28 अप्रैल, 2022

मासूम



 


भोला भाला मासूम सा चेहरा

न जाने कितने राज छिपे इसमें

पर नैन चंचल हिरनी से

करते उजागर मन के हर राज को |

जब मुस्कूराहट बाहर आना चाहती

कहीं कोई वर्जना झेलती

मन में दुबक कर रह जाती

 झलक उसकी दिखती नैनों में |

 प्यारे से दो नैना

 झुक जाते शर्मा कर 

रूमाल से नैना छिपाता 

वह भोला मासूम बालक | 

 पलकें झपक झपक जातीं मासूम की

 चाहता नहीं मन की गिरह खोलने को

 कुछ बोलने सुनने  को |

यही मासूमियत आकृष्ट करती

मुझे उस तक पहुँचाने के लिए

मिठास घुली होती उसकी बोली में

उसके अधर चूमना चाहती |

आशा  


27 अप्रैल, 2022

घर

 


एक छत के नीचे

कुछ लोगों के रहने  से

घर नहीं होता 

घर बनता है संस्कारी लोगों के एक साथ रहने से| 

 एक ही विचार के

लोग  जब एक साथ रहते

बड़े छोटे का लिहाह करते

संस्कारों से बंधे रहते रिश्तों को समझते 

सही माने में बने घर में रहते|

एक छत और चार दीवारों से

कभी घर नहीं होता

वहां रह कर भी साथ रहने वाले

अपनेपन से कोसों दूर रहें जब

उनका घर में रहना है बेकार

कभी सुख दुःख में साथ यदि न हो

तब कैसा घर और वहां रहने वाले |

सोच कर भी मन संतप्त होता है

 एक छत के नीचे रहने वाले

मिल बाँट कर खाने वाले

सुख दुःख में साथ देने वालों से ही

घर का एहसास होता |

घर चाहे कितना बढ़ा या छोटा हो

यदि प्रेम आपस में न हो  

चाहे सुख साधन हों य न हों

घर जाना जाता वहां रहने वालों से |

वहां जा कर जो सुकून मिलता है

दुनिया के किसी भाग में नहीं मिलता

मित्र भाव माता पिता का स्नेह भाई बहन का  वहीं मिल पाता जहां मेरा घर होता |

आशा

 

 

26 अप्रैल, 2022

कीमत मिट्टी की



कण कण मिट्टी का है बड़ा उपयोगी

किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया

हरियाली ने किसी का ध्यान आकृष्ट किया

तभी ख्याल आया इस का |

 मिट्टी हर पल ही उपयोगी होती

चाहे जिस रूप में भी हो

 बहुआयामी होते इसके करतब

जहां उपयोग की जाती

 अपना महत्व दर्शाती |  

पूजा के लिए दीपक बनाए जाते

स्नेह से भर दीप जलाए जाते 

वे जगमगाते  घर को रौशन करते

त्यौहार नहीं मन पाते इनके बिना |

 मटका ग्रीष्म ऋतु में जल 

 भरने के काम आता

कभी अनाज भी भरा जाता इसमें 

जाने कितनी आत्माएं तृप्त करता

जब उन्हें जल प्रदान करता

मिट्टी महिमा के बखान

 जितने भी करो कम है|

मानव जीवन  है आश्रित उस पर

खेती के बिना अनाज कहां से उपजता

जब उर्वरा मिट्टी होती

तभी यह संभव हो पाता |

पञ्च तत्व से बना मानव का  

जीवन भर अपने कार्यों में व्यस्त  रहता

अंत समय आते ही

फिर मिट्टी में मिल जाता|

मिट्टी में जन्मा खेला कूदा बड़ा हुआ

फिर नियति में जो लिखा था 

उसे पा संतुष्ट हुआ

यही विधि का विधान रहा |

 मिट्टी तो मिट्टी है

गुण इसके इतने हैं अधिक   

हर पग पर मानव के साथ होती है

पर्यावरण के संरक्षण में  |

आशा

  

25 अप्रैल, 2022

ख़ारा जल समुन्दर का


 

खारा जल समुन्दर का इतना

रहा बटोही प्यासा

प्यासा आया गया भी प्यासा ही 

मन में मलाल बढाया |

सोचा यूँ ही समय बर्बाद किया

जल की एक बूँद का भी यदि

उपयोग कर लिया होता

तनिक भी दुःख न होता |

पर फिर भी सोचा

क्या लाभ इतने खारे जल का

फिर घिरा अनगिनत सवालों से

उनके उत्तरों से |

देखा कई सवाल अभी भी थे अनुत्तरित

पर मिले उत्तरों से जो संतुष्टि मिली

मेरी क्षुधा  तृप्त हो पाई

मुझे अपनी जल्दबाजी पर हँसी आई |

किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में

जल्दबाजी किस लिए

यदि मन में धैर्य न हो

किसी को छेड़ना नहीं चाहिए |

आशा

संस्कार तुम्हारे

 


समय कुसमय को न देखा

बिना सोचे अनर्गल बोलते रहे

अरे यह क्या हुआ ?

क्या किसी ने न बरजा |

क्या हो समकक्ष सभी के

कोई बड़े छोटे का ख्याल नहीं

उम्र का तनिक भी लिहाज नहीं

भी ग्लानि  भी नहीं होती |

क्या आत्मा भी जड़ हुई तुम्हारी

या किसी गुरू की शिक्षा भी न मिली

या संस्कारों में कमीं रह गई

किसी ने न रोका टोका |

तुमने मन को दुःख पहुंचाया

मुझे यह कहने में  

असंतोष भी बहुत हुआ

लगा क्या तुम मेरे ही बेटे हो |

कल्पना न थी तुम

संस्कारों को  भूल जाओगे

आधुनिकता के साथ अपने

 चलन को भी तिलांजलि दोगे|

मुझे  बहुत शर्म आई

तुम दूर हुए कैसे उनसे

अपने दिए संस्कारों को न भूल पाई

कहाँ रही कमी आज तक न सोच पाई |

आशा  

 

24 अप्रैल, 2022

 

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इजहार -
इजहारेदिल किया उसने

बिना किसी संकोच के
प्रतिउत्तर में वह हारी बेचारी

कहा गया मुह फट उसे |

मन को किसी के आगे खोलना

अपनी बात का इजहार करना

कोई गुनाह है तब हाँ उसने गुनाह किया

पहले किसी ने बरजा नहीं उसे |

तब उसे स्पष्टवक्ता कहा जाता था

मन में जो सोचती थी

वही उसके शब्दों में झलकती थी

तारीफों की कमीं न थी तब

शब्दों की कमी हो जाती थी

उसके तारीफों के कशीदे पढ़ते |

पर अब कहा जाता है

तुम बच्ची नहीं हो जब मंह खोलो

सोच समझ कर बोला करो

अपनी हद न छोड़ा करो |

आशा

आशा

23 अप्रैल, 2022

पृथ्वी


                                                                    पृथ्वी  तो पृथ्वी है 

बहुरंगी सुन्दर सी 

 यहाँ सा स्वर्ग कहीं और  

कभी देखा नहीं |

 वैज्ञानिक जीते कल्पना में 

नए प्रयोग करते 

हल्का सा परिवर्तन 

जब भी देखते अन्तरिक्ष  में 

 महिमा मंडन उसका करते |

जब तक लोहा गर्म होता 

चोट हतौड़े की सहता 

उसके  ठंडा होने पर 

उसका अस्तित्व  है कहीं भूल जाते |

आज तक इस धरती पर 

कोई नया प्राणी  

आया नहीं अजनवी सा 

फिर कैसे कल्पना हो साकार |

 किसी  अन्य गृह पर 

जीवन का  होगा या 

जीव  रहते होंगे  पृथ्वी  की तरह 

लगती है केवल कल्पना |

कल्पना की उड़ान भी 

अच्छी लगती है 

पर कुछ तो तथ्य हो 

कभी नेत्रों को 

झलक मिली हो इनकी |

पृथ्वी सा स्वर्ग 

कभी न मिला 

आज तक वहां

  सारी कल्पना रहती 

कुछ दिन चर्चा में |

फिर कोई नाम तक 

  नहीं लेता उनका 

वे विस्मृत हो जातीं 

यहीं की गलियों में |

मेरी  एक ही बात

 समझ में आई है 

धरती से रमणीय

कोई  गृह नहीं आज तक |

आशा