बंधे रहना किसी के साथ
जीवन में इतना सरल नहीं
अपने आप को किसी के
अनुसार ढालना पड़ता है |
यदि अड़े रहे अपनी बातों पर
मझधार में हाथ छूट जाता
कोई नहीं सोचता कि किनारा
कहाँ होगा मिलेगा या नहीं |
पर तब तक देर हो चुकी होगी
समय लौट कर न आएगा
मन चाह बहुत दूर छूट जाएगा
मन को भारी कर जाएगा |
बंधन समाज के हों
या खुद के मन के
होते हैं बड़े अनमोल
यदि टूट गए फिर से
जुड़ नहीं पाते |
कोशिश जोड़ने की भी की यदि
मन में गठान रह ही जाती है
यह इतना त्रास देती है कि
धीरे धीरे नासूर बन जाती है |
जिसे सहना सरल नहीं होता
जीना तो पड़ता है पर
मर मर कर जीना भी
क्या जीना है |
आशा