26 जुलाई, 2018

भाग्य का खेल



थी खुशरंग 
रहा मेरा मन अनंग 
जाने थे कितने व्यवधान 
अनगिनत मेरे जीवन में !
हर कठिनाई का किया सामना 
भाग्य समझ कर अपना 
कभी भी मोर्चा न छोड़ा 
किसी भी उलझन से !
बहुतों को तो रहती थी जलन 
मेरी ही तकदीर से 
पर इस बार अचानक 
घिरी हुई हूँ भवसागर में 
नैया मेरी डोल रही है 
फँस कर रह गयी मँझधार में 
सारे यत्न हुए बेकार
मानसिक रूप से रही स्वस्थ 
पर शारीरिक कष्ट 
कर गए वार ! 


आशा सक्सेना  



23 जुलाई, 2018

ख्याल


हर वख्त ख्यालों में रहते हो
किसी स्वप्न की तरह
आँखों में समाए रहते हो
किसी सीधे वार की तरह
कभी भूल कर न पूंछा कि
आखिर मेरी भी है कोई इच्छा
खिलोना बन कर रह गई हूं
तुम्हारे इंतज़ार के लिए
या हूँ एक रक्षक
तुम्हारे दरवाजे के लिए |
आशा

22 जुलाई, 2018

आया सावन


चलो चले जाएँगे हम 
लौट कर सावन की  तरह
अगले बरस आने को 
पर इस बरस को भूल न पाएंगे 
रह रह कर याद आएगी 
भाभी बिना त्यौहार मनाने की
कभी इन्तजार रहता था 
सावन के आने का 
हलकी हलकी बारिश में 
भीग कर जाने  का  
बहुत मजा आता था 
अम्मा की डाट खाने में 
उससे भी अधिक 
आनंद की प्राप्ति में 
बस यह केवल रह
  अब गुम होकर 
पुरानी यादों में रह गया है |
आशा

17 जुलाई, 2018

हिंडोला गीत







चलो  री सखी चलें अमराई में
झूलन के दिन आए
नीम की डाली पे झुला डलाया
लकड़ी की पाटी  मंगवाई
रस्सी मगवाई बीकानेर से
भाबी जी आना भतीजी को भी लाना
काम का  समय निकाल कर पर आजाना
गाएंगे सावन के गीत
यादें ताजा कर लेगे  
न आने का बहाना न बनाना
हम तुम मिल कर बाँटें मेंहदी 
हाथों में दिन भर लगाएं मेंहदी 
झूलें सब से ऊंची डाली पर
फिर सावन के  गीत
झूम झूम कर गाएं
मींठी खीर घेवर खाएं
फेनी पूए का भोग लगाएं
हम और तुम पेंग  बढाएं
ऊंची डाली चूमती आएं
सूरज से हाथ मिलाऐं
छोड़ो झूला रस्सी
अब मेरी बारी 
झूलने की आई |

  
आशा

12 जुलाई, 2018

इस तिरंगे की छाँव में


जाने कितने वर्ष बीत गए
फिर भी रहता है इन्तजार
हर वर्ष पन्द्रह अगस्त के आने का
स्वतंत्रता दिवस मनाने का |
इस तिरंगे के नीचे
हर वर्ष नया प्रण लेते हैं
है मात्र यह औपचारिकता
जिसे निभाना होता है |
जैसे ही दिन बीत जाता
रात होती फिर आता दूसरा दिन
बीते कल की तरह
प्रण भी भुला दिया जाता |
अब भी हम जैसे थे
वैसे ही हैं ,वहीँ खड़े हैं
कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ
पंक में और अधिक धंसे हैं |
कभी मन में दुःख होता है
वह उद्विग्न भी होता है
फिर सोच कर रह जाते हैं
अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता
जीवन के प्रवाह को रोक नहीं सकता |
शायद अगले पन्द्रह अगस्त तक
कोई चमत्कार हो जाए
हम में कुछ परिवर्तन आए
अधिक नहीं पर यह तो हो
प्रण किया ही ऐसा जाए
जिसे निभाना मुश्किल ना हो |
फिर यदि इस प्रण पर अटल रहे
उसे पूरा करने में सफल रहे
तब यह दुःख तो ना होगा
जो प्रण हमने किया था
उसे निभा नहीं पाए
देश के प्रति कुछ तो निष्ठा रख पाए
अपना प्रण पूरा कर पाए |

आशा

01 जुलाई, 2018

मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है मेरी पुस्तक का नवा संग्रह यायावर आप लोगो के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए

भूमिका ‘यायावर’
मेरी दीदी आशा सक्सेना जी के नये काव्य संकलन ‘यायावर’ को लेकर मैं आज आपके सम्मुख उपस्थित हुई हूँ ! दीदी की सृजनशीलता के सन्दर्भ में कुछ भी कहना सूरज को दीपक दिखाने के समान है ! २००९ से वे अपने ब्लॉग ‘आकांक्षा’ पर सक्रिय हैं और उनकी श्रेष्ठ रचनाओं का रसास्वादन आप सभी सुधि पाठक इस ब्लॉग पर इतने वर्षों से कर ही रहे हैं ! दीदी के अन्दर समाहित संवेदनशील कवियत्री अपने आस पास बिखरी हुई हर छोटी से छोटी बात से प्रभावित होती है और हर वह बात उनकी रचना की विषयवस्तु बन जाती है जो उनके अंतर्मन को कहीं गहराई तक छू जाती है ! उनकी रचनाओं में जीवन के विविध रंगों का भरपूर समायोजन हुआ है !
 आज अवसर मिला है मुझे कि मैं आपके समक्ष उनकी कुछ ऐसी रचनाओं की चर्चा करूँ जो न केवल अनुपम अद्वितीय हैं वरन हर मायने में हमारी सोच को प्रभावित करती हैं, प्रेरित करती हैं, हमारे सौन्दर्य बोध को जागृत करती हैं और कई सुन्दर सार्थक सन्देश हमारे मन मस्तिष्क में उकेर जाती हैं ! ये सारी रचनायें उनके इस नवीन काव्य संग्रह ‘यायावर’ में संकलित है !
आशा दीदी के ब्लॉग की रचनाएं किसी सुन्दर उपवन का अहसास कराती हैं जिनसे जीवन के विविध रंगों की भीनी भीनी खुशबू आती है ! उनकी हर रचना हमारे सम्मुख सजीव चित्र सा प्रस्तुत कर देती है !  ‘नाराज़गी’, ‘पूनम का चाँद’, ‘सोनचिरैया’, ‘बिल्ली’ पढ़िए तो ज़रा, आपकी आँखों के सामने एक रूठी हुई बच्ची, एक मुग्धा नायिका और ठुमक ठुमक आँगन में टहलती दाने चुगती चिड़िया और एक नटखट बिल्ली की तस्वीर स्वयमेव खिंच जायेगी ! सामयिक समस्याओं पर भी उनकी लेखनी खूब चली है ! ‘आज का रावण’, ‘फलसफा प्रजातंत्र का’, ‘असमंजस’, ‘बिखराव’ समाज में व्याप्त विसंगतियों और उससे उपजी हताशा पर ही आधारित गंभीर रचनाएं हैं ! उनकी दृष्टि से ‘रेल हादसा’ भी नहीं चूकता है तो ‘हरियाली तीज’ का हर्षोल्लास भरा उत्सवी वातावरण भी उन्हें उत्फुल्ल कर जाता है ! ‘हम किसीसे कम नहीं’ में उन्होंने दिव्यांगों की कर्मठता और आत्मविश्वास को रेखांकित किया है तो ‘आदत वृद्धावस्था की’ में वृद्ध जनों को सकारात्मक सोच रख कर जीवन को भरपूर ढंग से जीने और हर हाल में खुश रहने का सार्थक सन्देश भी दिया है !
आशा दीदी की रचनाएं अन्धकार में जलती मशाल की तरह हैं और सच मानिए तो ये उनके विलक्षण व्यक्तित्व की परिचायक भी हैं ! स्वास्थ्य संबंधी अनेकों समस्याओं से निरंतर जूझते हुए भी उनके लेखन की गति तनिक भी धीमी नहीं हुई ! उनकी जिजीविषा और रचनात्मकता को हमारा कोटिश: नमन ! वे इसी प्रकार अनवरत लिखती रहें और हम सबकी काव्य पिपासा को इसी प्रकार संतुष्ट करती रहें यही मंगलकामना है ! इसके पूर्व उनके आठ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ! उनका यह नवीन काव्यसंग्रह ‘यायावर’ भी उत्कृष्ट रचनाओं का संकलन है और मुझे पूरा विश्वास है कि यह आप सभी की अपेक्षाओं पर पूरी तरह से खरा उतरेगा ! अनंत अशेष शुभकामनाओं के साथ आशा दीदी को इस नए कीर्तिमान को स्थापित करने के लिए मेरी हार्दिक बधाई ! उनके अगले संकलन की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा रहेगी ! सादर !
साधना वैद   

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी !

24 जून, 2018

हर अदा कमसिन














हो तुम बेहद  हसीन 
तुम्हारी हर अदा कमसिन 
मुस्कराहट ने चमक दुगनी
की है चहरे कि
काकुल से घिरी पेशानी
मानो लटें प्यार से मुख चूमती
रौनक ऎसी आई है 

लगती है शाम के साए में लिपटी 
  खूबसूरत एक गजल सी |
हो तुम बहुत हसीन 
तुम्हारी हर अदा कमसिन 
मुस्कराहट ने चमक दुगनी
की है चहरे कि
काकुल से घिरी पेशानी
मानो लटें प्यार से मुख चूमती
रौनक ऎसी आई है
लगाती हो शाम के साए में लिपटी
खूबसूरत एक गजल सी |
आशा

आशा

             

22 जून, 2018

प्रेम के फल

गहरे बोए बीज प्रेम के
सींचा प्यार के जल से
मुस्कान की खाद डाली
 इंतज़ार किया शिद्दत से
बहुत इंतज़ार के बाद
दिखे अंकुरित होते चार पांच
 हुई  अपार प्रसन्नता देख  उन्हें
 देखरेख और बढाई
पर एक दिन नफरत की आंधी ने
अपनी सीमा लांघी
 दो  पौधे  धराशाही हो गए
मन यह सह न पाया
किया जतन उसको सहेज कर
 एक गमले में लगाया
अब रोज लगा रहता कहीं
 नफरत उसे हानि न पहुंचाए
धीरे धीरे वह पनपने लगा
दो से पर्ण हुए चारसे आठ
 तने में भी आई थोड़ी शक्ति
पल्लवित पौधा देख कर
लगता कब बड़ा होगा
 प्रेम के फल जाने कब लगेंगे
ज़रा से संयम ने फलित किया प्रेम फल
बैर भाव जाने कहाँ  हुआ तिरोहित
प्रेम के फल  भर गए मिठास से |
आशा



18 जून, 2018

यह क्या किया ?








हकीकत से कब तक दूरी
उससे मुंह मोड़ा
क्या यह है  सही ?
अंतर मन से सोचना फिर कहना
है यह कहाँ की ईमानदारी
जब मन चाहा खेला  
फिर उससे मुंह फेरा
जिन्दगी के चार दिन
उस पर लुटाए
 बाद में मन भर गया
 तब लौट कर न देखा
फटे पुराने कपड़े की तरह
उसका मोल किया
हकीकत तो यह है कि
 तुमने उसे  कभी चाहा ही नहीं
उसको दूध की मक्खी समझा
उसका केवल उपभोग किया
हो तुम कितने कठोर
कभी सोचा भी न था
 हकीकत को तो नहीं झुटला सकते
 पर तुमसे मन की
 दूरी जरूर हो गई है
यह तुमने क्या किया ?  



16 जून, 2018

हाईकू

१-जल बतासा 
चहरे पर खुशी
 दिखाई देती 

२-बरसात में 
हुआ मौसम ठंडा 
मन प्रसन्न 

३-नभ तरसा 
तरसे सरोबर 
जल के लिए 

४- देखते नभ 
काले भूरे बादल 
वृष्टि आजाओ 

५-आशा निराशा 
दोनो हैं सहोदर 
जीवन गीत 

६-क्या लिख दिया
क्या न लिख दिया है
सोच के देखो

आशा

12 जून, 2018

मोती अनमोल

सागर में सीपी के लिए चित्र परिणाम
सागर की सीपी  में मोती
हैं अनमोल अद्भुद दिखाई देते 
है भण्डार अपार  उनका 
उनसे शब्द मोती से झरते
किये संचित शब्दों के मोती 
चुन चुन मोती माला पिरोई 
उस पर सुगंध भावों की डाली 
वही  माला अपने प्रियवर को 
बड़े जतन से   भेट चढ़ाई 
जब उनहोंने  उसे धारण किया 
भाव भरे शब्दों को पहचाना 
सच्चे मोतियों  को परखा 
उनकी आव का अनुभव किया
उन्हें यथोचित स्थान दे कर  
मनोबल मेरा  बढ़ाया
शब्दों में संचित  भावनाएं 
दौनों के बीच सेतु बन गईं 
अपने अनुभव बांटने  के लिए
शब्दों की धरोहर मिल गई |
आशा

क्यों रूठना

 

छोडो यह बचकानी हरकतें 
कभी तो गंभीरता लाओ चेहरे पर 
जो बार बार करोगे गलतियाँ 
रूठ जाएंगे सभी तुमसे 
चाहे कितनी भी मनुहार करोगे 
मना न पाओगे उनको 
दो चार दिन ही रुसवाइयां 
शोभा देती हैं न खींचो बात को 
न छीनों सब की खुशियाँ |
आशा

09 जून, 2018

जी हजूरी है आज बहुत जरूरी






जब से नौकरी लगी है
आफ़िस तो देखा नहीं
बंगले पर हूँ तैनात
क्या करूं
जी हजूरी आजकल बेहद
जरूरी हो गई है
यदि स्थाई होना हो तो
ऐसी सेवा है आवश्यक
साहब से पहले बाई साहब का
हर हुकुम मानना पड़ता है
तभी फाइल स्थाई होने की
आगे बढ़ पाती है 
तब गर्व से कह पाते हैं
हम स्थाई हो गए
जी हजूरी आजकल है बहुत जरुरी
अब पहले से भारी हो गए हैं
लोग पहले  हम से पूंछते हैं
साहब का मूड कैसा है
आज मिलें या कल |
जो आते हैं मुट्ठी गर्म कर जाते हैं
|कहते हैं यह रिश्वात नहीं
है एक छोटा सा नजराना
नन्हें मुन्ने बच्चों के लिए
और यह तुम्हारे लिये टिप
है अब चलन ऐसा ही |
आशा