07 अप्रैल, 2010

सौंदर्य बोध

गीत हजारों बार सुने
चर्चे भी कई बार किये
सच्ची सुंदरता है क्या
इस तक न कभी पहुँच पाये
तन की सुंदरता तो देखी
मन की सीरत न परख पाये
ऐसा शायद विरला ही होगा
जो तन से मन से सुंदर हो
सुंदर सुंदर ही रहता है
मन से हो या तन से हो
यदि कमी कोई ना हो
फिर शिव वह क्यों ना कहलाये
यह तो दृष्टिकोण है अपना
किसको सुंदर कहना चाहे
जिसको लोग कुरूप कहें
वह भी किसी मन को भाये
आखिर सुंदरता है क्या
परिभाषा सुनी हजारों बार
जो प्रथम बार मन को भाये
सबसे सुंदर कहलाये
नहीं जरूरी सब सुंदर बोलें
विशिष्ट अदा को सब तोलें
जिसने चाहा और अपनाया
उसने क्या पैमाना बनाया
तन की सुंदरता देखी
मन को नहीं माप पाया
जिसने जिस को जैसे देखा
अपने मापदण्ड से परखा
उसको विरला ही पाया
अन्यों से हट के पाया
जब आँखें बंद की अपनी
कैद उसे आँखों में पाया
तन तो सुंदर दिखता सबको
मन को कोई न समझ पाया
ऐसा कोई नाप नहीं
जो सच्चा सौंदर्य परख पाता
सबने अपने-अपने ढंग से
सुंदरता को जाँचा परखा
ख़ूबसूरती होती है क्या
कोई भी नहीं जान पाया
यह तो अपनी इच्छा है
किसको सुंदर कहना चाहे
वही मापदण्ड अपनाये
जो उसके मन को भाये |


आशा

04 अप्रैल, 2010

मानसिकता

सब कुछ तुम सहती जाओ ,
उपालंभ तुम्ही को दूँगा ,
धरती सी तुम बनती जाओ ,
साधुवाद न तुमको दूँगा ,
मैं सारे दिन व्यस्त सा रहता हूँ ,
तुम कुछ ना करो मैं कहता हूँ ,
पर यदि कोई त्रुटि हो जाये ,
इसे नहीं मैं सहता हूँ ,
तुममें मुझ में अंतर कितना ,
मैं यह भी न भुला पाया ,
जब भी कोई बात चली ,
खुद को ही महत्व देता आया ,
अनुमति यदि तुमने ना माँगी ,
यह बात सदा दुख देती है ,
यदि मन की बात न कह पाऊँ ,
वह मन में घुटती रहती है ,
अनजान व्यथा मन में मेरे ,
ऐसे घुस कर बैठी है ,
पीड़ा जब हद से गुजरे ,
मन की भड़ास निकलती है ,
अंतर यह सदियों से है ,
इसे पाटना मुश्किल है ,
हर बात तुम्हीं से कहता हूँ ,
तुमसे सलाह भी लेता हूँ ,
पर जब कोई अवसर आए ,
सब श्रेय खुदी को देता हूं ,
मेरी इस अवस्था को ,
शायद तुम ना समझ पाओगी ,
हर बात यदि तुम दोहराओगी ,
मुझको रूखा ही पाओगी ,
दूसरों से यदि तुलना की तुमने ,
मुझसे दूर होती जाओगी ,
लाख कोशिशें करलो चाहे ,
मुझे तुम ना बदल पाओगी ,
मैं जैसा हूँ वही रहूँगा ,
तुम मुझको न समझ पाओगी |


आशा

02 अप्रैल, 2010

धर्म की आड़ में

तेरा क्यों सम्मान करें ,
जो बार-बार सबने चाहा ,
तेरा धरम से क्या नाता ,
तू तो केवल चेक भुनाता ,
धर्म गुरू लोगों ने कहा ,
पर तू ना निकला सन्यासी ,
अरे धर्म का नाम डुबा,
कितने ढोंग रचाये तूने ,
जो चाहा जितना चाहा ,
शिष्यों से पाया तूने ,
मन भूखा तेरा तन भूखा ,
अरे मूर्ख अत्याचारी,
तेरे जैसे कई लोगों ने ,
धर्म की नींव हिला डाली ,
कई बार धर्म की आड़ लिए ,
लोगों को बर्बाद किया ,
जिनको माँ और बहन कहा ,
उनको ही गुमराह किया ,
किसी समस्या में फँस कर ,
मन का चैन खो जाने पर ,
आत्मशांति की चाहत में ,
यदि तेरी कोई शरण आया ,
शरणागत को खूब लुभा ,
कमजोर क्षणों का लाभ उठाया ,
आस्था का जाल बिछा,
अंधविश्वासी उसे बनाया ,
एक बालिका मैंने देखी ,
जिसने माँ की गलती झेली,
बाबा के चक्कर में फँस कर ,
वह मुग्धा बन बैठी चेली ,
पढ़ा लिखा सब धूल हो गया ,
खुद से ही खुद को बिसराया ,
बाबा ही शान्ति देते हैं ,
हर क्षण उसके संग रहते हैं ,
नहीं असहाय लाचार रहे ,
मन में ऐसा भाव जगाया ,
जो कुछ भी वह करती है ,
या बात किसी से करती है ,
बाबा सारी बातें उसकी ,
पूरी-पूरी सुन सकते हैं ,
उसको शक्ती देते हैं ,
मन में यह भ्रम रखती है ,
ऐसे ही कुछ बाबाओं ने,
धर्म ग्रंथों से नाता जोड़ा ,
अच्छी भाषा लटके झटके ,
व चमत्कार सबसे हटके ,
लोगों से नाता जोड़ा ,
ली धर्म की आड़ ,
अपने रंग में उन्हें डुबोया ,
जब कोई बुद्धिजीवी आया ,
सारी पोल पकड़ पाया ,
जैसे ही मुख से हटा मुखौटा ,
असली रूप नजर आया ,
तू बाबा है या व्यभिचारी ,
या है कोई संसारी ,
तेरी दरिंदगी देख-देख,
नफरत दिल में पलती है ,
आस्था जन्म नहीं लेती ,
मन में अवसाद ही भरती है|


आशा

31 मार्च, 2010

जीवन नैया

जीवन जीना जब भी चाहा
खुशियों से रहा ना कोई नाता
कष्टों ने परचम फहराया
हर क्षण खुद को घुटता पाया |
जीना सरल नहीं होता
कुछ भी सहल नहीं होता
कितनी भी कोशिश कर लो
सब कुछ प्राप्त नहीं होता |
केवल सुंदर-सुंदर सपने
सपनों में सब लगते अपने
ठोस धरातल पर जब आये
दूर हुए सब रहे ना अपने |
मन में यदि कुछ इच्छा है
हर क्षण एक परीक्षा है
जब कृतसंकल्प वह हो जाये
सीधा लक्ष्य पर जाये
पत्थर को भी पिघलाये |
कामचोर असफल रहता है
मेहनतकश फल पाता है
कठिन परीक्षा होती उसकी
वह नैया पार लगाता है |
पर यह भी उतना ही सच है
जब कोई विपदा आती है
वह निर्बल को दहलाती है
सबल विचलित नहीं होता
कुछ भी हो धैर्य नहीं खोता
जीवन  की कठिन पहेली को
वह धीर वीर सुलझाता है 
जो भँवर जाल से बच निकले वही शूर वीर कहलाता है |

आशा

27 मार्च, 2010

अतिथि आज

कमर तोड़ मँहगाई है ,
संताप बढ़ाने आई है ,
बहुत मुसीबत लाई है ,
शक्कर का भाव बहुत अधिक है ,
दालों की हालत बहुत बुरी है ,
दूध फलों की कीमत देखो ,
सब और उदासी छाई है ,
ऐसे में जब अतिथि आये ,
बिना बात का कर्ज बढ़ाये ,
सारा बजट बिगाड़ कर जाये ,
वह तो माँगे शक्करपारे ,
यदि हलुआ भी हो साथ ,
खाये ले ले कर चटकारे ,
क्या नाश्ता रोज बनाऊँ,
खाने में क्या परिवर्तन लाऊँ ,
चिंता में नींद नहीं आती ,
रात यूँ ही गुजर जाती ,
पहले भी अतिथि आते थे ,
मन भर प्यार लुटाते थे ,
जब घर को वापिस जाते थे ,
माथे पर शल न आते थे ,
चमक दमक का दौर नहीं था
सत्कार सभी का मन से था ,
जीवन सफल समझते थे ,
जब घर में किसी को पाते थे ,
अब चिंता मुझे सताती है ,
बार-बार मुझे खाती है ,
किसी अतिथि के आने पर
यदि सत्कार न कर पाई ,
या कोई कमी रही बाकी ,
जग हँसाई हो जायेगी ,
बहुत मुसीबत आयेगी ,
पहले से यदि पता होता ,
थोड़ा उधार लिया होता ,
भार मुझे तब ना लगता ,
मन से सत्कार किया होता ,
कैसे सबसे नाता जोडूँ ,
इधर उधर कैसे दौडूँ ,
दो दिन की खातिर दारी में ,
पूरे माह तंगी झेलूँ ,
कोई ना मुझे समझ पाया ,
केवल कंजूस ही ठहराया ,
हे अतिथि तुम कब जाओगे ,
मन की खुशियां लौटाओगे ,
कष्ट मुझी को सहना है ,
मँहगाई में रहना है|
अधिक यदि तुम टिक जाओगे ,
पत्र पुष्प से भी जाओगे |


आशा

ऋण

आज बाजार में जब पहुँचीं,
कुछ भाव किये कुछ लेना चाहा,
गाड़ी की चाहत ने मुझको ,
एक शो रूम तक पहुँचाया ,
कमर तोड़ महँगाई ने ,
जब कर दीं सारी पार हदें ,
अपनी पहुँच से दूर बहुत ,
कीमत देख सर चकराया ,
होकर उदास घर लौट चली ,
मिनी मिली मुझे रस्ते में ,
उसने मेरी व्यथा सुनी,
पहले तो वह खूब हँसी ,
फिर सोच समझ कर बोल पड़ी ,
क्यों व्यर्थ ही चिंता करती हो ,
क्या कोई खाता नहीं बैंक में ,
जिसको अपना कहती हो |
मैंने पढ़ा सुबह पेपर में ,
ऋण को पाना बहुत सरल है ,
यदि प्रबल इच्छा हो मन में |
तुम भी ऋण पा सकती हो ,
फिर जो चाहो ले सकती हो |
मैंने मन मजबूत बनाया ,
बैंक पहुँच कर चैन आया ,
मैनेजर से हुई बात जब
उसने सहज परामर्श दिया |
बैंक सभी ऋण देता है ,
पर कई दस्तावेज भी लेता है ,
पूरी प्रक्रिया हो जाने पर ही ,
ऋण की स्वीकृति देता है |
ऋण चुक जाए तो अच्छा है ,
ना चुक पाए तो समस्या है ,
समस्या का समाधान हो सकता है ,
यदि मन में संकल्प और इच्छा है |
ऋण चुकाना कठिन नहीं होता ,
यदि किश्तों में चुका सकें उसको ,
थोड़ा ब्याज तो लगता है ,
पर जल्दी कर्ज उतरता है |
जब नई गाड़ी होगी ,
उसकी सवारी प्यारी होगी ,
जीने का मज़ा आ जायेगा ,
ऋण तो चुकता हो जायेगा |
पहले मन डावांडोल हुआ ,
क्या ऋण लेना उचित होगा ,
वह पागल ना जान पाया |
यह भी इतना ही सच है ,
जब तक ऋण चुकता ना हो ,
मन अशांत ही रहता है |
पर गाड़ी की याद मुझे ,
बारम्बार सताने लगी ,
ऋण की चिंता कौन करे ,
गाड़ी नजरों में छाने लगी |
सुबह हुई सबसे पहले ,
सारे कागज़ तैयार किये ,
जल्दी से फिर पहुँच बैंक में ,
सारे करार स्वीकार किये |
जैसे ही लोन मिला मुझको ,
जल्दी से पहुँची शो रूम ,
गाड़ी की बुकिंग कराई ,
यथा शीघ्र डिलीवरी चाही |
आज शाम तक मिल जायेगी ,
ऐसा आश्वासन पाया |
जब रंग की बात चली ,
सिल्वर सिल्की बतलाया |
जैसे ही घर गाड़ी आयी ,
कर्ज विचारों पर छाया ,
कैसे चुक पायेगा पैसा,
बार-बार विचार आया ,|
जब तक किश्त नहीं चुकती ,
गाड़ी अपनी नहीं लगती |
बच्चों ने समझाना चाहा ,
माँ व्यर्थ ही डरती हो ,
जो चमक दमक तुम्हें दिखती है ,
सब ऋण से ही तो मिलती है |
शायद ही कोई ऐसा घर हो ,
जहाँ ऋणी कोई ना हो |
धन चाहे कैसा भी आये ,
बस पैसा मिलता जाये ,
काम कोई ना रुक पाए ,
बस यही आज का फंडा है |


आशा

24 मार्च, 2010

शाश्वत सत्य

दूर शहर के इस कोने में
बहुत व्यस्त वह गृह कार्यों में
जब देखा घर सूना-सूना
वहाँ एक गौरैया आई
ऐसी शांत एकांत जगह
उसके मन को भी भाई
टूटी खिड़की के ऊपर
उसने तिनका-तिनका चुन कर
अपने नीड़ की नींव रखी
और खुशी से इतराई
गृहणी ने जब खिड़की झाड़ी
तिनका-तिनका बिखर गया
ध्वस्त देख नीड़ अपना
चींची कर उड़कर आई
जब चिड़िया की आवाज सुनी
गृहणी निकट उसके आई
टूटा हुआ नीड़ देख कर
उसकी आँख भी भर आई
ऐसा था क्या उस चिड़िया में
मन उसमें जो कैद हुआ
फिर से तिनके किये इकट्ठे
उसी जगह रख कर आई
जब नीड़ बन कर पूर्ण हुआ
मन उसका उत्फुल्ल हुआ
अब रोज श्याम जब होने लगी
चिड़िया पंख समेटे सोने लगी
अपलक देख आना उसका
और सुबह उड़ जाना उसका
मन प्रसन्न सा रहने लगा
गृहणी को राहत देने लगा
एक दिन चिरौटा आया
चिड़ियों ने मन बहलाया
यह क्रम निरंतर जारी था
दृश्य बड़ा मनोहारी था
दोनों दाना चुगते थे
फिर नीड़ में जा घुसते थे
अपने अंडे सेते थे
अण्डों से जब चूजे निकले
अरमान उन्हीं पर वारे
दिन रात उन्ही की रक्षा में
अपने को क्षय करते थे
जब पंखों में ताकत आई
चूजों ने उड़ना सीखा
वे अपनी-अपनी राह गए
फिर से खाली नीड़ हुआ
गौरैया ने यह सब देखा
वह ठगी हुई सी खड़ी हुई थी
शायद यही नियति थी उसकी
इससे वह अनजान नहीं थी
अब गृहणी ने खुद को देखा
गौरैया सा खुदको पाया
बच्चे बड़े हुए और व्यस्त हुए
उसको पूरा ही बिसराया
आसपास अब कोई नहीं था
वही एकांत और उसका साया
खाली चिड़िया का घोंसला
रीता उसका आँगन था
यही प्रकृति की रीत रही है
मन भी उसका भारी था
सब छोड़ गये जब उड़ना आया
कई बार विचारा मन ने
शायद संसार का नियम यही है
एकाकी मन अधिक व्यथित है
पर शाश्वत सत्य यही है |

आशा

23 मार्च, 2010

वह बालक

जब हम त्रिवेंद्रम में zoo में घूम रहे थे मैंथोडा पीछे रह गई |मैंने सोचा थोडा आराम करलूं |मैं एक बेंच पर बैठ गई |
इतने मैं स्कूली बच्चों का एक समूह उधरसे गुजरा |शायद वे जू देखने अपने स्कूल की तरफ से आये थे |थोड़ी देर
बाद हम चल पड़े |हम जानवरों को देखते हे धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे |
मेंने देखा की की एक बच्चा मुझसे कुछ कहना चाहता था |नाम पूछने पर उसने अपना नाम राज बताया |इतने मैं एक बन्दर ने जोर से दूसरे पेड़ पर छलांग लगी |राजू खुशी से चहका "beautiful"|कुछ समय बाद वह हमारे साथ
साथ चलने लगा |जैसेही नए पक्षी या जानवर को देखता बोलता "ब्यूटीफुल " या "फाईन "|वह ना तो हिंदी जनता था
और ना ही अंग्रेजी |मैने सोचा शायद स्कूल के बच्चों में से कोई पीछे छूट गया है |साथ चलते चलते वह इशारों से
व टूटी फूटी भाषा में मुझसे बातें करने लगा |उसने मुझे बताया की छह भाई बहिनों में वह सबसे बड़ा है |उसे उनकी
देखभाल भी करना पड़ती है |गरीबी के कारण अब वह स्कूल नहीं जाता |
खैर लगभग दो घंटे तक वह हमारे साथ रहा |उसके घर की करुण कथा सुन मुझे उसपर बहुत दया आ रही थी |
और तो और उसकी भोली सूरत और इशारे से जू का रास्ता गाइड करना बड़ा अच्छा लग रहा था | जब हम बाहर निकलने लगे, मैंने उसे ५ रुपये देने चाहे | उसके मुह से निकला."नो! बस इतना ही? इन्होंने उसे १० रुपये दे दिए |
जैसे ही उसे रुपये मिले, वह गेट के पास पहुँचकर आइस कैंडी खरीदने लगा | उसने हमें बाय कहा और सीधा भाग खड़ा हुआ |
मैंने सोचा भी ना था कि इतना सा बच्चा हमें सरलता से बुध्धू बनाकर पैसे ऐंठ लेगा | फिर भी जब कभी वह किस्सा याद आता है तो उसके शब्द "ब्यूटीफुल" और "फाइन" कानों में गूँजने लगते हैं | उस छोटे गाइड को अभी तक नहीं भूल पाई हूँ | अभी भी आइस क्रीम दिखाकर उसका हाँथ हिलाना और कहना,"अंकल यह देखो !" फिर भाग जाना मुझे याद आता है |

आशा

21 मार्च, 2010

मन कीथाह

मन की थाह नहीं होती
गति अविराम नहीं होती
मन चंचल यदि उड़ना चाहे
कोई रोक नहीं होती
जब चाहे स्वच्छंद रहे
या अम्बर की सैर करे
कोई ना छोर नज़र आता
अम्बर भी छोटा पड़ जाता
चिड़ियों के पंख लगा उड़ता
तारों से अठखेली करता
चंदा से दो बातें करके
प्यारा सा गीत सुना जाता
उमड़ घुमड़ जब बादल आते
झूम-झूम कजरी गाता
मन अनंग की थाह नहीं
उसको कोई न समझ पाता
नदियों की धारा में बहता
झरनों सा वह झर-झर बहता
कण-कण में बसता जाता
जब पुरवाई का झोंका आता
हिरणों के संग दौड़ लगाता
या जंगल में रमता जाता
बाधा यदि बीच में आती
खुद को बाधित कभी न पाता
भूत भविष्य सभी कालों में
या गहन विचारों में
गोते बारम्बार लगाता
मन चंचल है थाह नहीं
कोई लगाम न लगा पाता
वह क्या चाहे क्या है अपेक्षित
या फिर है वह कहीं उपेक्षित
कोई नहीं जान पाता
उस अनजाने की थाह नहीं 
उसकी गति में विराम नहीं|


आशा

19 मार्च, 2010

बेटी आज की

पान फूल सी बेटी मेरी ,
बुद्धि गजब की रखती है ,
भरा हुआ सलीका उसमें ,
बेबाक बात वह करती है ,
दृढ निश्चय है संबल उसका ,
जो ठाना कर लेती है ,
आत्म बल से भरी हुई है ,
सारे निर्णय लेती है ,
कोई क्षेत्र नहीं छूटा
जिसमें वह ना खरी उतरी ,
ऐसी कोई विधा ना छोड़ी
सब में रस वह लेती है ,
क्यों रहे किसी से पीछे ,
उसका मन यह कहता है ,
जो चाहे जैसा चाहे ,
पाकर ही दम लेती है ,
आरक्षण से कुछ भी पाना ,
यह नहीं स्वीकार उसे ,
माँ की नजरों से यदि तोलें ,
गुण सम्पन्न वह लगती है ,
समाज यदि नहीं बदले ,
आरक्षण नाकारा है ,
ऐसा सोच लिए मन में ,
वह कठिन डगर पर चलती है ,
नारी उत्थान नारी जागरण
सारे खोखले नारे हैं ,
यदि परिवर्तन नहीं सोच में ,
ये सारे शब्द बेचारे हैं ,
आरक्षण की बैसाखी ले कर ,
हिमालय पार नहीं होता ,
यदि दरार बड़ी हो तो ,
नारी उत्थान नहीं होता ,
पान फूल सी बेटी मेरी ,
सोच-सोच यह थकती है ,
कैसे बदले सोच हमारा ,
यह एक कठिन समस्या है ,
विषम परिस्थितियों में भी वह ,
नहीं किसी से डरती है |


आशा

18 मार्च, 2010

संगिनी

वह दूर खड़ी प्रस्तर प्रतिमा सी ,
एलोरा की मूरत है ,
बेहिसाब सुंदरता की ,
सहेजी गयी धरोहर है |
ना जाने कब अनजाने में ,
मन उस पर प्यार लुटा बैठा ,
सभी मुश्किलें भूल गया ,
अपनी उसे बना बैठा ,
ना कोई शिकवा न ही शिकायत,
ना कभी भाग्य पर रोती है,
सारे सुख दुख समेट बाहों में,
इत्मीनान से सोती है,
कैसी भी कठिनाई आये,
हिम्मत मुझे दिलाती है,
श्रम कण यदि उभरे माथे पर,
चुन-चुन उन्हें मिटाती है,
हर दिन होली है उसकी,
हर रात दीवाली आती है |
मीठी मुस्कान सदा अधरों पर,
सेवा भाव सदा नैनों में,
बेबाक बात मुख मन का दर्पण,
सदा विहँसती रहती है,
उसकी प्यारी न्यारी अदा,
मेरा मन हर लेती है,
तारों से माँग सजाती है,
चंदा की बिंदिया लगाती है,
सजी सजाई वह दुल्हन सी,
बेमिसाल हो जाती है,
हर रोज होली है उसकी,
हर रात दीवाली मनाती है,
हर काम सलीके का उसका,
मन क्यों ना हो केवल उसका,
गुण की खान कहूँ उसको,
या कहूँ चाँद का टुकड़ा,
कोई उपमा ना खोज पाया,
ये कैसी उसकी माया,
अपने मन मंदिर में मैं तो,
केवल उसे ही सजा पाया,
आने वाले कल का सपना,
उसके नैनों से झाँके,
जैसे ही उसको पाया,
भूल गया सब कुछ अब मैं,
वह है सुंदरता की मूरत,
कोई सहेजी गयी धरोहर है,
हर रोज होली है उसकी,
उसकी हर रात दीवाली है|

आशा

12 मार्च, 2010

विषमता

हे करुणाकर, हे अभयंकर
क्यूँ सबकी अरज नहीं सुनता
भूखों को अन्न नहीं देता
निर्धन को निर्धन रखता है |
जब कोई समस्या आती है
निर्धन को ही खाती है
महँगाई की मार उसे
भूखे पेट सुलाती है |
कोई नेता नहीं मरता
कहीं धनवान नहीं फँसता
बिना गेट के फाटक पर
केवल निर्धन ही कटता है |
कैसा तेरा न्याय अनोखा
धनिकों का घर भरता है
नेता यदि आड़े आए
उसको भी खुश रखता है |
जब आता भूकंप कभी
दरार न होती महलों में
केवल घर तो निर्धन का ही
ताश के घर सा ढहता है |
जो गरीबी में जन्मा
निर्धनता से मरता है !
घावों में टीस उभरती है
पस तिल-तिल करके रिसता है|
नेता हो यदि बीमार कभी
इलाज विदेश में होता है
आम आदमी तो बस
अंतिम साँसें ही गिनता है |
तेरी लाठी बेआवाज
सब पर वार नहीं करती
निर्धन पिसता जाता है
धनवान अधिक पा जाता है |
दिन दूना रात चौगुना
नेता फलता जाता है
एक नहीं फल पाये तो
अन्यों को उकसाता है |
क्यों बनाया अंतर इतना
क्यों न्याय सही ना कर पाया ?
हे कमलाकर, हे परमेश्वर
यह है तेरी कैसी माया |

आशा

11 मार्च, 2010

ऐसे देखा वनराज

मुझे नई जगह देखने और नए स्थानों पर घूमने मेंबहुत आनंद आता है |कुछ समय पूर्व गुजरात जाने का अवसर मिला |सोमनाथ और द्वारिका जाना है ,सोच कर ही मन प्रफुल्लित होने लगा |जल्दी ही आरक्षण भी करवा लिया |
जैसे ही ट्रेन चली ,लगा बहुत दिनों की तमन्ना बस पूरी हुई जाती है |ट्रेन की गति के साथ ही मन भी कल्पना जगत में विचरण करने लगा |कब नींद आई पता ही नहीं चला |जब नींद खुली अहमदाबाद आने वाला था |जल्दी से
सामान समेटा और स्टेशन पर उतर गए व् बस स्टॉप की और चल पड़े |
द्वारिका जाने वाली बस तो जा चुकी थी |सोमनाथ जाने वाली बस रात को आठ बजे जाती थी |अतः दिन भर अहमदाबाद घूमा |ठीक समाय पर बस स्टॉप आ कर अपनी आरक्षित सीट पर बैठ गए |इतने थके हुए थे कि पता ही नहीं चला कि कब अहमदाबाद पीछे रह गया |
नींद के आगोश में ऐसे खोये कि बेरवाल आ कर ही आँख खुली |वहां से सोमनाथ के लिए एक मोटर साइकल
पर बने टेम्पो की सबारी की और गन्तब्य तक पहुंचे |सुबह कि ठंडी हवा ,समुद्र का किनारा और मीठा नारियल
पानी ,मन को बहुत भाया |पास के ही होटल में ठहर कर थोडा विश्राम किया और सोम नाथ जी के दर्शन किये |
अब हमारे पास सारा दिन पड़ा था |सोचा क्यों न गिरी अभ्यारण्य जाएं | होटल वाले ने टेक्सी की व्यवस्था कर
दी |हम फिर से बेरवाल होते हुए गिरी अभयारण्य की और चल दिए|
चारो और हरियाली और पक्षियों का कलरव ,मन में उत्साह भरने लगा |रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला |
वहां जा कर टिकिट खरीदे और सफारी में जाने के लिए अपने नम्बर का इंतजार करने लगे |इंतज़ार के ये क्षण
बहुत कठिन थे |कुछ लौट कर आने वालों से पता चला कि वे सिंह नहीं देख सके |वह शायद भोजन कर कहीं निकल गया था |
मन में उदासी छाने लगी |सोचा यदि वनराज ही नहीं दिखा तो इतनी दूर आने से क्या लाभ |इतने में जीप आ
गयी और उस पर सवार हो अपने गंतब्य कि और चल पड़े |हमारे साथ ८ लोग और भी थे |साथ आया गाइड बता
रहा था "रात को सिंह राज ने बड़ा शिकार किया था |अब कहीं सो रहा होगा |मैं यदि सिंह के दीदार न करा पाऊं
तो कैसा गाइड ?आप तो निश्चिन्त रहो साहब वह हमें जरूर मिलेगा |"
जीप में अब हम छोटी २ पगडंडियों पर घूम रहे थे |चारों और धूलही धूल,हरियाली तो केवल नदी के किनारे ही
थी |बड़े पेड़ जरूर दिखाई दे रहे थे |एक जीप लौट कर आ रही थी |गाइड ने उससे बात कीऔर तुरंत ही अपना रास्ता बदलने को कहा |हम लोगों को सुई पटक सन्नाटा बनाए रखने को कहा |जीप की गति बहुत धीमी करवा ली |
जैसे ही जीप रुकी हमने देखा कि लगभग १० फिट कि दूरी पर वनराज सोया हुआ था |उसके विशालकाय शरीर
में
न तो कोई हलचल थी न ही आवाज |वह शिकार खा कर दोपहर कि धूप का आनंद ले रहा था |उसने धीरे से आँखे
खोलीं ,इधर उधर देखा और फिर से सोने कि मुद्रा में आ गया |कल्पना के परे था कि इतना शांत वन राज होगा |तभी गाइड नीचे उतरा और एक छोटा सा कंकड उसकी और फेका |वनराज ने सर उठाया ,हुनकर भरी और फिर आँख बंद कर ली |
हमारी जीप धीरे २ रेंगने लगी |वनराज पर इसका कोइ प्रभाव नहीं था |वह तो अपने आराम में इतना ब्यस्त था कि किसी का आना जाना उसके लिए बेमानी था |उसका आकार प्रकार देखते ही बनता था |सच में वन का राजा अपने आप में बेमिसाल था |
फिर जीप ने गति पकड़ी और आधे घंटे बाद हम गिरी अभयारण्य के बाहर थे |आज भी वह द्रश्य आँखों के सामने
घूम जाता है |
आशा

10 मार्च, 2010

तितली


मैं तितली रंगों से भरी
ऋतुराज क्यूँ न खेले होली
बंधन है आलिंगन है
या मन का स्पन्दन है
आखिर है यह कैसा विधान
मैं खुद ही बेसुध हो जाऊँ |
फूलों भरी वादियों में
जब विचरण करती हूँ
इस फूल से उस फूल तक
पंख फैलाकर उडती हूँ |
बच्चे बूढ़े और सभी जन
मेरे रंगों में उलझे
मन भाया फूल मुझे चाहे
मुझ पर अपना प्यार लुटाये
पैरों में लिपट चिपट जाये
खुशबू से तन महका जाये |
फिर और तेज मैं उड़ती
सुरभि से सब को भरती
वासंती बयार मुझे
खींचे अपनी ओर
फूलों से लदे पेड़ भी
ललचाते अपनी ओर |
मैं प्याली रंगों से भरी
तरह-तरह के रंग सजे
फागुन के मीठे गीत सुने
ऋतुराज मिलन को तरस रहे |
जब मैं वादी में घूमूँ
फूलों के रंग चुरा लाऊँ
अपने पंखों पर लगा उसे
सब के मन रंगती जाऊँ |
मैं तितली रंगीन
सब के मन को बहकाऊँ
प्रत्येक फूल मुझे चाहे
अपने में भरना चाहे
पर मैं बंधन से रहूँ दूर |
मौसम में खुशियाँ भर कर
केवल मन स्पंदित कर
उनके मन को बहकाऊँ
मैं तितली रंगीन
खुले व्योम में उड़ती जाऊँ |
छोटा सा जीवन मेरा
फूलों में रमती जाऊँ
मैं तितली रंगों से भरी
प्रकृति की अनमोल छवि
ऋतुराज संग खेलूँ होली |

आशा

09 मार्च, 2010

मन की बात

बिना जाने मन की बात कोई,
चाहती नहीं की तुम से कुछ कहूँ ,
कहा यदि मैंने कुछ तुमसे ,
और पूरा न हो सका तुमसे ,
यह सब नहीं होगा पसंद मुझे ,
कि मैं दंश अवमानना का सहूँ |
कहा हुआ पूरा हो तो
कहीं कुछ अर्थ निकलता है ,
यदि पूरा न हो पाया तो ,
मन अशांत विचरता है ,
फिर आता है मेरे मन में ,
कि मैं तुम से कुछ भी न कहूँ |
दुःख होने लगता है ,
अधूरी अपेक्षा रखने से ,
विश्वास टूट जाता है ,
मन चाहा न होने से |
तब कई शब्द घुमड़ने लगते हैं ,
हृदय में घर करने लगते हैं ,
कभी सोचने लगती हूँ ,
मुझमें इतनी लाचारी क्यूँ है ?
फिर मन में विश्वास जगाती हूँ ,
खुद ही सब करना होगा ,
यही मन में भरना होगा ,
तब नहीं चुभेगा दंश कोई ,
मैं नहीं चाहती बैसाखी अभी |

आशा

08 मार्च, 2010

रानू बंदरिया

राज कुमार राज बर्मन को जंगल में घूमना बहुत अच्छा लगता था |वह जंगल में घूमता और अपने को प्रकृति
के आँचल में छुपा लेता |हरियाली और पशु पक्षी उसकी कमजोरी थे |वहां जा कर उसे बहुत शांति का अनुभव होता था |
वह स्वभाव से बहुत संवेदनशील और दयालू था |वह किसी का भी दुःख सहन नहीकर पाताथा |
एक दिन जब वह घूम रहा था ,उसने एक बंदरिया को कराहते देखा |शायद किसी शिकारी के बाण से वह घायल होगयी थी |राज ने तुरंत बंदरिया को गोद में उठा कर पैर में से तीर निकाला और उपचार किया |फिर उसे उसके कोटर तक छोड़ आया |
पर रात भर वह सो न सका |बारबार उसे बंदरिया का ही ख्याल सताता रहा |सुबह होते ही वह जंगल की ओर
चल दिया |रानू बंदरिया बाहर बैठी थी |जैसेही उसने अपने बचाने वाले को देखा ,तुरंत उसे बुलाया और अपने कोटर में आने को कहा |
जैसेही राजकुमार अंदर आया ,वहाँ की सुंदरता देख कर हतप्रभ रह गया |उसने देखा की एक बहुत सुंदर लड़की
उसके सामने बैठी थी और उसके हाथ में व् एक पैर में वही पट्टी बंधी थी |बहुत आश्चर्य से राज ने देखा और उसका नाम पूंछा | पहले तो वह शरमाई फिर कल के लिए धन्यवाद दिया और अपना नाम रानू बताया |
राज से रहा नहीं गया और बन्दर का रूप धरने का कारण जानना चाह |रानू ने कहा ,"मैं भी आप के समान ही
एक राजकुमारी हूँ |पहले बहुत सुख से रही |एक दिन जब मैं जंगल में घूम रही थी एक राक्षस ने मुझे पकड़ कर
यहां कैद कर लिया |तभी से मैंयही पर कैद हूं "|
राजकुमार रानू की सुंदरता पर ऐसा मोहित हुआ की शादी की इच्छा उसके मन मैं उठने लगी |वह अक्सर
वहां जाने लगा और एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा | रानू भी मन ही मन उससे प्रेम करने लगी थी |
इस लिए उसने एक शर्त पर शादी के लिए हां की |उसने कहा,"मैं दिन भर बन्दर के ही रूप मैं रहूंगी "|राज को क्या
आपत्ति हो सकती थी |दोनों ने शादी कर ली |
राजकुमार अपनी पत्नी के साथ अपने घर आ गया |सबने बंदरिया को देख बहुत हंसी उड़ाई |दूसरे दिन रानी
ने सब को बुलवाया और एक एक बोरा गेहूं बीनने को दिए |रानू ने अपने हिस्से के गेहूं अपने कमरे में रखवालिए
|रात को वह उठी और अपना चोला उतार कर गेहूं बीन कर फिरसे अपने पलंग पर सो गयी |बिने हुए
गेहूं देख कर सब को बहुत आश्चर्य हुआ | तीसरे दिन चक्की पर आटा पीसना था |रात को उठ कर उसने अपना चोला
उतारा और चक्की पीसने लगी |रानी ने धीरे सेखूटी पर
टंगा चोला उठा कर छुपा दिया |
जैसेही काम समाप्त हुआ रानू ने अपना चोला खोजा |वह नहीं मिला |उसे बहुत गुस्सा आया | वह रोने लगी |
इतने में राजकुमार की नींद खुल गई |राज ने रोने का कारण पूंछा | जब सारा माजरा समझा ,जोर जोर से हँसने लगा
और रानू को समझाया की अब इस रूप मेंरहने की क्या आवश्यकता है ,राक्षसतो कब का मर चूका |रानू को विश्वास
नहीं हुआ |धीरे धीरे जब राज की बात समझ आई तब बड़ी मुश्किल से वह सोई |
सुबह उठ कर उसने सबके पैर छुए |सबने उसे बहुत सारे उपहार दिए और ढेरसा आशीर्वाद| यह सच है की कोई
भी काम सरलता से किया जा सकता है यदि मन में पक्की इच्छा हो |अब वे दोनों जंगल में जाकर प्रकृति का आनंद
लेने लगे और जरूरत मंद की सेवा करने लगे |रानू अब बहादुर होगई थी और किसी से नहीं डरती थी |
आशा

05 मार्च, 2010

सफर जिंदगी का

वह कल बीत गया
जब हुए सपने रंगीन ,
मैंने कोरे कागज पर ,
जब नाम लिखा तेरा ,
कागज पर स्याही मिटी नहीं ,
सूख गई और गहरी हुई ,
लिखी इबारत परवान चढ़ी,
फिर दिल में उतरी और पैठ गई ,
उसे मिटाना सरल नहीं था,
मिट जाये कोई कारण नहीं था ,
जीवन अविराम चलता गया ,
ग्राफ सफलता का बढ़ता गया ,
खुशियों से दामन भरता गया |
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी ,
एक दिन बैठे-बैठे ,
मैं सोच रही थी कैसा था कल ,
मैनें देखा झाँक विगत में ,
बीता कल भोला बचपन ,
गुडिया खेली झूला झूली ,
और सुनी कहानी परियों की ,
मैं सोच-सोच मुस्काने लगी ,
हरियाला सावन जब आया ,
लाल चुनरिया तब ओढ़ी,
मन भीगा तन भीग गया ,
जब सुनी किलकारी नन्हीं की ,
जीवन में खुशियाँ आने लगीं ,
मैं दिल खोल खुशी लुटाने लगी |
सब का प्यार दुलार मिला ,
झिलमिल तारों का हार मिला ,
सुखी संसार साकार मिला ,
मैं झूम-झूम कर गाने लगी ,
कब जीवन की शाम हुई ,
ढलती उमर भी सताने लगी ,
कभी हँसी और कभी खुशी ,
बीच-बीच में जाने लगी |
अब यही अभिलाषा बाकी है ,
हर साँस खुशी से भरी रहे ,
आदत मुस्कराने की ,
जो गई नहीं ,
न अब जाये ,
सदा मेरे संग रहे ,
सदा अंत तक हँसती रहूँ ,
मेरा जीवन रंगीन रहे ,
खुशियों से नाता सदा रहे |

आशा

02 मार्च, 2010

हज्जाम रामनारायण

एक राजा था |उसका नाम आर्यमन था |एक दिन जब वह आईने में अपनी सूरत देख रहा था उसे अपने बालों के बीच दो सींघ दिखाई दिए |वह बहुत परेशान हो गया|उसे तो अभी बाल भी कटवाने थे |अब बिचारा क्या करता |
बहुत सोच विचार कर उसने अपने एक विश्वासपात्र नौकर को बुलबाया |एक ऐसे नाई को खोजने को कहा जो सींगों
के राज को अपने मन रख कर राजा की कटिंग बना सके |
बहुत खोज के बाद एक नाई राम नारायण को लाया गया |नाई बातों का बादशाह था |उसने राजा के बाल काटे
और सींघ की बात किसी से न कहने का वायदा किया |राजा ने बहुत सारा धन दे कर उसे विदा किया |उसकी पत्नी ने उससे सवाल किया की इतनी दौलत उसे कैसे मिली |रामनारायण बात को टाल गया |पर जब वह सोने लगा उसके
पेट में बहुत दर्द हुआ |रात भर वह बहुत परेशान रहा | दूसरेदिन वह पास के जंगल में गया और चौकन्ना हो कर इधर उधर देखने लगा |जब उसे विश्वास हो गया की उसके सिवाय वहां कोई नहीं है ,वह एक सूखे पेड़ के पास गया और अपने पेट की बात "राजाके दो सींग " पेड़ से कह कर अपने घर आ गया |
थोड़े समय बाद एक कारीगर तबला ,हारमोनियम और सारंगी बनाने के लिए उस पेड़ को काट कर ले गया |जब
सारे उपकरण बन गए ,कारीगर ने अधिक धन पाने की लालसा से उनका प्रदर्शन राज दरवार में करने के लिए राजा
आर्यावर्धन से अनुमति ली |राजा गाने आदि सुनने का बहुत शौक़ीन था |राजा ने दूसरे दिन आने को कहा |
दूसरे दिन कारीगर नियत समय पर राजसभा में अपने बनाये हुए बाजों को ले कर उपस्थित हो गया |राजा की
अनुमति मिलते ही कारीगर ने हारमोनियम पर सुर छेड़ा | हारमोनियम में से सुर निकला "राजा के दो सींग "
सारंगी ने कहा "किनने कही ,किनने कही "| तबला बोला "दुमदुम हज्जाम ने,दुमदुम हज्जाम ने "|
ये शब्द सुन कर राजा गुस्से से लाल पीला होने लगा |उसने तुरंत अपने नौकर को बुलाया | नौकर को डाट कर
रामनारायण नाई को को बुलाने को कहा |नौकर तुरंत उसे बुला लाया |राम नारायण थर थर कांपने लगा |उसने
कहा "महाराज मेरा क्या कसूर है |मैने ऐसा क्या किया है जो आपने मुझे बुलबाया"|
" सच बताओ मेरे राज की बात तुमने किसे बताई थी "राजा ने बहुत गुस्से में आकार उससे पूंछा |
रामनारायण ने कहा "महाराज मैंने तो किसी से भी कुछ नहीं कहा "|राजा को उसकी बात पर विश्वास नही हुआ |
बहुत सख्ती करने पर नाई सोच कर बोला"महाराज मेरी नानी कहती थी की जब कोई बात पेट में न पचे और
पेट बहुत दुखे तब उसे किसी बेजान पेड़ से कह देना चाहिए |न तो बात फैलेगी और न ही पेट दुखेगा |मेरे पेट में
बहुत दर्द हो रहा था |इसी कारन मैंने पेड़ से यह राज कहा "|राजा ने पूंछा "यह दुमदुम हज्जाम कौन है "?
रामनारायण ने बताया की जब वह बहुत छोटा था उसकी नानी उसे दुमदुम कहा करती थी |इसीलिए उसे
दुमदुम हज्जाम के नाम से भी जाना जाता है |किसी ने सच ही कहा है."राज को राज ही रहने दो |दीवारों के भी
कान होते हें "|
आशा










वहाँ

26 फ़रवरी, 2010

होली














जब चली फागुनी बयार
मन झूम-झूम कर गाने लगा
सुने ढोलक की थाप पर
जब रसिया और फाग
 बार-बार गुनगुनाने लगा |
सरसों फूली टेसू फूला
वन उपवन महका
मदमाता मौसम छाने लगा
मन झूम-झूम लहराने लगा |
अमराई में छाई बहार
कोयल की मीठी तान सुनी
तरह-तरह के फूल खिले
फूलों पर भौरे गुंजन करते |
लाल, हरे और रंग सुनहरे
गौरी की अलकों से खेले
चूड़ी खनकी पायल बहकी
गौरी का मुखड़ा हुआ लाल
जब अपनों का लगा गुलाल
प्यारा सा पाया उपहार
भरने लगा मन में गुमान
 तन मन  को भिगोने लगीं |
रंगों की दुकानें सजीं
गुजिया पपड़ी भी  बनीं
भंग और ठंडाई छनी
सब की होली खूब मनी |

आशा

24 फ़रवरी, 2010

उपेक्षिता

सजे सजाये कमरे में
मैंने उसे उदास देखा
आग्रह से यह पूछ लिया
उसका ह्रदय टटोल लिया
तुम क्यों सहमी सी रहती हो
आखिर ऐसा हुआ क्या है
जो नित्य प्रतारणा सहती हो |
पहले तो वह टाल गयी
फिर जब अपनापन पाया
हिचकी भर-भर कर रोई
मन जब थोड़ा शांत हुआ
अश्रु धार से मुँह धोया
तब उसने अपना मुँह खोला |
सजी धजी इक गुड़िया सी
मैं सब के हाथों में घूम रही
सब चुपचाप सहा मैने
अपने भाव न जता पाई
पर उपेक्षा सह न सकी
बहुत खीज मन में आई
मेरी अपेक्षा मरने लगी
दुःख के कगार तक ले आई |
व्यथा कथा उसकी सुन कर
मन में टीस उभर आई
मैं उसको कुछ न सुझा पाई
मन ही मन आहत हो कर
थके पाँव घर को आई |
ऐसा क्या था जो भेद गया
दिल दौलत दुनिया से मुझको
बहत दूर खींच लाया मुझको
मन ही मन कुरेद गया |
उसमें मैंने खुद को देखा
जीवन के पन्ने खुलने लगे
बीता कल मुझको चुभने लगा
मकड़ी का जाला बुनने लगा
फँस कर मैं उस मकड़ जाल में
अपने को भी न सम्हाल सकी
जो बात कहीं थी अन्तरमें
होंठों तक आ कर रुकने लगी |
मैं भी तो उसके जैसी ही हूँ
कभी गलत और कभी सही
अनेक वर्जनाएं सहती हूँ
फिर किस हक से मैंने
उसका मन छूना चाहा
मन ही मन दुखी हुई अब मैं
क्यूँ मैने छेड़ दिया उसको
उसकी पीड़ा तो की न कम मैंने
अपनी पीड़ा बढ़ा बैठी |

आशा

23 फ़रवरी, 2010

बच्चा एक मजदूर का

पार्क के उस कोने में
रेत के उस ढेर पर,
खेलता बच्चा बड़ा प्यारा लगता है ,
डर क्या है वह नहीं जानता ,
खतरा कैसा है वह नहीं पहचानता ,
वह तो बस इतना जाने ,
हँसना रोना या भूख प्यास .
माँ और बापू उसके ,
सड़क पर करते हैं काम ,
उनके जीवन में नहीं कोई विश्राम ,
बड़ी बहन उसकी चंचल ,
करती है देख रेख उसकी ,
उसे छोड़ देती है अक्सर ,
उसी रेत की ढेरी पर ,
रेती का ढेर फिसलपट्टी बनता अक्सर ,
इसके साथ रिश्ता उसका
नहीं कुछ अनजाना है ,
कभी ऊपर तो कभी नीचे ,
आगे कभी तो कभी पीछे ,
वह हिलता डुलता और खिसकता है ,
मुठ्ठी भर-भर रेत उठा ,
अपने मुँह पर ही मलता है ,
ठंडी रात के पहलू में ,
भाई बहनों को अलग हटा ,
माँ से लिपट कर सोता है ,
सोते-सोते हँसता है ,
या कभी ज़ोर से रोता है ,
माँ थपकी दे उसे सुलाती है ,
गोदी में उसे झुलाती है ,
रात ठंडी उसकी सहेली है ,
ऐसी कई रातें उसने ,
यहीं रह कर तो झेली हैं |
न ठंडक उसे सताती है ,
नज़ाकत पास नहीं आती है ,
पहने आधे अधूरे कपड़े ,
पर टोपा अवश्य लगाता है ,
जैसे ही होता है प्रभात ,
वही रेत का ढेर उसे ,
अपनी ओर खींच लाता है ,
वह हँसता और लुभाता है |

आशा

19 फ़रवरी, 2010

अनुभूति


तुम्हारे मेरे बीच कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे हैं
क्या है वह कभी सोचा है ?
अहसास स्नेह का ममता का
या अटूट विश्वास
जिससे हम बँधे हैं |
साँसों की गिनती यदि करना चाहें
जीवन हर पल क्षय होता है
पर फिर भी अटूट विश्वास
लाता करीब हम दोनों को
हर पल यह भाव उभरता है
अहसास स्नेह का पलता है
पर बढ़ता स्नेह
अटूट विश्वास पर ही तो पलता है |
कभी सफलता हाथ आई
कभी निराशा रंग लाई
जीवन के उतार चढ़ावों को
हर रोज सहन किया हमने
इस पर भी यह अहसास उभरता है
जीवन जीने का अंदाज यही होता है |
तुम्हारे मेरे बीच कोई तो ऐसा है
जो हमें बहुत गहराई से
अपने में सहेजता है
और इस बंधन को
कुछ अधिक प्रगाढ़ बनाता है |
कई राज खुले अनजाने में
मन चाही बातों तक आने में
फिर भी न कोई अपघात हुआ
और अधिक अपनेपन का
अहसास पास खींच लाया |
बीते दिन पीछे छूट गए
नये आयाम चुने हमने
अलग विचार भिन्न आदतें
व रहने का अंदाज जुदा
फिर भी हम एक डोर से बँधे हैं
सफल जीवन की इक मिसाल बने हैं
और अधिक विश्वास से भरे हैं
यदि होता आकलन जीवन का
हम परवान चढ़े हैं
तुम में कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे है |

आशा

17 फ़रवरी, 2010

केमिस्ट्री जीवन की

केमिस्ट्री जीवन की नहीं आसान
बहुत मुश्किल है
कैसे रखूँ इसे याद बहुत मुश्किल है
ताल मेल का कठिन समीकरण
बार-बार हल करना चाहा
नहीं हुआ आसान
करना संतुलित समीकरण को
बहुत मुश्किल है
फिर दोष मढ़ा किसी गलती पर
इस या उस का कन्फ्यूजन
या जीवन का सम्मोहन
बनने वाले की संरचना
या उसका संवर्धन
शायद कुछ बन भी गया कभी
उसका उपयोग किया न किया
एक फार्मूला रट भी लिया
फिर अगले को याद किया
कई-कई बार टटोला मन को
पर मन ने सभी को नकार दिया
बहुत मुश्किल है
केमिस्ट्री जीवन की बहुत कठिन
उस पर कैसे अभिमान करूँ
नहीं समझ आता मुझको
कैसे उसे आसान करूँ
सबसे कठिन फलसफा जीवन का
केमिस्ट्री का विषय निकला
कैसे करूँ इसे याद बहुत मुश्किल है
सबसे पहले पढ़ना था इसे
कोई समस्या हल न हुई
और केमिस्ट्री जीवन की
असंतुलित समीकरण बनी रही |

आशा

16 फ़रवरी, 2010

खोता बचपन

आया महीना फागुन का
मौसम रंगीन होने लगा
ठंडक भी कम हो गयी
सडकों पर रौनक होने लगी |
बच्चों ने जताया हक अपना
वे गली आबाद करने लगे
फिर भी चिंता परीक्षा की
मन ही मन में सताने लगी |
जैसे ही आई आवाज कोई
मन उसी ओर जाने लगा
वे भूले कॉपी और किताब
बन गया विकेट ईंटों का |
हुई प्रारम्भ बौलिंग और फील्डिंग
रनों ने भी गति पकड़ी
चोकों ,छक्को की झड़ी लगी |
पर आई माँ की आवाज
तुम जल्दी चलो अब घर में
चित्त लगाओ अब पढ़ने में
दुखी मन से जब घर पहुंचे
बस्ते अपने सजाने लगे |
पास पार्क के कौने में
आम पर बैठी कोयल
कुहूक कर मन खीच रही
कच्ची कैरी से लदा पेड़
मन वहाँ जाने का हुआ
जैसे ही एक अमिया तोड़ी
माली की वर्जना सहनी पड़ी |
दौड़े भागे घर को आए
फिर से किताब में खोए
गुजिया,पपड़ी की खुशबू ने
पहुचा दिया अब चौके में
माँ मुझको गुजिया दे दो
बार बार जिद करने लगे |
माँ को बहुत गुस्सा आया
बोली त्यौहार अभी नही आया
होली की जब पूजा होगी
तभी इसे खा पाओगे |
होली पर यदि रंग खेला
सर्दी और जुखाम झेला
परीक्षा में भी पिछड जाओगे
गुजिया ,पपड़ी भी न पाओगे |
इस परीक्षा के झमेले में
पुस्तकों के मेले में
मन त्यौहार भी न मना पाया
पर देख रंगे रंगाऐ लोगों को
मुझको तो बहुत मजा आया |
जब मुझको देखा मस्ती में
पापा ने आँख दिखा पूंछा
क्या भूल गए कल है परीक्षा
होली तो हर साल मनेगी
रंगों की महफिल भी सजेगी
कम नंबर पर सदा खलेगे
जीवन को बर्बाद करेंगे |
फिर छोड़ कर सब कुछ
अपने कमरे में कैद हुए
केवल किताबों में घुसने लगे
कल की तैयारी करने लगे
अपना बचपन खोने लगे |
आशा



15 फ़रवरी, 2010

अनकहा सच


कुछ हमने कहा कुछ तुमने सुना
पर अनकहा बहुत कुछ छूट गया |
न कोई संबोधन न कोई रिश्ता
न तोल सका भावों को मन के |
मन में क्या था न जता पाया
न कोई उपहार दिला पाया |
छिप-छिप कर बात कही मन की
शब्दों में उसे न सजा पाया |
सम्वाद रहित अनजाना रिश्ता
आँखों से भी न जता पाया |
न लिया न दिया कभी कुछ भी
यह कमी सदा ही खलती रही |
क्या उपहार जरूरी है
यह तो एक कमजोरी है |
सबसे अलग हट कर सोचा होता
मन की आँखों से देखा होता
मेरा अंतर टटोला होता
दो बोल प्यार के बोले होते
तुम मुझको पाते निकट अपने|
नए सपने नयनों में पलते
कुछ भी अनकहा न रहा होता |
कोई उपहार लिया न दिया होता
यदि दिल दौलत को चुना होता |

आशा