07 अगस्त, 2011

वह और उसकी तन्हाई


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है पुरानी नैया
नया है खिवैया
आगे बढ़ना न चाहे
साँसें तक रुकती जाएँ |
हिचकोले खाए डगमगाए
रुकना चाहे
आगे बढ़ ना पाए
लगता नहीं आसान
उस पार जाना |
देख पवन का वेग
मस्तूल खींचना चाहे
पर पतवार का वार
उसे लौटा लाए |
है अजब संयोग
सरिता के संग
वो जाने का मन बनाए |
नहीं चाहती कोइ खिवैया
ना ही मस्तूल कोइ
बस चाहती है
मुक्त होना बंधन से |
काट कर सारे बंधन
जाना चाहती दूर बहुत
जहां कोइ खिवैया न हो
बस वह हो और उसकी तन्हाई |
आशा

05 अगस्त, 2011

प्रकृति से छेड़छाड़


हो रही धरती बंजर
उभरी हैं दरारें वहाँ
वे दरारें नहीं केवल
है सच्चाई कुछ और भी
रो रहा धरती का दिल
फटने लगा आघातों से
वह सह नहीं पाती
भार और अत्याचार
दरारें तोड़ रही मौन उसका
दर्शा रहीं मन की कुंठाएं
क्या अनुत्तरित प्रश्नों का हल
कभी निकल पाएगा
प्रकृति से छेड़छाड़ की
सताई हुई धरा
है अकेली ही नहीं
कई और भी हैं
हर ओर असंतुलन है
जो जब चाहे नजर आता है
झरते बादल आंसुओं से
बूंदों के संग विष उगलते
हुआ प्रदूषित जल नदियों का
गंगा तक न बच पाई इससे
कहीं कहर चक्रवात का
कहीं सुनामी का खतरा
फिर भी होतीं छेड़छाड़
प्रकृति के अनमोल खजाने से
हित अहित वह नहीं जानता
बस दोहन करता जाता
आज की यही खुशी
कल शूल बन कर चुभेगी
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी |
आशा

03 अगस्त, 2011

कोइ पूर्ण नहीं होता


जब से सुना उसके बारे में
कई कल्पनाएँ जाग्रत हुईं
जैसे ही देखा उसे
लगी आकर्षक प्रतिमा सी |
था चंद्र सा लावण्य मुख पर
थी सजी सजाई गुडिया सी
आँखें थीं चंचल हिरनी सी
और चाल चंचला बिजली सी |
काले केश घनघोर घटा से
लहराते चहरे पर आते
प्रकाश पुंज सा गोरा रंग
लगी स्वर्ग की अप्सरा सी |
उसकी सुंदरता और निखार
और आकर्षण ब्यक्तित्व का
सम्मोहित करता
लगता प्रतीक सौंदर्य का |
जैसे ही निकली समीप से
उसके स्वर कानों में पड़े
उनकी कटुता से
सारा मोह भंग हो गया |
वह सोचने को बाध्य हुआ
कहीं न कहीं
कुछ तो कमी रह ही जाती है
कोइ पूर्ण नहीं होता |
आशा

01 अगस्त, 2011

तुम कैसे जानोगे


है प्यार क्या
उसका अहसास क्या
तुम कैसे जानोगे
जब तुमने किसी से
प्यार किया ही नहीं |
पिंजरे में बंद पक्षी की वेदना
कैसे पहचानोगे
जब तुमने ऐसा जीवन
कभी जिया ही नहीं |
उन्मुक्त पवन सा बहना भी
तुम समझ ना पाओगे
क्यूँ कि
ए .सी .कमरे की हवा में
जिसमें पूरा दिन बिताते हो
उस जैसा प्रवाह कहाँ |
बाह्य आडम्बरों में लिप्त तुम
भावनाएं किसी की
कैसे समझोगे
हो प्रकृति से दूर बहुत
आधुनिकता की दौड़ में
सबको पीछे छोड़आए हो |
प्यार और दैहिक भूख
के अंतर को
कैसे जान पाओगे
जब सात्विक प्यार के
अहसास को
दिल से न लगाओगे |

आशा

31 जुलाई, 2011

सुख दुःख तो आते जाते हैं


होता रहता परिवर्तन
कभी खुशी सुख देती
कभी अहसास होता
दर्दे दुःख का |
क्या है यह सब
मन बावरा जान नहीं पाता
आती खुशी पल भर को
फिर से गहन उदासी छाती
होता नहीं नियंत्रण मन पर
ना ही कोइ बंधन उस पर
होता हर बार कुछ नया
जो स्वीकार्य तक नहीं होता
मन जिधर झुकता
वह भी झुकता जाता |
जैसा वह चाहे होता है वही |
दे दोष किसे
इस अस्थिरता के लिए
अजीब प्रकृति है
विचलन नहीं थमता |
जाने क्यूँ मन चंचल
ठहराव नहीं चाहता
है वह झूले सा
कभी ऊंचाई छूता
कभी नीचे आता |
भूले भटके जब भी
तटस्थ भाव जाग्रत होता
तभी लगता
सुख दुःख तो आते रहते 
अनेक रंग जीवन के
हैं अभिन्न अंग उसके |
आशा



29 जुलाई, 2011

भय


हूँ भया क्रांत
और जान सांसत में
कोइ आहट नहीं
फिर भी घबराहट
तनी है भय की चादर
आस पास |
इससे मुक्त होने के लिए
अनेकों यत्न किये
पीछा फिर भी
न छूट पाया |
अब तो लगता है
यह है उपज मन की
दबे पाँव आ जाता है
छा जाता मन
मस्तिष्क पर |
कुछ करने की
इच्छा नहीं होती
फिर से लिपट जाता हूँ
उसी चादर में
भय के आगोश में |
ओर खोजता रहता हूँ
वास्तविकता उसकी
जानना चाहता हूँ
है सत्य क्या उसकी |

आशा



27 जुलाई, 2011

छलकने लगा प्यार


भवें लगती कमान
नयनों के सैन बाण ,
निशाना भी है कमाल
यूँ ही व्यर्थ जाए ना |

पानी व दर्प उसका
लगता सच्चे मोती सा ,
बिना प्रीतम से मिले
चैन उसे आए ना |

प्रिय मिलन की आस
लगी लौ हुई बेहाल ,
विचित्र हाल मन का
पर बतलाए ना |

मिला जब मीत आज
खुशी का ना कोइ नाप ,
छलकने लगा प्यार
समेटा भी जाए ना |

आशा