19 मार्च, 2011

दरकते रिश्ते


रिश्ते निभाना वही जानता है
जिसने उन्हें कभी पाला हों
गहराई से समझा हों
कभी मन से अपनाया हों |
होती है एक सीमा उनकी
निश्चित होती मर्यादा उनकी
यदि अधिक उन्हें खीचा जाए
असहनीय हों जाते हें
मन व्यथित कर जाते हैं |
होते नाजुक इतने कि
काँच से दरक जाते हें
उसने बहुत करीब से
दरकते रिश्तों को देखा है |
उन्हें किरच किरच हों
बिखरते भी देखा है
उनसे उपजे दर्द को
मन की गहराई मैं
उतरते देखा है |
पर कभी चेहरे पर
कोइ भाव नहीं देखा
लगती निर्विकार
दर्द से बहुत दूर ,
कुचले गए अरमानों पर
नंगे पाँव चल रही है
सुलगती आग से भी
ठंडक का अहसास दिला जाती है|
संसार से दूर बहुत
अपने आप में सिमट गयी है
वह कहीं खो गयी है
भौतिकता वादी दुनिया से
शायद दूर हो गयी है
अपने आप मैं गुम हो गयी है |

आशा

16 मार्च, 2011

वह जड़ सा हो गया


बदलता मौसम
बेमौसम बरसात
अस्त व्यस्त होता जीवन
फसलों पर भी होता कुठाराघात |
इस बूंदा बांदी से
कई मार्ग अवरुद्ध हो गए
मानो जाम लगा सड़कों पर
बंद के आवाहन से |
अल्प वर्षा या अति वर्षा
या कीटों के संक्रमण से
सारी फसल चौपट हो गयी
गहरा दर्द उसे दे गयी |
जब ऋण नहीं चुका पाया
मृत्यु के कगार तक आया
बड़ी योजनाओं के लाभ
चंद लोग ही उठा पाए |
बचत या अल्प बचत
या आधे पेट खा बचाया धन
जब मंहगाई की मार पड़ी
सारी योजना ध्वस्त हो गयी |
जाने कितने बजट आए
और आ कर चले गए
ना तो कोई उम्मीद जगी
ना ही राहत मिल पाई |
मुद्रा स्फीति की दर ने भी
अधिक ही मुंह फाड़ा
सब ने हाथ टेक दिए
विकल्प ना कोई खोज पाए |
मंहगाई और बढ़ गयी
बेरोजगार पहले से ही था
असह्य सब लगने लगा
और वह जड़ सा हो गया |

14 मार्च, 2011

कटु सत्य



यदि पहले से जानते
दुनिया कल्पना की ,
स्वप्नों की ,
होती है खोखली
है प्रेम डगर
काँटों से भरी ,
सोचते
दिमाग से
दिल लगाने से पहले |
कई मुखौटे लगाए
इसी चेहरे पर ,
उतारते गए उन्हें
कपड़ों की तरह
अपने सपने साकार
करने के लिये |
पहले था विश्वास ख़ुद पर
वह भी डगमगाने लगा
यथार्थ के सत्य
जान कर |
समझते थे खुद को
सर्व गुण संपन्न ,
वे गुण भी गुम हो गए
कठिन डगर पर चलके |
सम्हल भी ना पाए थे
सोच भी अस्पष्ट था
कि बढ़ती उम्र ने दी दस्तक
जीवन के दरवाजे पर |
सारी फितरत भूल गए
बस रह गए
कोल्हू का बैल बन कर
सारे सपने बिखर गए
प्रेम की डगर
पर चल कर |
चिंताएं घर की बाहर की
प्रति दिन सताती हैं
प्रेम काफूर हो गया है
कपूर की तरह |
बस ठोस धरातल
रह गया है
गाड़ी जिंदगी की
खींचने के लिए |

आशा



यथार्थ





काल चक्र अनवरत घूमता
रुकने का नाम नहीं लेता
है सब निर्धारित कब क्या होगा
पर मन विश्रान्ति नहीं लेता |
एकाएक जब विपदा आए
मन अस्थर होता जाए
तब लगता जीवन अकारथ
फिर भी मोह उससे कम नहीं होता |
प्राकृतिक आपदाएं भी
कहर ढाती आए दिन
बहुत कठिन होता
सामना उनका करना |
कोई भी दुर्घटना हो
या प्राकृतिक आपदा हो
कई काल कलवित हो जाते हैं
अनेकों घर उजाड जाते हैं |
जन धन हानि के दृश्य
मन में भय भर देते हैं
तब जीवन से मोह
व्यर्थ लगता है |
धन संचय या प्रशस्ति
लोभ माया का
या हो मोह खुद से
सभी व्यर्थ लगने लगते हैं |
भविष्य के लिए सजोए स्वप्न
छिन्न भिन्न हो जाते हैं
होता है क्षण भंगुर जीवन
यही यथार्थ समक्ष होता है |

आशा



12 मार्च, 2011

मेरी आँखों में बस गया है



मेरी आँखों में बस गया है
वह प्यारा सा भोला चेहरा
जो चाहता था ऊपर आना
पर चढ़ नहीं पाता था |
अपनीं दौनों बाहें पसार
लगा रहा था गुहार
जल्दी से नीचे आओ
मुझे भी ऊपर आना है
अपने साथ ले कर जाओ |
सूरज के संग खेलूंगा
चिड़ियों से दोस्ती करूँगा
दाना उन्हें खिलाऊंगा
फिर अपने घर ले जाऊंगा |
जब में बक्सा खोलूँगा
खिलौनों की दूकान लगा दूंगा
जो भी उन्हें पसंद होगा
वे सब उन्हें दे दूंगा |
उसकी भोली भाली बातें
दया भाव और दान प्रवृत्ति
देख लगा बहुत अपना सा
एक भूले बिसरे सपने सा |
वह समूह में रहना जानता है
पर उसकी है एक समस्या
अकेलापन उसे खलता है
घर में नितांत अकेला है |
माँ बापू की है मजबूरी
उस पर ध्यान न दे पाते
उसे पडोस में छोड़ जाते
जब भी वह देखता है
अपने पास बुलाता है |
अब तो खेल सा हो गया है
टकटकी लगा मैं
उसका इन्तजार करती हूँ
जैसे ही दीखता है
गोद में उठा लेती हूँ |
उसके चेहरे पर
भाव संतुष्टि का होता है
उस पर अधिक ही
प्यार आता है |
आशा





11 मार्च, 2011

वह खेलती होली


खेतों में झूमती बालियाँ गेहूं की
फूलों से लदी डालियाँ पलाश की
मद मस्त बयार संग चुहल उनकी
लो आ गया मौसम फागुन का |
महुए के गदराय फल
और मादक महक उनकी
भालू तक उन्हें खा कर
झूमते झामते चलते |

किंशुक अधरों का रंग लाल
गालों पर उड़ता गुलाल
हो जाते जब सुर्ख लाल
लगती है वह बेमिसाल |
चौबारे में उडती सुगंध
मधु मय ऋतु की उठी तरंग
मनचाहा पा हो गयी अनंग
गुनगुनाने लगी फाग आज |
भाषा मधुर मीठे बोल
चंचल चितवन दिल रख दे खोल
अपने रसिया संग
आज क्यूँ ना खेले फाग |
मन को छूती स्वर लहरी
और फाग का अपना अंदाज
नाचते समूह चंग के संग
रंग से हो सराबोर |
वह भीग जाती प्रेम रंग में
रंग भी ऐसा जो कभी न उतारे
तन मन की सुध भी बिसरा दे
वह खेलती होली
रसिया मन बसिया के संग |

आशा





10 मार्च, 2011

दंश का दर्द

कच्ची सड़क पर लगे पैर में कंटक
निकाल भी लिए
जो दर्द हुआ सह भी लिया |
पर हृदय में चुभे
शूल को निकालूँ कैसे
उसके दंश से बचूं कैसे |
जब हो असह्य वेदना
बहते आंसुओं के सैलाव को
रोकूं कैसे |
इस दंश का दर्द
जीवन पर्यन्त होना है
कैसे मुक्ति पाऊं उससे |
बिना हुए चोटिल
दोधारी तलवार पर चलना
और बच पाना उससे
होता है बहुत कठिन
पर असम्भव भी नहीं |
शायद वह भी सहन कर पाऊं
धरा सा धीरज रख पाऊं
और मुक्ति मार्ग पर चल पाऊं
बिना कोई तनाव लिए |

आशा