25 अप्रैल, 2011

कहीं तो कमी है


परिवर्तन के इस युग में
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा









23 अप्रैल, 2011

यह कैसा आचरण


आज मैं अपनी ३५१ बी पोस्ट डाल रही हूँ | आशा है एक सत्य कथा पर आधारित यह रचना आपको पसंद आएगी |

थी आकर्षक अग्नि शिखा सी
आई थी ऑफिस में नई
सब का मन मोह लेती थी
अपनी मनमोहक अदाओं से |
दिखता था अधिकारी बहुत सौम्य
था अनुभवी ओर धनी व्यक्तित्व का
तथा स्वयं योग प्रशिक्षित |
उसने प्रेरित किया
योग की शिक्षा के लिये
फिर प्रारम्भ हुआ सिलसिला
सीखने ओर सिखाने का |
भावुक क्षणों में वह बौस को गुरू बना बैठी
ऑफिस आते ही नमन कुर्सी को कर
चरण रज माथे लगाती
तभी कार्य प्रारम्भ करती |
सभी जानते थे क्या हों रहा था
वह मर्यादा भी भूल चुकी थी
आगे पीछे घूमती थी
स्वविवेक भी खो बैठी थी |
जब मन भर गया बौस का
उससे दूरी रखने लगा
वह मिलने को भी तरस गयी
अपना आपा खो बैठी |
पर एक दिन अति हो गयी
गाडी रोक कर बोली
मैं जाने नहीं दूंगी
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी |
सभी यह दृश्य देख रहे थे
मन ही मन में
कुछ सोचा उसे धक्का दिया
पागल कहा और चल दिया |
जो कभी विहंसती रहती थी
थी चंचल चपला सी
अब बासी फूल सी
दिखने लगी |
फिर भी इतिश्री नहीं हुई
करा दिया उसका स्थांतरण
दूरस्थ एक शहर में
केवल अपने प्रभाव से |
मझा हुआ खिलाड़ी था
जानता था किसको कैसे जीता जाता है
अपने पद का दुरूपयोग कर
कैसे लाभ लिया जाता है |
आशा








21 अप्रैल, 2011

अब तक तलाश जारी है


कुछ भी अधिक नहीं चाहा
जो मिला उसी को अपनाया
फिर भी जब मन में झांका
खुद को बहुत अकेला पाया |
सामंजस्य परिस्थितियों से
आज तक ना हो पाया
अपनों ने जब भी ठुकराया
गैरों ने अपना हाथ बढ़ाया |
तब भी सोच नहीं पाया
है कौन अपना कौन पराया
कब कोई भीतर घात करेगा
यह भी ना पहचान पाया |
जब भी गुत्थी सुलझानी चाही
कोई अपना नजर ना आया
है स्वार्थी दुनिया सारी
फिर भी स्वीकार ना कर पाया |
कई बार विचार आता है
सब एक से नहीं होते
कोई तो ऐसा होगा
जो निस्वार्थ भाव लिए होगा |
अब तक तलाश जारी है
जाने कब कौन
किस रूप में आए
पूर्ण रूप से अपनाए |

18 अप्रैल, 2011

कई कंटक भी वहाँ होते हें


ना तो जानती थी
ना ही जानना चाहती थी
वह क्या चाहती थी
थी दुनिया से दूर बहुत
अपने में खोई रहती थी |
कल क्या खोया
ओर कल क्या होगा
तनिक भी न सोचती थी
वर्त्तमान में जीती थी |
जो भी देखती थी
पाने की लालसा रखती थी
धरती पर रह कर भी
चाँद पाना चाहती थी |
क्या सही है वह क्या गलत
उस तक की पहचान न थी
अपनी जिद्द को ही
सर्वोपरी मानती थी |
हर बात उसकी पूरी करना
संभव न हों पाता था
अगर कहा नहीं माना
चैन हराम होजाता था |
जब कठोर धरातल
पर कदम रखा
थी बिंदास
कुछ फिक्र न थी |
जिन्दगी इतनी भी
आसान न थी
गर्म हवा के झोंकों ने
उसे अन्दर तक हिला दिया |
उठापटक झगडे झंझट
अब रोज की बात हों गयी
तब ही वह समझ पाई
सहनशीलता क्या होती है |
जब मन पर अंकुश लगाया
बेहद बेबस ख़ुद को पाया
तभी वह जान पाई
माँ क्या कहना चाहती थी |
जिन्दगी ने रुख ऐसा बदला
पैरों के छाले भी
अब विचलित नहीं करते
ठोस धरा पर चलती है
क्यूँ की वह समझ गयी है
जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
कई कंटक भी वहाँ होते हें |

आशा







17 अप्रैल, 2011

चिंगारियां दबी रहने दो


आपस की बातों को
बातों तक ही रहने दो
जो भी छिपा है दिल में
उजागर ना करो
नाकाम मोहब्बत
परदे में ही रहने दो |
वक्त के साथ बहुत
आगे निकल गये हें
याद ना करें पिछली बातें
सब भूल जाएं हम |
कोशिश भुलाने की
दिल में छिपी आग को
ओर हवा देती है
यादें बीते कल को
भूलने भी नहीं देतीं |
हें रास्ते अलग अपने
जो कभी न मिल पाएंगे
हमारे बीच जो भी था
अब जग जाहिर न हों |
बढ़ती बेचैनी को
और न भड़कने दो
हर बात को तूल न दो
चिंगारियां दबी रहने दो |
आशा




16 अप्रैल, 2011

विभिन्न आयाम सौंदर्य के

सभ्यता विकसित हुई
सौन्दर्य बोध भी हुआ
प्रारम्भ हुआ दौर
सजाने ओर सवरने का |
सुडौल देह दाड़िम दन्त पंक्ति
ओर गालों में पड़ते डिम्पल
होते केंद्र आकर्षण के
केश विन्यास विशिष्ट होता था
बढाता था ओर इसे |
कमर तक बल खाती चोटी
चेहरा चूमती काकुल
सोलह श्रृंगार कर कामिनी
लुभाती अपने प्रियतम को |
हिरणी से चंचल कजरारे नयन
ताम्बुल रचित रक्तिम अधर
लगती थी गज गामिनी सी
शायद उसे ही उकेरा गया था
प्रस्तर की प्रतिमाओं में |
धीरे से परिवर्तन आया
लम्बी बलखाती चोटी
जुड़े में सिमटने लगी
पर था उसका अपना आकर्षण |
अब कटे लहराते खुले बाल
बालाओं की पसंद बने
आधुनीक कहलाने की होड़ में
वे छोटे होने लगे |
पुरुषों में भी परिवर्तन आया
दाढी बढ़ाई मूंछें रंगीं
कुछ अलग दिखने की चाह में
बाल तक रंगने लगे |
वय प्राप्त लोग भी
कैसे पीछे रह जाते
कुछ आदत या युवा दिखने की चाहत
बाल रंगना न छूट पाया |
जब बालों में पतझड़ आया
उम्र ने भी प्रभाव दिखाया
पहले तो उन्हें रंगा सवारा
फिर भी जब असंतोष रहा
कह दिया, है गंज
निशानी विद्वत्ता की |
आशा



14 अप्रैल, 2011

प्रेम के प्रतीक


प्रकृती के आँचल में
जहाँ कई प्राणी आश्रय लिये थे
था एक सुरम्य सरोवर
रहता था जिस के समीप
श्याम वर्ण सारस का जोड़ा |
लंबा कद लालिमा लिये सर
ओर लम्बी सुन्दर ग्रीवा
सदा साथ रहते थे
कभी जुदा ना होते थे |
नैसर्गिक प्रेम था उनमें
जो मनुष्य में लुप्त हो रहा
वे स्वप्नों में जीते थे
सदा प्रसन्न रहते थे |
एक सरोवर से अन्य तक
उड़ना और लौट कर आना
अपनी भाषा में ऊंचे स्वर में
इक दूजे से बतियाना
था यही जीवन उनका |
प्रेमालाप भी होता था
पास आ कर
एक दूसरे की ग्रीवा सहला कर
बड़े प्रसन्न होते थे |
उनका चलना ,उनका उड़ना
जल में चोंच डाल
आहार खोजना
मनभावन दृश्य होता था |
जिसने भी देखे ये क्रिया कलाप
उसने ही सराहा प्यार के अनोखे अंदाज को
कुछ तो ऐसे भी थे
उनके प्यार की मिसाल देते थे |
समय के क्रूर हाथों ने
इस प्यार को ना समझ पाया
क्षुधा पूर्ति हेतु
किसी ने एक को अपना शिकार बनाया |
दूसरा सारस उदास हुआ
जल त्यागा
भोजन भी त्यागा
क्रंदन करता इधर उधर भटका |
जिसने भी यह हालत देखी
सोचा कितना
क्रूर होगा वह
जिसने इसे बिछोह दिया
थी जहां पहले खुशी
अब थी व्यथा ही व्यथा |
एक सुबह लोगों ने देखा
वह भी दम तोड़ चुका था
चारों ओर सन्नाटा था
सारस युगल अब ना था
पर यादें उनकी बाकी थीं |

आशा