शब्दों को चुन कर
सहेजा एकत्र किया
प्रेम के धागे में पिरो कर
माला बनाई प्यार से
सौरभ से स्निग्ध किया
खुशबू फैली सारे परिसर में |
धोया साहित्यिक विधा के जल से
अलंकारों से सजाया
मन से अद्भुद श्रृंगार किया
फिर तुम्हें पहनाया
उसे दिल से |
एक अद्भुद एहसास जागा मन में
हुई मगन तुममें
दीन दुनिया भूली
क्या तुम ने अनुभव
न किया यह दीवानापन
या जान कर भी अनजान रहे |
यह तो किसी प्रकार का न्याय नहीं
ना ही थी ऎसी अपेक्षा तुमसे
मन को दारुण दुःख हुआ
क्या कोई कमी रही
मेरे प्रयत्नों में|
यदि थोड़ा सा इशारा किया होता
मुझे यह अवमानना
न सहनी पड़ती
मेरी भावनाएं
तुम्हारे कदमों में होती|
मुक्तावली की शोभा
होती तुम्हारे कंठ में |
तुम हो आराध्य मेरे
यही है पर्याप्त मेरे लिए
कभी न कभी तो मेरी
फरियाद सुनोगे |
मुझे किसी से नहीं बांटना तुम्हें
तुम मेरे हो मेरे ही रहोगे |