कान्हां तुम्हारी
बाँसुरी का स्वर
लगता मन को मधुर बहुत
खीच ले जाता
वृन्दावन की गलियों में
मन मोहन जहां तुम धेनु
चराते थे |
कभी करील वृक्ष तले बैठ
घंटों खोए रहते थे उसके
जादू में
कल कल करतीं लहरें जमुना
की
आकृष्ट अलग करतीं |
ग्यालबाल गोपियों
का मन
न होता था घर जाने का
विश्राम
के पलों में भी
दूर न जाना चाहते |
बांसुरी के स्वरों में खोकर
कब पैर ठुमकने लगते
ग्वाल बाल हो जाते
व्यस्त नृत्य में
झूम झूम कर नृत्य
करते समूह में |
केवल स्मृतियों में ही शेष रहे
मन मोहक स्वर बांसुरी के
जब बांसुरी के स्वर न सुनते
तब मन अधीर होने
लगता था |
ना घुघरू की खनक
न बंसी के स्वर आज
सूना सा जमुना तीर दीखता
कभी बहार थी जहाँ पर |
आशा