07 जून, 2010

संग्रह यादों का


कुछ तो ऐसा है तुममें
तुम्हारी हर बात निराली है
कोई भावना जागृत होती है
एक कविता बन जाती है
लिखते-लिखते कलम न  थकती
हर रचना कुछ कह जाती
मुझको स्पंदित कर जाती 
है गुण तुममें सच्चे मोती सा
निर्मल सुंदर चारु चंद्र सा
एक-एक मोती सी 
तुम्हारी  लिखी हर  कविता
कैसे चुनूँ और पिरोऊँ 
फिर उनसे माला बनाऊँ
 माला में कई होंगे मनके 
 किसी न किसी की कहानी कहेंगे
संग्रह उन सब का करूँगा
और रूप पुस्तक का दूँगा
हर कृति कुछ बात कहेगी
मन को भाव विभोर करेगी
तुम्हारी याद मिटने ना दूँगा
हर किताब सहेज कर रखूँगा |


आशा

06 जून, 2010

आँखें तेरे मन का दर्पण

आँखें तेरे मन का दर्पण ,
चेहरा किताब का पन्ना ,
जो चाहे पढ़ सकता है ,
तुझको पहचान सकता है |
आँखें हैं या मधु के प्याले ,
पग-पग पर छलके जाते ,
दो बूँद अगर मैं पी पाता ,
आत्म तृप्ति से भर जाता |
तेरी आँखों का पानी ,
यह सादगी और भोलापन ,
बरबस खींच लाता मुझको ,
काले कजरारे नयनों की भाषा ,
मन की बात बताती मुझको |
उन में क्यूँ न डूब जाऊँ ,
आँखों में पलते सपनों को ,
तुझ में खोजूँ , मैं खो जाऊँ |
जब नयनों से नयन मिलेंगे ,
मन से मन के तार जुड़ेंगे,
अनजाने अब हम न रहेंगे ,
सुख दुःख को मिल कर बाटेंगे ,
साथ साथ चलते जायेंगे |
खुशियों से भरे ये नयना तेरे ,
जीवन में नये रंग भरेंगे ,
हर खुशी तेरे कदमों में होगी ,
हम दूर क्षितिज तक साथ चलेंगे |


आशा

05 जून, 2010

बच्चा आज के बड़े शहर का

आज के युग में एक बड़े शहर में ,
सीमेंट, रेत लोहे से बने इस जंगल में,
रहने वाला बच्चा प्रकृति को नहीं जानता ,
रात में भय से छत पर नहीं जाता ,
यह सोच कर रोता है ,
चाँद तारे कहीं उस पर तो ना गिर जायेंगे !


आशा

महक गुलाब की

महकता गुलाब और गुलाबी रंग ,
सब को अच्छा लगता है ,
और सुगंध उसकी ,
साँसों में भरती जाती है ,
उसकी ओर हाथ बढ़ाती है ,
मेरा मन यह कहता है ,
जैसे हो तुम वैसे ही रहना ,
ऐ गुलाब तुम ,
कमल से ना हो जाना ,
जो कीचड़ में खिलता है ,
पर उसमें लिप्त नहींहोता ,
लक्ष्मी के चरणों में रहता ,
पर अपना प्यार न जता पाता ,
केश नायिका के न सजा पाता ,
तुम सा प्रेम न जता पाता ,
तुम चन्दन भी नहीं बनना ,
हो भुजंग से नेह जिसका ,
बेला, चमेली, हरसिंगार न बनना ,
जिनका जीवन क्षण भंगुर है ,
अमलतास के फूल ,
कई झुमकों में लटकते हैं ,
ना तो उनमें खुशबू है ,
ना हर मौसम में खिलते हैं ,
ना कभी उपहार बने ,
नहीं किसी का हार बने ,
तुम पलाश के फूल न होना ,
गुल मोहर जैसे ना होना ,
वे दूर से सुंदर दिखते हैं ,
तुम जैसे कभी न हो पाते ,
सुगंध तुम्हारी मनमोहक ,
इत्र तुम्हारा मन हरता ,
दूर-दूर तक खुशबू देता ,
मुझको सच में यह लगता है ,
तुम जैसा कोई नहीं होता ,
जब भी कोशिश की माली ने ,
तुम्हारा रूप बदलने की ,
तुमतो आकर्षक दिखने लगे ,
पर सुगंध साथ छोड़ गई ,
तुम जैसे हो वैसे ही रहना ,
बागों को सुरभित करते रहना ,
भवरों का गुंजन जब होगा ,
मंद हवा का झोंका होगा ,
खुशबू दिग्दिगंत में होगी ,
समा रंगीन हो जायेगा ,
ऐसा कोई फूल नहीं जग में ,
जो तुमसे तुलना कर पाता ,
तुम तो फूलों के राजा हो ,
काँटों में शान से जगह बनाते ,
हर अवसर पर सराहे जाते ,
इसी शान को जीवित रखना ,
कभी नष्ट न होने देना |


आशा

04 जून, 2010

सृजन चित्रों का

मै हूँ एक चित्रकार ,
रंगों से चित्र सजाता हूँ ,
मन कि उड़ान को जी भर कर,
चित्रों में दर्शाता हूँ ,
हर रंग अनूठा लगता है ,
जब वह उभर कर आता है ,
मेरा अंतस दर्शाता है ,
पूरा केनवास सज जाता है ,
सारे रंग जब मिल जाते है ,
अद्भुत दृश्य बनाते हैं ,
वे जो चाहे दिखलाते हैं ,
समायोजन सिखलाते हैं ,
मैं कल्पना में खोया रहता हूँ ,
हर क्षण विचार पनपते हैं ,
उन सब के मिल जाने से ,
कुछ नया बन जाने से ,
आयाम सृजन का बढ़ता है ,
मन स्पंदित होने लगता है ,
हर दिन कुछ नया करता हूँ ,
नई कल्पना आती है ,
मस्तिष्क पर छा जाती है ,
मन पंछी सा उड़ता है ,
नई दिशा मिल जाती है ,
एक और कृति बन जाती है ,
इन्द्रधनुष के सारे रंग ,
जब आकाश पर दिखते हैं ,
अपना रंग बिखेरते हैं ,
दृश्य मनोरम होता है ,
जब भी मैं उसको देखूँ ,
अपनी सुध बुध खो बैठूँ ,
मैं बहुरंगी चादर ओढ़ ,
उसमें खुद को लिपटा पाऊँ ,
जितने भी रंग भरे मैंने ,
उनकी छटा निराली है ,
स्मृति पटल पर जब छाए ,
मेरे चित्र सजाती है ,
रूमानी मुझे बनाती है ,
तूलिका और रंगों का मिश्रण ,
उस पर कोरा केनवास ,
जब रंगों का संयोजन होता है ,
मुझे व्यस्त कर जाता है ,
मेरे मन की उड़ान को ,
और दूर ले जाता है |


आशा

03 जून, 2010

फिर शिकायत क्यूँ

मरूभूमि सा मेरा जीवन ,
मृगतृष्णा बन कर तुम आये ,
जब-जब तुमको पाना चाहा ,
बहुत दूर नजर आये ,
मैंने अपना सब कुछ छोड़ा,
जब से तुमसे नाता जोड़ा,
जो चाहा था बन न सके
तुम्हारे ही हो कर रह गये ,
दुखों को भी झेला हमने ,
सुख से भी ना दूर रहे ,
जैसा तुमने चाहा था ,
वैसे ही बन कर रह गये ,
अपना अस्तित्व मिटा बैठे ,
खुद को ही हम भूल गये ,
फिर शिकायत क्यूँ करते हो ,
मैंने जो चाहा बन न सका ,
आपसी दूरी घटा न सका ,
क्यूँ गिले शिकवे करते रहते हो ,
साथ चलने का वादा क्यूँ नहीं करते ,
साथ रहेंगे क्यूँ नहीं कहते ?


आशा

02 जून, 2010

पथिक से

ऐ पथिक सुगंध की चाह में ,
प्रेम के प्रवाह में ,
उस ओर तुम जाना नहीं ,
जहाँ काँटे बिछे हों राह में |
उन पुष्पों से दूरी रखना ,
जो शूलों के साथ पले हों ,
वे कहीं किनारा ना कर लें ,
और काँटे तुम्हें छलनी कर दें |
उन पुष्पों से बच के रहना ,
जो छूते ही बंद कर लें तुमको ,
पूरी तरह निगल जायें ,
आत्मसात तुम्हें कर जायें|
उस राह भी तुम ना जाना ,
छुईमुई के पौधे हों जहाँ ,
तुम उनके जैसे ना बन जाना ,
स्पर्श मात्र से ना सकुचाना ,
अपना अस्तित्व ना खो देना |
जिस राह में बाधा अनेक ,
बाधा को शूल न समझ लेना ,
शूर वीर बन आगे बढ़ना ,
एक लक्ष्य को अपनाना ,
सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी ,
कीर्ति दिग्दिगंत में होगी |
ऐ पंथी मुझे भूल न जाना ,
यादों को न मिटने देना ,
अमित निशान जो पड़े पंथ पर ,
धूमिल उन्हें न होने देना ,
ना ही कभी मिटने देना |
तुममें साहस बहुत अधिक है ,
कुछ करने का जज़्बा भी है ,
उसे न कभी कम होने देना ,
गति को क्षीण न होने देना |
बीते कल को भूल न जाना ,
सब को सुरभित करते जाना |
आशा से रिश्ता रखना ,
निराशा पास न आने देना,
यदि कभी देखो मुड़ कर पीछे ,
तो अलविदा न कहना |


आशा