अवकाश होते ही राह तुम्हारी देखी
दिन काटे ना कटता
रातें गुजरीं करवटें बदल
आशा निराशा में झूलती रही |
मन में शक पैदा हुआ
कहीं छुट्टिया तो नहीं हुई केंसिल तुम्हारी
कोई कार्य विशेष तो आया होगा
तभी तुम ना आ पाए अभी तक |
मैंने मन को समझाया
मुझे आत्मविश्वास पर भरोसा था
पर विश्वास से भी
समझोता कब तक करती |
दरवाजे की आहट हुई
कदम बढे उसे खोलने
जैसे ही तुम को देखा
मैं प्रसन्नता से हुई सराबोर |
खुशी इतनी बढी
कि अश्रुओं का सैलाब
बहने लगा द्रुत गति से
रही बेचैन अब न जाना ||
आशा सक्सेना