कब तक यूंही डरते रहेंगे
खुल कर सांस ले न पाएंगे
मन को उदासी घेरेगी
हर मुस्कान की भी कीमतें देंगे |
हंसना रोना सब हुआ पराधीन
क्या यही प्रारब्ध में लिखा है ?
जितना सोचो कम लगता है|
बहुत वितृष्णा होती है
अपनी पराधीनता पर
दासता की गंध आती है
जब खुद पर दृष्टि जाती है |
स्वर्ण की हथकड़ी पहनी थी
पैर सजे थे चांदी की बेड़ियों से
खेलना खाना था मयस्सर
जीवन पहले बड़ा रंगीन दीखता था |
आकर्षण उसका अपनी ओर आकृष्ट करता था
जब ठोस धरा पर कदम रखे
भाव मन के कहीं लुप्त हुए स्वप्न जैसे
बहुर यत्नों के बाद भी न मिल पाए |
जब तंद्रा से जागी
खुद को पराधीन पाया
यही कटु सत्य है दुनिया का
यही समझ में आया |
समाज के नियमों में बंध कर रहना
इतना भी सरल नहीं है
महिलाओं से मिले पूंछा परखा
वे पराधीनता से ढकी हैं सर से पैरों तक |
हम कर्तव्यों से बंधे हैं अधिकारों से कोसों दूर
जब भी अपने अधिकार चाहे
सरलता से कह दिया जाता
आशा