क्यूँ नहीं आए अभी तक ,
कब तक बाट निहारूँ मैं ,
ले रहे हो कठिन परीक्षा ,
है विश्वास में कहाँ कमी ,
कभी विचार आता है
अधिक व्यस्तता होगी ,
जल्दी ही बदल जाता है
कुछ बुरा तो नहीं हुआ है ,
चंचल विचलित यहाँ वहाँ
कहाँ नहीं ढूँढा तुमको ,
फिर भी खोज नहीं पाई
चिंताएं मन में छाईं ,
जब भी फोन की घंटी बजती ,
तुम्हारे सन्देश की आशा जगती ,
यदि वह किसी और का होता ,
चिंताओं में वृद्धि होती ,
यह चंचलता यह बेचैनी
कुछ भी करने नहीं देती ,
यदि बता कर जाते
यह परेशानी तो नहीं होती |
बहुत इन्तजार कर लिया
जल्दी से लौट आओ
मेरा सब का कुछ तो ख्याल करो
अधिक देर से आओगे यदि
फटे कागजों के अलावा
कुछ भी नहीं पाओगे
चार दीवारों से घिरा
खाली मकान रह जाएगा
बाद में दुखी होगे
अकेले भी न रह पाओगे |
आशा
16 जनवरी, 2011
15 जनवरी, 2011
होता नहीं विश्वास दोहरे मापदंडों पर
होता नहीं विश्वास
दोहरे मापदंडों पर ,
अंदर कुछ और बाहर कुछ
बहुत आश्चर्य होता है
जब दोनों सुने जाते हैं
अनुभवी लोगों से |
हैं ऐसे भी घर इस जहाँ में
जो तरसते हैं कन्या के लिये |
उसे पाने के लिये ,
कई जतन भी करते हैं |
लगता है घर आँगन सूना
बेटी के बिना अधूरा |
पर जैसे ही बड़ी हो जाती है
वही लोग घबराते हैं |
बोझ उसे समझते हैं
छोटी मोटी भूलों को भी ,
बवंडर बना देते हैं ,
वर्जनाएं कम नहीं होतीं
कुछ ना कुछ सुनने को
मिल ही जाता है |
बेटी है कच्ची मिट्टी का घड़ा
आग पर एक ही बार चढ़ता है
उसे पालना सरल नहीं है ,
है आखिर पराया धन
जितनी जल्दी निकालोगे
चिंता मुक्त हो पाओगे |
यदि भूल से ही सही
कहीं देर हो जाये
हंगामा होने लगता है ,
इतनी आज़ादी किस काम की
सुनने को जब तब मिलता है|
लड़के भी घूमते हैं
मौज मस्ती भी करते हैं
उन्हें कोई कुछ नहीं कहता
उनकी बढ़ती उम्र देख
सब का सीना चौड़ा होता |
दोनों के पालन पोषण में
होता कितना अंतर |
लड़कों के गुण गुण हैं
लड़की है खान अवगुणों की |
है यह कैसा भेद भाव
कैसी है विडंबना
घर वालों के सोच की
समाज के ठेकेदारों की |
कथनी और करनी में अंतर
जब स्पष्ट दिखाई देता है
सही बात भी यदि कही जाए
मानने का मन नहीं होता
मन उद्दंड होना चाहता है
विद्रोह करना चाहता है |
आशा
14 जनवरी, 2011
होगा क्या भविष्य
छोटी बड़ी रंग बिरंगी ,
भाँति-भाँति की कई पतंग ,
आसमान में उड़ती दिखतीं ,
करतीं उत्पन्न दृश्य मनोरम ,
होती हैं सभी सहोदरा ,
पर डोर होती अलग-अलग ,
उड़ कर जाने कहाँ जायेंगी ,
होगा क्या भविष्य उनका ,
पर वे हैं अपार प्रसन्न अपने
रंगीन अल्प कालिक जीवन से ,
बाँटती खुशियाँ नाच-नाच कर ,
खुले आसमान में ,
हवा के संग रेस लगा कर |
अधिक बंधन स्वीकार नहीं उन्हें ,
जैसे ही डोर टूट जाती है ,
वे स्वतंत्र हो उड़ जाती हैं,
जाने कहाँ अंत हीन आकाश में ,
दिशा दशा होती अनिश्चित उनकी ,
ठीक उसी प्रकार
जैसे आत्मा शरीर के अन्दर |
उन्मुक्त हो जाने कहाँ जायेगी,
कहाँ रहेगी, कहाँ विश्राम करेगी ,
या यूँ ही घूमती रहेगी ,
नीले-नीले अम्बर में ,
कोई ना जान पाया अब तक
बस सोचा ही जा सकता है
समानता है कितनी ,
आत्मा और पतंग में |
आशा
13 जनवरी, 2011
अनाथ
माँ मैं तेरी बगिया की ,
एक नन्हीं कली ,
क्यूँ स्वीकार नहीं किया तूने ,
कैसे भूल गई मुझे ,
छोड़ गई मझधार में
तू तो लौट गई
अपनी दुनिया में
मुझे झूला घर में छोड़ गई ,
क्या तुझे पता है ,
जब-जब आँख लगी मेरी ,
तेरी सूरत ही याद आई ,
तेरा स्पर्श कभी न भूल पाई ,
बस मेरा इतना ही तो कसूर था ,
तेरी लड़के की आस पूरी न हुई ,
और मैं तेरी गोद में आई ,
तू कितनी पाषाण हृदय हो गई ,
सारी नफरत, सारा गुस्सा ,
मुझ पर ही उतार डाला ,
मुझे रोता छोड़ गई ,
और फिर कभी न लौटी,
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ,
अच्छी तरह समझती हूँ
मेरा भविष्य क्या होगा
मुझे कौन अपनाएगा ,
मैं अकेली
इतना बड़ा जहान ,
कब क्या होगा
इस तक का मुझे पता नहीं है ,
फिर भी माँ तेरा धन्यवाद
कि तूने मुझे जन्म दिया ,
मनुष्य जीवन समझने का
एक अवसर तो मुझे दिया !
आशा
एक नन्हीं कली ,
क्यूँ स्वीकार नहीं किया तूने ,
कैसे भूल गई मुझे ,
छोड़ गई मझधार में
तू तो लौट गई
अपनी दुनिया में
मुझे झूला घर में छोड़ गई ,
क्या तुझे पता है ,
जब-जब आँख लगी मेरी ,
तेरी सूरत ही याद आई ,
तेरा स्पर्श कभी न भूल पाई ,
बस मेरा इतना ही तो कसूर था ,
तेरी लड़के की आस पूरी न हुई ,
और मैं तेरी गोद में आई ,
तू कितनी पाषाण हृदय हो गई ,
सारी नफरत, सारा गुस्सा ,
मुझ पर ही उतार डाला ,
मुझे रोता छोड़ गई ,
और फिर कभी न लौटी,
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ,
अच्छी तरह समझती हूँ
मेरा भविष्य क्या होगा
मुझे कौन अपनाएगा ,
मैं अकेली
इतना बड़ा जहान ,
कब क्या होगा
इस तक का मुझे पता नहीं है ,
फिर भी माँ तेरा धन्यवाद
कि तूने मुझे जन्म दिया ,
मनुष्य जीवन समझने का
एक अवसर तो मुझे दिया !
आशा
12 जनवरी, 2011
निकटता कैसी
निकटता कैसी उन सब से ,
जो वही कार्य करते हैं ,
जिसके लिए मना करते हैं ,
हम तो ऐसे लोगों को ,
सिरे से नकार देते हैं ,
प्रतिदिन शिक्षा देते हैं ,
यह करो, यह ना करो ,
पर हैं वे कितने खोखले ,
यह सभी जानते हैं ,
कुछ रहते धुत्त नशे में ,
करते बात नशा बंदी की ,
कई बार झूमते दिख जाते ,
सामाजिक आयोजनों में ,
पर सुबह होते ही ,
करते बात आदर्शों की ,
अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर ,
फोटो जब तब छपते हैं ,
हैं कितने कुकृत्यों में लिप्त ,
सभी लोग जानते हैं ,
फिर क्यूँ हो श्रद्धा उन पर ,
जो झूठे आदर्शों की ,
बातें करते हैं ,
गले-गले तक डूबे अनाचार में ,
बात ईमानदारी की करते हैं ,
कई रंग बदलते गिरगिट की तरह ,
उससे कुछ कम नहीं हैं ,
यदि अवसर मिल जाये ,
दलाली तक से नहीं डरते ,
हम क्यूँ ऐसे लोगों में ,
गुणों कि तलाश करें ,
है महत्व क्या ,
ऐसे लोगों की वर्जनाओं का ,
क्या सब नहीं जानते ?
फिर उन्हें आदर्श मान ,
क्यूँ महत्व देते हैं ,
अधिक समझदार हैं वे ,
जो उनसे दूर रहते हैं |
आशा
10 जनवरी, 2011
बैसाखी नहीं चाहती
जब भी हाथ बढ़ा स्नेह का ,
झोली भर खुशियाँ बाँटीं ,
उस पर जब भी हाथ उठाया ,
वह जाने कितनी मौत मरी ,
है यह कैसा प्यार तकरार ,
और छिपी हुई उसमें ,
जाने कितनी भावनायें ,
है समझ भी उनकी ,
पर जब चोट लगती है ,
वह बहुत आहत हो जाती है ,
और भूल जाती है ,
उस प्रेम का मतलब ,
जो कुछ समय पूर्व पाया था ,
नफरत से भर जाती है ,
बदले का भाव प्रबल होता है ,
और उग्रता आती है ,
यही उग्रता बलवती हो ,
बदल देती राह उसकी ,
और चल पड़ी अनजान राह पर ,
मन में गहरा विश्वास लिये ,
नही जानती कहाँ जायेगी ,
किस-किस का अहसान लेगी ,
बस इतना जानती है ,
इस नर्क से तो आज़ाद होगी ,
प्यार ममता और समर्पण ,
बाँट-बाँट हो गयी खोखली ,
सहन शक्ति की पराकाष्ठा ,
बहुत दूर की बात हो गयी ,
जब अंदर ज्वाला धधकती है ,
पृथ्वी तक फट जाती है ,
थी तब वह अबला नारी ,
पर जुल्म कब तक सह पाती ,
है अब वह सबल सफल ,
कमजोर असहाय नारी नहीं ,
अपना अधिकार पाना जानती है ,
अपने पैरों पर खड़ी है ,
किसी की बैसाखी नहीं चाहती |
आशा
झोली भर खुशियाँ बाँटीं ,
उस पर जब भी हाथ उठाया ,
वह जाने कितनी मौत मरी ,
है यह कैसा प्यार तकरार ,
और छिपी हुई उसमें ,
जाने कितनी भावनायें ,
है समझ भी उनकी ,
पर जब चोट लगती है ,
वह बहुत आहत हो जाती है ,
और भूल जाती है ,
उस प्रेम का मतलब ,
जो कुछ समय पूर्व पाया था ,
नफरत से भर जाती है ,
बदले का भाव प्रबल होता है ,
और उग्रता आती है ,
यही उग्रता बलवती हो ,
बदल देती राह उसकी ,
और चल पड़ी अनजान राह पर ,
मन में गहरा विश्वास लिये ,
नही जानती कहाँ जायेगी ,
किस-किस का अहसान लेगी ,
बस इतना जानती है ,
इस नर्क से तो आज़ाद होगी ,
प्यार ममता और समर्पण ,
बाँट-बाँट हो गयी खोखली ,
सहन शक्ति की पराकाष्ठा ,
बहुत दूर की बात हो गयी ,
जब अंदर ज्वाला धधकती है ,
पृथ्वी तक फट जाती है ,
थी तब वह अबला नारी ,
पर जुल्म कब तक सह पाती ,
है अब वह सबल सफल ,
कमजोर असहाय नारी नहीं ,
अपना अधिकार पाना जानती है ,
अपने पैरों पर खड़ी है ,
किसी की बैसाखी नहीं चाहती |
आशा
09 जनवरी, 2011
अनजानी
छन-छन छनन-छनन ,
पायल की छम-छम ,
खनकती चूड़ियों की खनक ,
सिमटते आँचल क़ी सरसराहट
कराते अहसास,
पहनने वाली का ,
भूल नहीं पाता मीठा स्वर ,
उस अनजानी का ,
जब भी शब्द मुँह से निकले ,
फूल झरे मधु रस से पगे ,
हँसती रहती निर्झरनी सी ,
नयनों ही नयनों में ,
जाने क्या अनकही कहती ,
उसकी एक झलक पाने को ,
तरस जातीं आँखें मन की ,
वह और उसकी शोख अदायें,
मन को हौले से छू जातीं ,
जाने कब मिलना होगा ,
उस अनजानी मृदुभाषिणी ,
मृग नयनी सुर बाला से ,
आँखें जब भी बंद करूँगा ,
उसे बहुत निकट पाऊँगा ,
उन्मत्त पवन के वेग सा ,
उसकी और खिंचा आऊँगा ,
चंचल चपल अनजानी को ,
और अधिक जान पाऊँगा |
आशा
पायल की छम-छम ,
खनकती चूड़ियों की खनक ,
सिमटते आँचल क़ी सरसराहट
कराते अहसास,
पहनने वाली का ,
भूल नहीं पाता मीठा स्वर ,
उस अनजानी का ,
जब भी शब्द मुँह से निकले ,
फूल झरे मधु रस से पगे ,
हँसती रहती निर्झरनी सी ,
नयनों ही नयनों में ,
जाने क्या अनकही कहती ,
उसकी एक झलक पाने को ,
तरस जातीं आँखें मन की ,
वह और उसकी शोख अदायें,
मन को हौले से छू जातीं ,
जाने कब मिलना होगा ,
उस अनजानी मृदुभाषिणी ,
मृग नयनी सुर बाला से ,
आँखें जब भी बंद करूँगा ,
उसे बहुत निकट पाऊँगा ,
उन्मत्त पवन के वेग सा ,
उसकी और खिंचा आऊँगा ,
चंचल चपल अनजानी को ,
और अधिक जान पाऊँगा |
आशा
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