19 दिसंबर, 2022

कर्मों का फल


 

 

  अपने  करते गैरों सा व्यबहार

 गैर का होता मनभावन  प्यार 

यह तो पता नहीं चलता

कौन अपना कौन पराया |

मन यही सोचता रहता

जो दिखावा होता

 उसे कैसे पहचाने

कहाँ से वह दृष्टि लाए

जो देखते ही जान ले

किसी के मन में क्या है |

मन में किसी के

 क्या पक रहा है

क्या खिलाड़ी पक रही है

अभी पूरी बनी या नहीं  |

इंसान कुछ नहीं करता

यही सब ईश्वर कराता

वह भावनाओं में बहता जाता

उसी के इशारे पर |

क्या यह   पूर्व जन्म के 

कर्मों का फल होता 

या इसी जन्म का अनजाने में 

कुछ कहा नहीं जा सकता |

आशा सक्सेना 

 

कोई किसी का नहीं होता


कोई किसी का नहीं होता 
केवल मतलब से सब होता 
मन को समझाया भी कितना
पर कुछ हल नजर ना आया |

बे रंग जीवन हुआ तुम्हारे बिना 

अब कोई कार्य शेष नहीं

अपने कर्तव्य पूर्ण किये सारे  

जिसमें व्यस्त हो मन को बहलाऊँ |

मन हुआ उदास आज

  अर्थ क्या बेबजह जीने का

पर यह भी हाथों में नहीं |

जिन्दगी की शाम उतर आई है

कैसे क्या होगा  

है सब तुम्हारे हाथ प्रभू

 भविष्य में क्या घटेगा |

  अकेले जीवन कैसे कटेगा  

छोड़ा मोह सब का फिर भी 

  भाग्य  में जाने  क्या लिखा है 

मुझे नहीं पता है |

आशा सक्सेना 

 

 

  


18 दिसंबर, 2022

जो किताबों में लिखा



                                                     जो भी किताबों में लिखा 

पढ़ न पाया 

न साथी रहा कोई   उसका 

  उसे मन ही मन दोहराए |

कुछ आत्मसात करे 

मस्तिष्क को समृद्ध करे 

 कोई यह तो न कहेगा

 उसे  कुछ भी नहीं आता |

रह जाता ज्ञान  अधूरा  उन के बिना 

  है किताबों से  लगाव  बहुत  

जब मन में संतुष्टि आई 

 मन  प्रसन्न  हुआ |

 किसी को  अंदाजा  ना हुआ 

  उसने  क्या पाया 

सब ने कहा वाह क्या बात है

 लगन हो तो ऐसे  हो |

कोई सुविधा न मिली फिर भी 

पीछे न रहा किसी से 

फिर भी अहम् न आया |

वह  अपने तक ही सीमित रहा  

 इसका भी गम न था उसको 

सभी आश्चर्य चकित थे 

यह कैसे हुआ |

ये दूरियाँ सब से किस लिए 

किसी को मालूम नहीं 

पुस्तकें रहीं घनिष्ठ मित्र उसकी 

  वही रहीं सहायक पर छूपी  रहीं  |

राज  जाहिर न किया सब के समक्ष 

वही थी सहायक   उसकी 

इस प्रगति में |

आशा सक्सेना 


17 दिसंबर, 2022

दीप शिखा


 शाम  हुई महफिल सजी

दीपक जला रौशन किया

आधी रात तक कवितायेँ सुनाई सुनाईं

जैसे जैसे रात गहराई

दीपक की बाती भी जली

पर उसे चैन कहाँ

तुम बिन महफिल सूनी दिखती

दीपक की लौ कभी तेज हो जाती कभी धीमी

 दीप  शिखा उतनी ही उग्र हो बनी रहती   

दीपक तले  तो अंधकार रहता 

पर पूरा कक्ष रौशन करता

 उसे इसकी खबर तक नही होती

कब वायु वेग ने प्रहार किया बाती बुझी

जब बोलती चिड़िया भोर होने की सूचना देती

वायु के झोंके से दीपक बुझने के कगार पर होता

पर उसे यह भान न होता 

भावनाओं में डूबी रहती अपनी पूरी क्षमता से

 अचानक परिवर्तन आता

 बाती  बुझ जाती उसकी 

शिखा जलती कुछ क्षण

महफिल का समापन होता आधी रात के बाद

पर उसका मन होता उदास

 वह दीप शिखा सी उग्र होती |


आशा सक्सेना 

15 दिसंबर, 2022

तुम कब आओगे

 

                                                                                                                                                                                                                                                         औ सांता तुम कब आओगे 
हमने \वर्ष भर इंतज़ार किया तुम्हारा
पिछ्ला साल इतना जल्दी बीता  
कितनी खट्टी मीठी यादों गई पिछले साल के  साथ  
बच्चे हुए उत्सुक घर की सफाई के लिए 
दो सप्ताह बीत गए हैं 
सुन्दर स्वच्छ घर बनाने में 
अब जुटे है अपनी  ही  सजावट में
क्रिसमस ट्री  ले आए है   हॉल में सजाने को
 प्रति दिन  उठते ही  एक बात होती है 
अब और क्या रहा काम रहा है 
कोई कमीं न रह जाए तुम्हारे स्वागत में |
नित नए प्लान बनाए जाते 
सोचा जाता तुम को है पसंद क्या 
 मुझे आदेश  दिया मां क्या मिठाई बनाओगी 
हम सांता को बड़े प्यार से खिलाएंगे 
वे भेट भी तो लाएंगे 
 इंतज़ार का समय बहुत मुश्किल से कट रहा 
तुमने  क्या छिपा कर रखा है उस झोले में 
मुझे भी व्यस्त किया है उन की चाहत पूर्ण करने में 
तुम कब आओगे |

आशा लता सक्सेना  




                                                                                                                                    

11 दिसंबर, 2022

समस्या मेरी

  






कर्तव्य मेरा भूल  चली मैं

बाँध किसी से डोर प्यार की

भूली अपने सारे कर्तव्य  

किस से पूंछूं  विचार न किया |

यही कष्ट रहा आज तक

मैं अपने कर्तव्य निभा न सकी

रही अनमनी हर समय

उलझी उलझी अपने में |

जिन्दगी की पेचीद्गी

से दूर नहीं हो पाई

क्या चाहा था क्या किया

कहीं सफल न हो पाई |

रह गई अधूरी तमन्ना मन में

 देख  न सकी दुर्दशा अपनी  

जीवन लगा भार सा अब तो

क्या यही नियति थी मेरी |

किसी ने हल ना की समस्या मेरी  

जीवन में किसी का स्थान नहीं था

अब खुद ही उलझी अपने में

कैसे निभा पाऊँगी  सब से |

 यही  दुविधा है मन में 

10 दिसंबर, 2022

प्यार की चाह

 

प्यार  की चाह

यदि प्यार की एक झलक भी

उसने  देखी होती खुशियाँ छातीं

जीवन में रवानी आ जाती

किसी बात में कमीं न रह पाती |

कभी सोचा न था उसने

गिरह में झाँक कर कभी देखा न था    

यह परिवर्तन आया  कैसे

 सूखे गुलाब से भी खुशबू कहीं गुम हो गई उसमें ज़रा भी गंध न रही

कहा तो जाता है गुलाब में हैं गुण अनेक  

वे कभी भी उपयोग में लाए जा सकते |

पर देखा कुछ और जो देखा  मन में

 मलाल आया बड़ा संताप हुआ

जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं

यही क्या कम है कि  वह है यहीं

पर सुगंध कहीं खो गई है |

यदि वह भी होती यहाँ कितना अच्छा होता

जीवन की गति तो कम हो जाती

पर ख़तम न हो पाती |

हुआ उसे एहसास की वह बेनूर हो गई 

मन की शान्ति उसकी कहीं खो गई

बारम्बार अपनी कमियाँ खोजने लगी

  उसके  मन को शांत न रख न पाई |

व्यर्थ ही उलझने बढ़ाई 

सामान्य नहीं  हो पाई

खुद को तो नष्ट किया  

अन्य को भी दुःख पहुंचाया

 चैन से जीने नहीं दिया |

आशा सक्सेना