08 जून, 2011

है यह कैसा प्रजातंत्र


सत्य कथन सत्य आचरण
देश हित के लिए
बढ़ने लगे कदम
सोचा है प्रजातंत्र यहाँ
अपने विचार स्पष्ट कहना
है अधिकार यहाँ |
उसी अधिकार का उपयोग किया
सत्य कहा
कुछ गलत ना किया
फिर भी एक चिंगारी ने
पूरा पंडाल जला डाला
कितने ही आह्त हुए
गिनती तक ना हो पाई
सक्षम की लाठी चली
आंसुओं की धार बही
धारा थी इतनी प्रवाल कि
विचारों को भी बहा ले चली |
दूर दूर तक वे फैले
जनमानस में
चेतना भरने लगे
उन्हें जाग्रत करने के लिए
फिर भी अंदर ही अंदर
सक्षम को भी हिला गए |
स्वतंत्र रूप से अपने विचार
सांझा करने का अधिकार
क्या यहाँ नहीं है
जब कि देश का है नागरिक
स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की नहीं है |
आज भी बरसों बाद भी
मानसिकता वही है
जोर जबरदस्ती करने की
अपना अपना घर भरने की
आदत गई नहीं है |
यदि कोई सही मुद्दा उठे
नृशंसता पूर्ण कदम उठा
उसे दबा देने की
इच्छा मरी नहीं है |
है यह कैसा प्रजातंत्र
जो खून के आंसू रुलाता है
है कुछ लोगों की जागीर
उनको ही महत्त्व देता है |
यदि कोई अन्य बोले
होता है प्रहार इतना भारी
जड़ से ही हिला देता है
पूरी यही कोशिश होती है
फिर से कोई ना मुंह खोले |

आशा




07 जून, 2011

वास्तविकता कोयल की


जैसे ही ग्रीष्म ऋतु आई

जीवों में बेचैनी छाई

वृक्ष आम के बौरों से लदे

आगई बहार आम्र फल की |

पक्षियों की चहचाहट

कम सुनने को मिलती थी

मीठी तान सुनाती कोयल

ना जाने कहाँ से आई |

प्रकृति सर्वथा भिन्न उसकी

रात भर शांत रहती थी

होते ही भोर चहकती थी

उसकी मधुर स्वर लहरी

दिन भर सुनाई देती थी |

जब पेड़ पर फल नहीं होंगे

जाने कहाँ चली जाएगी

मधुर स्वर सुनाई न दे पाएंगे

वातावरण में उदासी छाएगी |

दिखती सुंदर नहीं

कौए जैसी दिखती है

पर मीठी तान उसकी

ध्यान आकर्षित करती है |

घर अपना वह नही बनाती

कौए के घोसले में चुपके से

अंडे दे कर उड़ जाती

वह जान तक नहीं पाता |

ठगा जाता नहीं पहचानता

ये हैं किसके ,उसके अण्डों के साथ

उन्हें भी सेता बड़े जतन से

गर्मीं दे देखभाल करता |

बच्चे दुनिया में आ, बड़े होते

जब तक वह यह जानता

वे उसके नहीं हैं

तब तक वे उड़ चुके होते |

कहलाता कागा चतुर

फिर भी ठगा जाता है

है अन्याय नहीं क्या ?

कोयल का रंग काला

पर है मन भी काला

कौए सा चालाक पक्षी भी

उससे धोखा खा जाता |

आशा

04 जून, 2011

ये अश्रु


ये अश्रु हैं हिम नद से
यूँ तो जमें रहते हैं
पर थोड़ी ऊष्मा पाते ही
जल्दी से पिघलने लगते हैं |
ले लेते रूप नदी का
कभी बाढ भी आती है
तट बंध तोड़ जाती है
जाने कितने विचारों को
साथ बहा ले जाती है |
तब जल इतना खारा होता है
विचारों के समुन्दर से मिल कर
साथ साथ बह कर
थी वास्तविकता क्या उसकी
यह तक याद नहीं रहता |
अश्रु हैं इतने अमूल्य
व्यर्थ ही बह जाना इनका
बहुत व्यथित करता है
बिना कारण आँखों का रिसाव
मन पर बोझ हो जाता है |
आशा





03 जून, 2011

अनोखा जीवन मनुष्य का


जल में तैरतीं इठलातीं
रंग बिरंगी मछलियां
भोजन की तलाश में
यहाँ वहाँ जाती मछलियां |
तितलियाँ उड़ातीं फिरतीं
एक फूल से दूसरे पर
मकरंद का रस लेतीं
जब तक जीतीं
आकण्ठ डूबी रहतीं
मस्ती में |
पर मनुष्य ऐसा कहाँ
वह तो है उपज
विकसित मस्तिष्क की |
सोचता है कुछ
करता कुछ और है
कभी खाली नहीं रहता
खोजता रहता
नायाब तरीके धनोपार्जन के |
वे हों चाहे नैतिक या अनैतिक
बस वह तो यही जानता है
धन तो धन ही है
चाहे जैसे भी आए |
मानता हैजीवन का आधार उसे |
आकण्ठ डूब कर उसमें
अपने आप को
कृतकृत्य मानता है |
समाज भी ऐसे ही लोगों को
देता है मान प्रतिष्ठा
जो धनिक वर्ग से आते हैं
अपने को सर्वोपरी मानते हैं |
अंत समय आते ही
याद आता है ईश्वर
जिसे पहले कभी पूजा ही नहीं
यदि पूजा भी तो रस्म निभाई |
जो प्रेम दूसरों से किया
था केवल दस्तूर दुनिया का
अब कुछ भी न रहा |
मन में अवसाद लिए
दुनिया छोड़ चला
वह मछली सा या तितली सा
कभी ना बन पाया |
आशा








02 जून, 2011

दूर कहीं चले जाते


पहले उनका इन्तजार
बड़ी शिद्दत से किया करते थे
हर वक्त एक उम्मीद लिए
नजरें बिछाए रहते थे |
इन्तजार उसका क्यूँ करें
जिसने हमें भुला दिया
जब उसे ही हमारी फिक्र नहीं
गैरों से गिला क्यूँ करें |
हाले दिल बयां क्यूँ करें
परेशानी का सबब क्यूँ बनें
जब रुलाने में ही उसे मजा आए
उसकी खुशी में इज़ाफा क्यूँ करें |
गर अल्लाह से कुछ मांगते
जो भी पाते खैरात में देते जाते
दवा तो लगती नहीं
तब सदका भी उतारते
दुआ से ही काम चला लेते
वह भी अगर नहीं मिलाती
जिंदगी से पनाह मांग लेते |
वह भी अगर भुला देते
तब दूर कहीं चले जाते
उससे रहते दूर बहुत
दामन भी कभी ना थामते |
आशा |



आशा

बेचैन पक्षी


नीलाम्बर में  
प्रकृति के आँचल में
नीली छतरी के नीचे
यहाँ वहाँ उड़ते फिरते 
थे स्वतंत्र फिर भी 
भयाक्रांत रहते थे |
डर कर  चौंकते थे 
विस्फोटों से 
कर्ण कटु आवाजों से
पंख फैला कर उड़ते 
या  उन्हें फड़फड़ाते
कभी आँखें मूँदे 
अपने कोटर में 
या पत्तियों की आड़ में दुबके 
यही  सोचते रहते थे
ना  जाने कब परिवर्तन होगा
भय मुक्त वातावरण होगा
डर  डर कर कब तक जियेंगे
कैसे ये दिन बीतेंगे |
जब  सुखद वातावरण होगा
मौसम सुहावना होगा
बाधा मुक्त जीवन होगा
भय मुक्त हो
स्वतंत्र विचरण करेंगे |
प्रसन्न मन  दाना चुगेंगे
स्वच्छ  जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
बेचैनी  से दूर बहुत
वृक्षों पर बैठ
चहकेंगे  चहचहाएंगे |

आशा






01 जून, 2011

चाँद भी लजाया है

चितचोर बना मोर
पंख फैला थिरकता |
रंगों की छटा देखता
मन में समाया है |
ये मधुर स्वर सुन
कानों में गूंजती धुन |
जब स्वर पास आया
और पास लाया है |

है अद्भुद रूप तेरा
आकर्षित करता है |
अपने जादू से तूने
सब को लुभाया है |
काकुल चहरे पर
आ छु गयी इस भांति
काली घटा देख कर
चंद्र शरमाया है |

मधुर मुस्कान भरी
ऐसी प्यारी छवि तेरी |
देखी सुंदरता तेरी
चाँद भी लजाया है |
आशा