कब से बैठी राह निहारूं
तुम्हारे आने की
नयन थके द्वार देखते
हर आहट पर चोंक जाते |
जाने तुम कब आओगे
कब तक तरसाओगे
ऐसा क्या गुनाह किया मैंने
जिसकी मुझे खबर नहीं |
यदि बता दिया होता
कुछ हल निकल ही आता
अपनी त्रुटि जान क्षमा मांगने से
मन का बोझ कम हो जाता |
चाहत ने मुझे डुबोया है
मुझे दुःख इस बात का है
कि तुम भी नहीं जानते
किससे क्या अपेक्षा रही मेरी |
मुझे खुद ही पता चल जाता
जरासा इशारा तो किया होता
मैंने अपनी कमियों को
सुधार लिया होता|
मैं अपने को अपराधी न समझती
हुई जो भूल अनजाने में
उसके लिए ही क्षमा प्रार्थी हूँ
मैं सम्हल सम्हल कर पैर रखूँगी |
मन की बात क्यों समझ न पाई
तुम्हारी हर बात आँखे बंद कर मानना
क्यूँ न हर बात में सहमती जताना
यही मेरी सजा होगी |
अब जान लिया है मैंने
मेरा खुद का कोई वजूद नहीं है
पर तुम्हारे बिना भी मेरा
अपना कोई नहीं है |
आशा