आज रात सपने में खुद को
आसमान में उड़ते देखा
साथ थे कई परिंदे चहचहाते
साथ उड़ते बड़े प्यारे लगते |
जब भी नीचे आना चाहा
मेरे पंख सिमट न पाए
धरा पर आने में असफल रहा
सूर्य की तपती धूप से
भूख प्यास से बेहाल हुआ
तरसती निगाहों से धरा को देखा
मन में गहन उदासी छाई
खुद को असहाय पाकर
तभी अचानक घना पेड़
बरगद का देखा |
फिर से जुनून पैदा हुआ
उस पेड़ पर उतरने का
हिम्मत जुटाई फिर कोशिश की
जब सफल रहा मन प्रसन्न हुआ |
मैंने सोचा न था कभी मेरी
उड़ान समाप्त हो पाएगी
मैं हरी भरी धरती को
स्पर्श तक कर पाऊंगा |
अपनी इस सफलता पर
मुझे अपार गर्व हुआ
फिरसे यहीं घर अपना बनाया
उड़ने का सपना छोड़ दिया |
लगने लगा जो जहां का है प्राणी
उसे वहीं रहना चाहिए
ऊंची दूकान फीके पकवान के
स्वप्न न देखना चाहिए |
सपनों में जीने से है क्या लाभ
क्या कमीं रही सब कुछ तो है यहाँ
मेरी दृष्टि हुई है संकुचित
इस में है दोष किसका ?
आशा सक्सेना