23 दिसंबर, 2011

अंदाज अलग जीने का

हूँ स्वप्नों की राज कुमारी

या कल्पना की लाल परी

पंख फैलाए उडाती फिरती

कभी किसी से नहीं डरी |

पास मेरे एक जादू की छड़ी

छू लेता जो भी उसे

प्रस्तर प्रतिमा बन जाता

मुझ में आत्म विशवास जगाता |

हूँ दृढ प्रतिज्ञ कर्तव्यनिष्ठ

हाथ डालती हूँ जहां

कदम चूमती सफलता वहाँ |

स्वतंत्र हो विचरण करती

छली न जाती कभी

बुराइयों से सदा लड़ी

हर मानक पर उतारी खरी |

पर दूर न रह पाई स्वप्नों से

भला लगता उनमें खोने में

यदि कोइ अधूरा रह जाता

समय लगता उसे भूलने में |

दिन हो या रात

यदि हो कल्पना साथ

होता अंदाज अलग जीने का

अपने मनोभाव बुनने का |

आशा

20 दिसंबर, 2011

सुकून

जब भी मैंने मिलना चाहा

सदा ही तुम्हें व्यस्त पाया

समाचार भी पहुंचाया

फिर भी उत्तर ना आया |

ऐसा क्या कह दिया

या की कोइ गुस्ताखी

मिल रही जिसकी सजा

हो इतने क्यूँ ख़फा |

है इन्तजार जबाव का

फैसला तुम पर छोड़ा

हैं दूरियां फिर भी

फरियाद अभी बाकी है |
यूँ न बढ़ाओ उत्सुकता

कुछ तो कम होने दो

है मन में क्या तुम्हारे

मौन छोड़ मुखरित हो जाओ |

हूँ बेचैन इतना कि

राह देखते नहीं थकता

जब खुशिया लौटेंगी

तभी सुकून मिल पाएगा |

आशा

18 दिसंबर, 2011

पाषाण या बुझा अंगार


है कैसा पाषाण सा
भावना शून्य ह्रदय लिए
ना कोइ उपमा ,अलंकार
या आसक्ति सौंदर्य के लिए |
जब भी सुनाई देती
टिकटिक घड़ी की
होता नहीं अवधान
ना ही प्रतिक्रया कोई |
है लोह ह्रदय या शोला
या बुझा हुआ अंगार
सब किरच किरच हो जाता
या भस्म हो जाता यहाँ |
है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में |
ना उमंग ना कोई तरंग
लगें सभी ध्वनियाँ एकसी
हृदय में गुम हो जातीं
खो जाती जाने कहाँ |
कभी कुछ तो प्रभाव होता
पत्थर तक पिधलता है
दरक जाता है
पर है न जाने कैसा
यह संग दिल इंसान |
आशा




16 दिसंबर, 2011

कैसा अलाव कैसा जाड़ा


सर्दी का मौसम ,जलता अलाव

बैठे लोग घेरा बना कर

कोइ आता कोइ जाता

बैठा कोइ अलाव तापता |

आना जाना लगा रहता

फिर भी मोह छूट न पाता

क्यूँ कि कड़ी सर्दी से

है गहरा उसका नाता |

एक किशोर करता तैयारी

मार काम की उस पर भारी

निगाहें डालता ललचाई

पर लोभ संवरण कर तुरंत

चल देता अपने मार्ग पर |

कैसा अलाव कैसा जाड़ा

उसे अभी है दूर जाना

अब जाड़ा उसे नहीं सताता

है केवल काम से नाता |

आशा

14 दिसंबर, 2011

छुईमुई

बाग बहार सी सुन्दर कृति ,
अभिराम छवि उसकी |
निर्विकार निगाहें जिसकी ,
अदा मोहती उसकी ||
जब दृष्टि पड़ जाती उस पर ,
छुई मुई सी दिखती |
छिपी सुंदरता सादगी में,
आकृष्ट सदा करती ||
संजीदगी उसकी मन हरती,
खोई उस में रहती |
गूंगी गुडिया बन रह जाती ,
माटी की मूरत रहती ||
यदि होती चंचल चपला सी ,
स्थिर मना ना रहती |
तब ना ही आकर्षित करती ,
ना मेरी हो रहती ||
आशा


11 दिसंबर, 2011

अनूठा सौंदर्य


बांह फैलाए दूर तलक
बर्फ से ढकीं हिमगिर चोटियाँ
लगती दमकने कंचन सी
पा आदित्य की रश्मियाँ |
दुर्गम मार्ग कच्चा पक्का
चल पाना तक सुगम नहीं
लगा ऊपर हाथ बढाते ही
होगा अर्श मुठ्ठी में |
जगह जगह जल रिसाव
ऊपर से नीचे बहना उसका
ले कर झरने का रूप अनूप
कल कल मधुर ध्वनि करता |
जलधाराएं मिलती जातीं
झील कई बनती जातीं
नयनाभिराम छबी उनकी
मन वहीँ बांधे रखतीं |
कभी सर्द हवा का झोंका
झझकोरता सिहरन भरता
हल्की सी धुप दिखाई देती
फिर बादलों मैं मुंह छिपाती |
एकाएक धुंध हो गयी
दोपहर में ही शाम हो गयी
अब न दीखता जल रिसाव
ना ही झील ना घाटियाँ |
बस थे बादल ही बादल
काले बादल भूरे बादल
खाई से ऊपर आते बादल
आपस में रेस लगाते बादल
मन में जगा एक अहसास
होते हैं पैर बादलों के भी
आगे बढ़ने के लिए
आपस में होड़ रखते हैं
आगे निकलने के लिए |
आशा

10 दिसंबर, 2011

है नाम जिंदगी इसका


बोझ क्यूँ समझा है इसे
है नाम जिंदगी इसका
सोचो समझो विचार करो
फिर जीने की कोशिश करो |
यत्न व्यर्थ नहीं जाएगा
जिंदगी फूल सी होगी
जब समय साथ देगा
जीना कठिन नहीं होगा |
माना कांटे भी होंगे
साथ कई पुष्पों के
दे जाएगे कभी चुभन भी
इस कठिन डगर पर |
फिर भी ताजगी पुष्पों की
सुगंध उनके मकरंद की
साथ तुम्हारा ही देगी
तन मन भिगो देगी |
होगा हर पल यादगार
कम से कमतर होगा
कष्टों का वह अहसास
जो काँटों से मिला होगा |
सारा बोझ उतर जाएगा
छलनी नहीं होगा तन मन
कठिन नहीं होगा तब उठाना
इस फूलों भरी टोकरी को |
आशा