कहानी कही अपने अंदाज में
वह आगे बढता जाता था
कई कहानी ताज की सुनाता था |
उसी से सुनी थी यह भी कहानी
विश्वास तो तब भी न हुआ था
इतना नृशंस शहंशाह होगा
मन को यह स्वीकार न हुआ |
निर्माण कार्य में जुटे कारीगर
दूर दूर से आए थे
कुशल इतने अपने हुनर में
थी न कोइ सानी उनकी |
ताज महल के बनाते ही
वे अपने हाथ गवा बैठे
था फ़रमान शाहजहां का
जो बहुत प्रेम करता था
अपनी बेगम मुमताज से |
वह चाहता न था
कोइ ऐसी इमारत और बने
जो ताज से बराबरी करे |
जीवन के अंतिम पलों में
था जब बेटे की कैद में
अनवरत देखता रहता था
इस प्रेम के प्रतीक को |
आज भी बरसात में
दौनों की आरामगाह पर
जो बूँदें जल की गिरती हैं
दिखती परिणीति परम प्रेम की |
यह कोइ नहीं कहता
अकुशल थे कारीगर
बस यही सुना जाता है
आकाश से प्रेम टपकता है |
आशा