जाने का जब मन हुआ
मुंह उठा कर चल दिया
ठोकर लगी सम्हल न पाया
माँ की सीख याद आई
“नीचे देख सदा चलना “
निगाहें नीची कर चला
आगे देख नहीं पाया
टकराते टकराते बचा
पर चालाक ने शोर मचाया
"है अंधा क्या ?
जो आगे भी देख नहीं पाता "
किसी ने मुझे उठाया
और एक उपदेश थमाया
“देख कर दाएँ बाएँ
कदम बढ़ाना चाहिए
सड़क पर चलने के लिए
सतर्क होना चाहिए “
क्रोध मुझे बहुत आया
स्वयम पर
और आज की दुनिया पर
वर्जनाएं सहते सहते
मन मेरा फटने लगा
पैबंद भी कब तक लगाता
वही बातें सोच कर
मन विचलित होता जाता
जो चाहता हो न पाता
जीना दूभर हो गया
आज के इस दौर में
खुद में रमूं या जग की सुनूं
है कैसी दुविधा
जिससे उभर नहीं पाता |
आशा