ,
एक छोटी सी छत ,
सर छुपाने के लिए ,
फुटपाथ पर कुछ लोग ,
और जलता अलाव ,
थे व्यस्त किसी बहस में ,
वहाँ पहुँच मैं ठिठक गया ,
खड़े क्यूँ हो रास्ता नापो ,
यहाँ तुम्हारा क्या काम ,
माँगी मदद रुकना चाहा ,
जबाव मिला नये अंदाज में ,
साहब है यह शहर ,
कोई किसी का नहीं यहाँ ,
सभी रहते व्यस्त अपने में ,
संवेदनायें मर चुकी हैं ,
भावनायें दफन हो गईं ,
यहाँ है बस मैं और मेरा पेट ,
कोई मकान नहीं देता ,
पहचान बताओ,
पहला वाक्य होता ,
होती अगर पहचान ,
वहीं क्यूँ नहीं जाते ,
यूँही नहीं भटकते ,
है सुबह होने में,
कुछ समय शेष ,
कुछ समय तो ,
कट ही सकता है ,
यही सोच रुक गया वहाँ ,
और सोच में डूब गया ,
तंद्रा भंग हुई ,
एक दबंग आवाज से ,
है क्या यह,
तेरे बाप का घर ,
पैसे निकाल ,
या चलता बन ,
यहाँ हर चीज बिकाऊ है ,
निजी हो या सरकारी ,
है यह जागीर मेरी ,
हफ्ता दे या फूट यहाँ से ,
कितना कड़वा अनुभव था ,
फुटपाथ है जागीर किसी की ,
इसकी तो कल्पना न थी ,
डाला हाथ जेब में ,
दिखाई हरे नोट की हरियाली ,
पत्थर से मोम हुआ वह ,
किराये के मकान
दिखाने तक की
बात कर डाली |


आशा

07 जनवरी, 2011

है कितनी आवश्यकता

है कितनी आवश्यकता ,
चिंतन मनन की ,
आत्म मंथन की ,
कभी इस पर विचार किया ,
क्या सब तुम जैसे हैं ,
इस पर ध्यान देना ,
जब विचार करोगे ,
अनजाने न बने रहोगे ,
सागर से निकले हलाहल
का पान कर पाओगे ,
तभी शिव होगे ,
संसार चला पाओगे ,
यदि थोड़ी भी कमी रही ,
जीवन अकारथ हो जायेगा ,
जिस यश के हकदार हो ,
वह तिरोहित हो जायेगा ,
मन वितृष्णा से भर जायेगा ,
जब जानते हो ,
कोई नहीं होता अपना ,
सारे रिश्ते होते सतही ,
सतर्क यदि हो जाओगे ,
तभी उन्हें निभा पाओगे ,
मन में उठे ज्वार को ,
सागर सा समेट
अपने पर नियंत्रण रख ,
करोगे व्यवहार जब ,
सफल जीवन का ,
मुँह देख पाओगे ,
रत्न तो पाये जा सकते हैं ,
पर गरल पान सरल नहीं ,
जो दिखता है ,
सब सत्य नहीं है ,
जितना गहराई से सोचोगे ,
गहन चिंतन करोगे ,
तभी हो पायेगा ,
कई समस्याओं का समाधान ,
सफल जीवन की होगी पह्चान ,
जो आदर सम्मान मिलेगा ,
जिसके हो सही हकदार ,
उस पर यूँ पानी न फिरेगा |


आशा



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