16 दिसंबर, 2021

खुले पट मनमंदिर के


                  खुले पट मन मंदिर के

कौन झाँक रहा उनमें से

कभी ख्याल आता कहीं  

 उसका  मनमीत तो नहीं |

बड़ी राह देखी उसकी

 रहा इन्तजार उसी का अब तक

 राह देखना समाप्त हुआ अब 

और समय सामान्य हुआ है | 

है मनमौजी अलमस्त वह

 फिक्र नहीं पालता किसी की

कब कहाँ जाने का मन बना लेता

कोई नहीं जानता चिंता में डूबा रहता |

जिन्दगी के वे क्षण लौट न पाए  

 द्वार खुले रहते थे उसकी बाट जोहने में

 मन को क्लेश होता रहता था

 उसके इन्तजार में |

जाने कब राह देखना आदत में बदला

 यह तक  याद नहीं अब तो

निगाहें द्वार पर लगी रहतीं हैं 

 एक टक राह देखने में |

आशा 

          

14 दिसंबर, 2021

हाइकु (मौसम सर्दी का )


                                        खोली खिड़की

झांक कर  देखा था

आदित्य को ही

 

दूर से आई

आवाज किधर से

चहके पक्षी

 

पेड़ की डाली

हिलती है जोर से

वायु  सी  डोले

  

ठंडा मौसम

आगाज पक्षियों का

सरस लगा

 

 धूप आ गई

रश्मियाँ पसरी  हैं

पत्तियों पर

 

मन ने चाहा

धूप सेकूँ प्रातःकी

 आँगन में हूँ  


हों गर्म वस्त्र  

 ढांके तन को यदि   

सर्दी बचाएं 


ऋतु जाड़े की 

गरमागर्म चाय 

 मजा और है 


कभी सोचना 

दुनिया चाँद पर  

वर्तमान में 


धुंद  ही धुंद 

फैली चारों ओर है 

हाथ न सूझे  


आशा 






 

13 दिसंबर, 2021

महामारी की दहशत


 

संजीवनी बूटी कोई न होती

 समय लगता बारम्बार 

बीमारी से बच  कर निकलने में 

  दवाई का प्रभाव  देखने में |

वह कोई जादू की पुड़िया तो नहीं

कि बुखार भाग जाएगा

उसको देखते ही

 छूमंतर हो जाएगा |

इस दवा का असर तो होता

पर समय बहुत लेता

फिर भी पूर्ण स्वस्थ न हो पाता 

इन सब से उलझनें बढ़ती ही हैं|

दिन रात एक ही रट रहती

दवा से कोई लाभ न हुआ

कोई दूसरी दवा  लाओ

 इसका हल निकालो |

इस महामारी से

 जीवन में सुकून का ह्रास हुआ है

जितनी भी सतर्कता रखी

बीमारी का रूप और भयावय होता गया |

बारम्बार एक ही विचार

मन में कौंधता रहा  

क्या पहले ऐसी बीमारी की

 कोई जगह न थी जन जीवन में |

बीमारी तब भी होतीं थीं 

 लोग भी परम धाम जाते  थे पर

इतना महिमा मंडन किसी बीमारी का

 कभी न होता  था |

 अब तो महामारी की चर्चा से भी

  मन उचटने लगा है

अनजानी दहशत से

मन में विद्रुप भरा है |

विकट समस्या है ऎसी  कि

 थमने का नाम नहीं लेती

जितना भी सोचो

 उलझन बढ़ती ही जाती  |

आशा   

 

 

11 दिसंबर, 2021

जीवन एक कठिन पहेली सा


 

कंगन डोरी  हाथों की  छूटी नहीं कि

 गृहस्ती का कार्य प्रारम्भ किया

तब से अब तक एक लम्हां भी नहीं

मिला सांस लेने को |

हाथों की मेंहदी फीकी पड़ी न थी

 ढेर झूठे बर्तनों का देख रहा राह मेरी

भरी आँखों से देखा यह मंजर

 हाय रे मेरी  किस्मत |

आज तक विश्राम के दो पल न मिले

तुम से मन की बातें करने को  

है यह कैसा न्याय प्रभु  

क्या मैं ही मिली थी सब अनुभवों के लिए ?

जीवन की एक  समस्या जब तक निपटती

दूसरी हाथ फैलाए  खड़ी होती

अभी तक अपने लिए चैन की

 श्वास  लेने का भी समय न मिला |

कोई स्वाद नहीं रहा मुंह में  कसेला सा हो गया

 क्या लाभ बीते कल पर दृष्टिपात का

अब वह लौट कर न आएगा

काल का पहिया आगे बढ़ता जाएगा

मन का क्लेश बढ़ा कर ही जाएगा |

जीवन है  एक कठिन  पहेली सा 

 जिसका  हल न मिला अब तक 

अंतिम समय आने तक   

खुद का अस्तित्व  ही भूल जाएगा |

आशा 


10 दिसंबर, 2021

क्षणिकाएं


                                                     जब अमन चैन का हो साया 

तभी लगता है देश हमारा

 भाई चारा और प्रेम से रहें 

तभी  होगा जीवन सफल हमारा |


ज़िंदा रहने का कुछ ऐसा अंदाज रखो 

जो तुम को न समझे उसे नजर अंदाज करो 

उसके प्यार पर प्राण न्योछावर करो 

यदि नफरत करे उस पर ध्यान न दो |


जान लेवा मंहगाई से आम जन  त्रस्त हुए 

दैनिक वेतन भोगी बेचारे  रोटी रोटी को तरसे 

हर बात पर उधार लेने का मन बनाया 

देने वाला दे तो देता पर दस बातें सुनाकर |


बासंती बयार दे रही आवाज 

ऋतू सुहानी है करो सत्कार 

बादल ने की गर्जन तर्जन 

किया स्वागत  ऋतु  राज का |

आशा 





\

09 दिसंबर, 2021

मान अभिमान किस लिए


 

मान अभिमान किस लिए

किसके लिए?

किस बात पर गुमान करूं

आखिर कब तक अभिमान करूं

मेरा है क्या ?

जिस पर झूटा गरूर करूं |

 समस्याए कम होने का

नाम नहीं लेतीं

जीवन की उलझनें कम नहीं होतीं

समस्याओं की दुकान लगी है|

 सुलझाने की कितनी भी

 कोशिश करूं

जहां से चलना था वहीं

अटक कर रह गई हूँ |

भाग रहा है समय

 पूरी गति से बिना चेतावनी के

 हाथों से छूटा  जा रहा है

सिक्ता कण सा |

 अब कुछ भी नहीं पास मेरे  

ना ही बस में मेरे 

ईश्वर की कृपा यही है

मुझे कष्ट दिया पर सहन शक्ति भी दी है |

 मस्तिष्क में ऊर्जा 

वही है आज तक 

हूँ पूर्ण सजग

 अवचेतन  नहीं  मैं  |

आशा 

खुली किताब के सारे पन्ने


 

खुली किताब के सारे पन्ने

एक आदि ही पढ़ पाई

क्यूँ कि समय न था

मन मसोस कर रह गई |

जीवन का संग्राम

थमने का नाम नहीं लेता

मन उलझा उलझा रहता

 कितनी बातों को दर किनारे रखता |

कभी ख्याल मन में आता

किससे अपना कष्ट बांटूं

किसे अपना हम राज बनाऊँ

उसे कहीं खोजूं खोजती ही न रह जाऊं |

यूं तो जीवन है सुखी संपन्न

कोई कमीं नहीं मुझको

फिर भी यदि असंतुष्ट रहूँ

किसको दोष दूं |

यही फितरत मन की मुझे

कहीं की भी नहीं रहने नहीं देती

उलझी उलझी सी हैं जिन्दगी

ठीक से जीने नहीं देती |

आशा 

/