18 अगस्त, 2010

क्या खोया क्या पाया मैंने


क्या खोया क्या पाया मैने
 आकलन जब भी किया 
सच्चाई जानना चाही 
मैं और उदास हो गयी 
बहुत खोया कुछ ना पाया
जब भी पीछे मुड़ कर देखा
लुटा हुआ खुद को पाया 
जाने कितने लोग मिले
केवल सतही संबंधों से
जिनके चहरे खूब खिले
यह सब मैने नहीं चाहा
अपनों को ही अपनाया
मन से सब का अच्छा चाहा
पर आत्मीय कोई ना पाया
जूझ रही हूं जिंदगी से
कुछ अच्छा नहीं लगता
चारों और  अन्धेरा लगता 
और उदासी छा जाती है
सोचती हूं ,विचारती हूं
लंबी उम्र बनी ही क्यूँ
यदि निरोगी काया होती
शायद तब अच्छा लगता
पर इससे हूं दूर बहुत
हर ओर वीराना लगता है
फिर भी मन को छलती हूं
देती हूँ झूटी सांत्वना
कभी तो समय बदलेगा
कोई अपना होगा
निराशा नहीं होगी
आशा का दीप जलेगा 
आशा

17 अगस्त, 2010

डायरी का हर पन्ना


मेरी डायरी का,
हर पन्ना खाली नहीं है ,
सब पर कुछ न कुछ लिखा है ,
जो भी लिखा है असत्य नहीं है ,
पर पढ़ा जाए जरूरी भी नहीं है ,
कुछ पन्नों पर पेन्सिल से लिखा है ,
जिसे मिटाया जा सकता है ,
कुछ नया लिख कर ,
सजाया सवारा भी जा सकता है ,
कुछ ऐसा जब भी होता है ,
जो मन के विपरीत होता है ,
डायरी में वह भी ,
होता है अंकित,
मन को लगी ठेस,
करती है बहुत व्यथित .
पर पल दो पल की खुशियाँ ,
बन जाती हैं यादगार पल ,
और दे जाती हैं शक्ति ,
उन पन्नों को भरने की ,
पेन्सिल से जो लिखा था ,
रबर से मिट भी गया ,
पर मन के पन्नों पर ,
है जो अंकित ,
उसे मिटाऊं कैसे ,
सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए ,
उनसे छुटकारा पाऊं कैसे |
आशा

15 अगस्त, 2010

गलती उसकी इतनी सी थी

कई बार सड़क पर चौराहों पर ,
झगडों टंटों को पैर पसारे देखा है ,
अन्याय करता तो एक होता है ,
पर दृष्टाओं को उग्र होते देखा है ,
ऐसे उदाहरण अच्छा सन्देश नहीं देते ,
उलटा भय औरअसुरक्षा से ,
भर देते हैं सब को ,
बीते कल का एक दृष्य ,
जब भी सामने आता है ,
बार बार विचार आता है ,
ऐसा क्या किया था उसने ,
जो उस पर कहर टूट रहा था ,
वहां जमा जन समूह ,
उसे समूचा निगलना चाह रहा था ,
सच्चाई जब सामने आई ,
मन मैं झंझावात उठा ,
उस निरीह प्राणी के लिया ,
एक दया का भाव उठा ,
गलती उसकी इतनी सी थी ,
वह चार दिनों से भूखा था ,
जब भूख सहन ना कर पाया ,
अपने को चौराहे पर पाया ,
पहले भीख मांगना चाही ,
पर वह भी जब नहीं मिली ,
चोरी का रास्ता अपनाया ,
जैसे ही दुकान पर पहुंचा ,
रोटी के लिए हाथ बढाया ,
दुकानदार ने देख लिया ,
बहुत मारा बेदम किया ,
जन समूह भी उग्र हुआ ,
और उसे निढाल किया ,
वह टूट गया था ,
फूट फूट कर रोता था ,
वह तो काम चाहता था ,
पर कोई ऐसा नहीं था ,
जो उसे अपना लेता ,
काम के बदले रोटी देता |
आशा

14 अगस्त, 2010

तुम मेरे बिना अधूरे हो

जब हम होंगे सागर के ऊपर ,
मैं तरंग बन लहरों के संग,
मीठे गीत गुनागुनाऊंगी ,
बस तुम मेरे साथ रहना ,
मैं कोई व्यवधान नहीं बनूंगी ,
यह चाहती हूं जग देखूं ,
हिलूं मिलूँ और स्नेह बटोरूँ ,
जब वन उपवन से गुजारें ,
कुछ कदम पहले पहुंच कर ,
पंख फैलाए मोरों के संग ,
घूम घूम कर ,
थिरक थिरक कर नाचूंगी ,
तुम्हारे आगमन पर,
स्वागत मैं तुम्हारा करूंगी ,
मैं हवा हूं ,
कोमल पौधों के संग,
खेलूंगी अठखेली करूंगी ,
महानगरीय संस्कृति ,
मुझे अच्छी नहीं लगती ,
मेरे साथ गाँव चलना ,
सुरम्य वादियों से गुजरना ,
रमणीय दृश्य देख वहां के ,
उनमें कहीं ना खो जाना ,
वारिध तुम यह भूल न जाना ,
तुम मेरे बिना अधूरे हो ,
जब तक साथ तुम्हारा दूंगी ,
तुम आगे बढते जाओगे ,
मैं मंद हवा का झोंका हूं ,
अस्तित्व मेरा भुला ना पाओगे ,
मेरा साथ यदि छोड़ा,
तुम कहीं भी खो जाओगे |
आशा

13 अगस्त, 2010

मन की स्थिति

इस मस्तिष्क की भी ,
एक निराली कहानी है ,
कभी स्थिर रह नहीं पाता,
विचारों का भार लिए है ,
शांत कभी न हो पाता ,
कई विचारों का सागर है ,
कुछ प्रसन्न कर देते हैं ,
पर उदास कई कर जाते हैं ,
जब उदासी छाती है ,
संसार छलावा लगता है ,
इस में कुछ भी नहीं रखा है ,
यह विचार बार बार आता है ,
विरक्त भाव घर कर जाता है ,
पर अगले ही क्षण,
कुछ ऐसा होता है ,
दबे पांव प्रसन्नता आती है ,
आनन पर छा जाती है ,
दिन में दिवास्वप्न ,
और रात्रि में स्वप्न,
आते जाते रहते हैं ,
अपने मन की स्थिति देखती हूं ,
सोचती हूं किससे क्या कहूँ ,
जब अधिक व्यस्त रहती हूं ,
कुछ कमी सपनों मैं होती है ,
कार्य करते करते ,
जाने कहाँ खो जाती हूं
पर कुछ समय बाद ,
फिर से व्यस्त हो जाती हूं ,
ऐसा क्यूँ होता है ,
मैं स्वयं समझ नहीं पाती ,
ना ही कोई असंतोष जीवन में ,
और ना अवसाद कोई ,
फिर भी सोचती हूं ,
खुद को कैसे इतना व्यस्त रखूं,
मन की बातें किससे कहूं,
मन के जो अधिक निकट हो ,
यदि यह सब उससे कहूं ,
शायद कुछ बोझ तो हल्का हो ,
मस्तिष्क और ना भटके ,
मनोविज्ञान पढ़ा है फिर भी ,
विचारों में होते बदलाव का,
कारण जान नहीं जान पाई ,
कोई हल् निकाल नहीं पाई ,
शायद संसार मैं यही होता है ,
जो मस्तिष्क पर छाया रहता है |
आशा



,

11 अगस्त, 2010

इस तिरंगे की छाँव में

पन्द्रह अगस्त स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर विशेष रूप से लिखी गई रचना |शायद पसंद आए |
इस तिरंगे की छाँव में ,
जाने कितने वर्ष बीत गए
फिर भी रहता है इन्तजार
हर वर्ष पन्द्रह अगस्त के आने का
स्वतंत्रता दिवस मनाने का |
इस तिरंगे के नीचे
हर वर्ष नया प्रण लेते हैं
है मात्र यह औपचारिकता
जिसे निभाना होता है |
जैसे ही दिन बीत जाता
रात होती फिर आता दूसरा दिन
बीते कल की तरह
प्रण भी भुला दिया जाता |
अब भी हम जैसे थे
वैसे ही हैं ,वहीँ खड़े हैं
कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ
पंक में और अधिक धंसे हैं |
कभी मन मैं दुःख होता है
वह उद्विग्न भी होता है
फिर सोच कर रह जाते हैं
अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता
जीवन के प्रवाह को रोक नहीं सकता |
शायद अगले पन्द्रह अगस्त तक
कोई चमत्कार हो जाए
हम में कुछ परिवर्तन आए
अधिक नहीं पर यह तो हो
प्रण किया ही ऐसा जाए
जिसे निभाना मुश्किल ना हो |
फिर यदि इस प्रण पर अटल रहे
उसे पूरा करने में सफल रहे
तब यह दुःख तो ना होगा
जो प्रण हमने किया था
उसे निभा नहीं पाए
देश के प्रतिकुछ तो निष्ठा रख पाए
अपना प्रण पूरा कर पाए |
आशा

10 अगस्त, 2010

तुम क्यूँ मेरा पीछा करती हो

सुबह हो या दोपहर हो ,
जब मैं बाहर जाती हूँ ,
कभी आगे चलती हो ,
कभी पीछे ,
पर सदा साथ साथ चलती हो ,
मुझे कारण पता नहीं होता ,
तुम क्यूँ मेरा पीछा करती हो ,
तुम क्या चाहती हो
मौनव्रत लिए रहती हो ,
बार बार मुझे छलती हो ,
हो तुम आखिर कौन ,
जो मेरा पीछा करती हो ,
मेरी जासूसी करती हो ,
मैं झुकती हूं तुम झुकती हो ,
मैं रुकती हूं तुम रुकती हो ,
मेरा साथ तब भी न छोड़तीं ,
जब भी बादल होते हैं ,
या घना अंधकार होता है ,
मुझे डर भी लगता है ,
तभी साथ छोड़ जाती हो ,
तुम ऐसा क्यूँ करती हो ,
हर बार मुझे छलती हो ,
क्या रात में भी साथ रहती हो ,
मेरी सारी बातों को ,
चुपके से जान लेती हो ,
क्या तुम मेरी प्रतिच्छाया हो ,
या हो और कोई ,
तुमको मैं क्या नाम दूँ ,
यह तो बताती जाओ |
आशा