06 अक्तूबर, 2011

अवसाद में


सारी बीती उन बातों में , कोई भी सार नहीं ,
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |

आशा


05 अक्तूबर, 2011

कल्पना

प्रत्यक्ष में जो दिखाई दे
कल्पना में समा जाए
जो कभी ना भी सोचा
कल्पना में होता जाए |
होता आधार उसक
केवल मन की उपज नहीं
होता अनंत विस्तार
कल्पना की झील का |
परिवर्तित होता आयाम
स्थूल रूप पा कर भी
कभी कम तो कभी
अधिक होता |
अपने किसी को दूर पा
कई विचार मन में आते
कल्पना का विस्तार पा
मन में हलचल कर जाते |
जो भी जैसा होता
वैसा ही सोच उसका होता
कल्पना में डूब कर
तिल का ताड़ बना देता |
धर्म और जातीय समीकरण
कई बार बिगडते बनाते
वैमनस्य बढता जाता
जब कल्पना के पंख लगते |
हर रोज जन्म लेती
कोइ नई कल्पना
फलती फूलती
और पल्लवित होती |
नहीं अंत कोई उसका
स्वप्न भी जो दिखाई देता
होता समन्वय और संगम
कल्पना और सोचा का |
आशा





03 अक्तूबर, 2011

दीवारें


वे चाहते नहीं बातें बनें
ना ही ऐसी वे बढ़ें
खिंचती जाएँ दीवारें दिल में
प्यार दिखाई ना पड़े |
हो सौहार्द और समन्वय
सभी हिलमिल कर रहें
सदभावपर जो भारी हो
कोइ फितरत ऐसी ना हो |
धर्म और भाषा विवाद को
तूल यदि दिया गया
दीवारें खिचती जाएँगी
दरारें भर ना पाएंगी |

आशा


02 अक्तूबर, 2011

स्वार्थ

दिन बदले बदली तारीखें
ऋतुओं ने भी करवट ली
है वही सूरज वही धरती
ओर है वही अम्बर
चाँद सितारे तक ना बदले
पर बदल रहा इनसान |
सृष्टि के कण कण में बसते
तरह तरह के जीव
परिष्कृत मस्तिष्क लिये
है मनुष्य भी उनमें से एक |
फिर भी बाज नहीं आता
बुद्धि के दुरुपयोग से
प्राकृतिक संसाधनों के
अत्यधिक दोहन से |
अति सदा दुखदाई होती
आपदा का कारण बनती
कठिनाई में ढकेलती
दुष्परिणामों को जान कर भी
वह बना रहता अनजान |
बढ़ती आकांक्षाओं के लिये
आधुनिकता की दौड़ में
विज्ञान का आधार ले
है लिप्त स्वार्थ सिद्धि में
जब भी होगा असंतुलन
वही
तो होग कोप भाजन
प्रकृति के असंतुलन
ओर बिगड़ते समीकरण
भारी पड़ेगे उसी पर |
ले जाएंगे कहाँ
यह तक नहीं सोचता
वही कार्य दोहराता है
बस जीता है अपनी
स्वार्थ सिद्धि के लिये |
आशा





01 अक्तूबर, 2011

गांधी एक विचार




आज हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है |यह स्वतंत्रता सरलता से नहीं मिल पाई है |
इसके पीछे कई लोगों का योगदान है |कुछ के नाम तो चमके भी पर कई तो गुमनाम ही रह गए | उन नीव के पत्थरों को भुलाना हमारी भूल ही होगी |क्रान्तिकारियों के सक्रीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता |
हिन्दुस्तानी मन से स्वतंत्रता चाहते हुए भी विवश थे क्यूं कि उनको बहुत दबा कर रखा जाता था |कुछ लोगों में संगठन करने की अदभुत शक्ति थी |सुभाष चन्द्र बोस ने तो आजाद हिंद फौज भी बना ली थी आजादी की लड़ाई के लिए | गांधी जी भी भारत की स्वतंत्रता चाहते थे |
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश शासन की अर्थ व्यवस्था खराब होने लगी थी |फिर भी वे भारत पर पूरा हक जमाते थे |
गांधी जी क्रान्ति के पक्षधर थे पर वे रक्त विहीन क्रान्ति चाहते थे |इस लिए उन्होंने असहयोग आंदोलन जैसे कई आन्दोलनों का सहारा ले अंग्रेजों पर दबाव बनाया और भारत को आजाद कराने का अपना सपना पूर्ण किया |
फिर भी वे देश को दो भागों में विभक्त होने से नहीं बचा पाए |वे चाहते थे कि कांग्रेस समाज सेवा करे और राजनीति से दूर रहे |पर कुछ लोग सत्ता के लोभ को ना छोड़ पाए |वे सत्ता सुख चाहते थे |महात्मा गांधी की सत्य अहिंसा और सीमित आवश्यकता की बाते भूल गए |आज हम स्वतंत्र हो कर भी कितने असहाय हें यह बात बार बार मन में उठाती है |
जब उन की गोली मार कर ह्त्या करदी गयी हमने एक महान पथ प्रदर्शक खो दिया |एक संत के प्रति यह जघन्य अपराध था |शायद यही कारण है आज होते विघटन का |
वे राष्ट्र पिता यूँ ही नहीं कहलाते |उनके गुण और सत्कर्मों ने ही उन्हें इस पद पर आसीन किया है |वे हमारे देश के गौरव हें |
आशा


30 सितंबर, 2011

विनती


माँ का हो आशीष शीश पर
छत्रछाया हो उसकी
उसे यहाँ फिर हो भय कैसा
तू करती रक्षा जिसकी |
तेरी जोत जलाने आई
कहना पाई तुझ से
तेरी महिमा जान न पाई
हुआ मगन मन कब से |
आजा माँ मेरे अंगना में
हूँ बहुत अकिंचन सी
देना आशीष मुझे ऐसा
बस हो जाऊं तुलसी

आशा |


29 सितंबर, 2011

तुम ना आए


तुम ना आए इस उपवन में
आते तभी जान पाते
कितने जतन किये
स्वागत की तैयारी में |
अमराई में कुंजन में
जमुना जल के स्पंदन में
कहाँ नहीं खोजा तुमको
इस छोटे से जीवन में |
खोजा गलियों में
कदम के पेड़ तले
तुम दूर नज़र आए
मगन मुरली की धुन में |
पलक पावडे बिछाए थे
उस पल के इन्तजार में
वह होता अनमोल
अगर तुम आ जाते |
आते यदि अच्छा होता
सारा स्नेह वार देती
प्यारी सी छबी तुम्हारी
मन में उतार लेती |
बांधती ऐसे बंधन में
चाहे जितनी मिन्नत करते
कभी न जाने देती
अपनी मन बगिया से |
आशा