15 अगस्त, 2011

गृहणी




शाम ढले उड़ती धूल
जैसे ही होता आगाज
चौपायों के आने का
सानी पानी उनका करती |
सांझ उतरते ही आँगन में
दिया बत्ती करती
और तैयारी भोजन की |
चूल्हा जलाती कंडे लगाती
लकड़ी लगाती
फुकनी से हवा देती
आवाज जिसकी
जब तब सुनाई देती |
छत के कबेलुओं से
छनछन कर आता धुंआ
देता गवाही उसकी
चौके में उपस्थिति की |
सुबह से शाम तक
घड़ी की सुई सी
निरंतर व्यस्त रहती |
किसी कार्य से पीछे न हटती
गर्म भोजन परोसती
छोटे बड़े जब सभी खा लेते
तभी स्वयं भोजन करती |
कंधे से कंधा मिला
बराबरी से हाथ बटाती
रहता सदा भाव संतुष्टि का
विचलित कभी नहीं होती |
कभी खांसती कराहती
तपती बुखार से
व्यवधान तब भी न आने देती
घर के या बाहर के काम में |
रहता यही प्रयास उसका
किसी को असुविधा न हो |
ना जाने शरीर में
कब घुन लग गया
ना कोइ दवा काम आई
ना जंतर मंतर का प्रभाव हुआ
एक दिन घर सूना हो गया
रह गयी शेष उसकी यादें |
आशा

12 अगस्त, 2011

नौनिहाल


लो आया पन्द्रह अगस्त

त्योहार स्वतंत्रता दिवस का

याद दिलाने उन शहीदों की

जो प्राण न्योछावर कर गए

देश की आजादी के लिए |

खुशियों से भरे नौनिहाल

सोच कैसे मनाएं त्यौहार

तैयारी में जुट गए

भाषण ,कविता और नाटिका

सब में भाग लेने के लिए |

नए कपड़ों में सजे

एकत्र हुए तिरंगे की छाँव तले

देश भक्ति में ओतप्रोत

गीत गाते नारे लगाते

सही कर्णधार नजर आते

स्वतंत्र भारत के |

देख उनकी कर्मठता लगता

है सारा भार

उन नन्हें कन्धों पर

आने वाले कल का |

हर बार की तरह

शपत भी ली है

उन नन्हें बच्चों ने

कोइ एक कार्य पूर्ण करने की |

वे पूर्ण श्रद्धा से करते नमन

उन आजादी के परवानों को

जो आहुति अपनी दे गए

स्वतंत्रता का मीठा फल

भेट देश को कर गए |

09 अगस्त, 2011

रक्षा बंधन बचपन का

जाने कितनी रिक्तता
है आज ह्रदय में
आँखें धुंधलाने लगी हैं
बीते दिन खोजने में |
प्रति वर्ष आता रक्षा बंधन
उसे खोजती रह जाती
फिर अधिक उदास हो जाती |
भूल नहीं पाती बीता कल
जाने कब बीत गया बचपन
वह उल्लास वह उत्साह
जाने कहाँ गया |
जब रंगबिरंगी राखी की
दुकानों पर पडती नजर
याद आती हैं वे गुमटियां
जो पहले सजा करती थीं |
घंटों बीत जाते थे
एक राखी खोजने में खरीदने में
जो भैया के मन भाए
पा कर खुशी से झूम जाए |
सुबह जल्दी उठ जाती
नए कपडे पहन तैयार होती
थाली सजाती दिया लगाती
घेवर और फैनी लाती |
टीका लगा आरती करती
राखी बाँध मुंह मीठा कराती
जैसे ही वह पैर छूता
मन मयूर दुआ देता |
जब एक रुपया
उपहार मिलता
बड़े जतन से उसे सहेजती
आज यह सब कहाँ |
ना भाई है न स्नेह उसका
बस रह गयी
यादें सिमिट कर
हृदय के इक कौने में |

आशा



07 अगस्त, 2011

वह और उसकी तन्हाई


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है पुरानी नैया
नया है खिवैया
आगे बढ़ना न चाहे
साँसें तक रुकती जाएँ |
हिचकोले खाए डगमगाए
रुकना चाहे
आगे बढ़ ना पाए
लगता नहीं आसान
उस पार जाना |
देख पवन का वेग
मस्तूल खींचना चाहे
पर पतवार का वार
उसे लौटा लाए |
है अजब संयोग
सरिता के संग
वो जाने का मन बनाए |
नहीं चाहती कोइ खिवैया
ना ही मस्तूल कोइ
बस चाहती है
मुक्त होना बंधन से |
काट कर सारे बंधन
जाना चाहती दूर बहुत
जहां कोइ खिवैया न हो
बस वह हो और उसकी तन्हाई |
आशा

05 अगस्त, 2011

प्रकृति से छेड़छाड़


हो रही धरती बंजर
उभरी हैं दरारें वहाँ
वे दरारें नहीं केवल
है सच्चाई कुछ और भी
रो रहा धरती का दिल
फटने लगा आघातों से
वह सह नहीं पाती
भार और अत्याचार
दरारें तोड़ रही मौन उसका
दर्शा रहीं मन की कुंठाएं
क्या अनुत्तरित प्रश्नों का हल
कभी निकल पाएगा
प्रकृति से छेड़छाड़ की
सताई हुई धरा
है अकेली ही नहीं
कई और भी हैं
हर ओर असंतुलन है
जो जब चाहे नजर आता है
झरते बादल आंसुओं से
बूंदों के संग विष उगलते
हुआ प्रदूषित जल नदियों का
गंगा तक न बच पाई इससे
कहीं कहर चक्रवात का
कहीं सुनामी का खतरा
फिर भी होतीं छेड़छाड़
प्रकृति के अनमोल खजाने से
हित अहित वह नहीं जानता
बस दोहन करता जाता
आज की यही खुशी
कल शूल बन कर चुभेगी
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी |
आशा

03 अगस्त, 2011

कोइ पूर्ण नहीं होता


जब से सुना उसके बारे में
कई कल्पनाएँ जाग्रत हुईं
जैसे ही देखा उसे
लगी आकर्षक प्रतिमा सी |
था चंद्र सा लावण्य मुख पर
थी सजी सजाई गुडिया सी
आँखें थीं चंचल हिरनी सी
और चाल चंचला बिजली सी |
काले केश घनघोर घटा से
लहराते चहरे पर आते
प्रकाश पुंज सा गोरा रंग
लगी स्वर्ग की अप्सरा सी |
उसकी सुंदरता और निखार
और आकर्षण ब्यक्तित्व का
सम्मोहित करता
लगता प्रतीक सौंदर्य का |
जैसे ही निकली समीप से
उसके स्वर कानों में पड़े
उनकी कटुता से
सारा मोह भंग हो गया |
वह सोचने को बाध्य हुआ
कहीं न कहीं
कुछ तो कमी रह ही जाती है
कोइ पूर्ण नहीं होता |
आशा

01 अगस्त, 2011

तुम कैसे जानोगे


है प्यार क्या
उसका अहसास क्या
तुम कैसे जानोगे
जब तुमने किसी से
प्यार किया ही नहीं |
पिंजरे में बंद पक्षी की वेदना
कैसे पहचानोगे
जब तुमने ऐसा जीवन
कभी जिया ही नहीं |
उन्मुक्त पवन सा बहना भी
तुम समझ ना पाओगे
क्यूँ कि
ए .सी .कमरे की हवा में
जिसमें पूरा दिन बिताते हो
उस जैसा प्रवाह कहाँ |
बाह्य आडम्बरों में लिप्त तुम
भावनाएं किसी की
कैसे समझोगे
हो प्रकृति से दूर बहुत
आधुनिकता की दौड़ में
सबको पीछे छोड़आए हो |
प्यार और दैहिक भूख
के अंतर को
कैसे जान पाओगे
जब सात्विक प्यार के
अहसास को
दिल से न लगाओगे |

आशा