20 जनवरी, 2018

सागर का जल खारा








सागर का जल खारा
पर वह इससे भी न हारा
सोचा क्यूँ न इसीसे
प्यास बुझा ली जाए  
पहुँचा तट पर 
जल पीने को
 जैसे ही अंजुली भरी
मुँह तक उसे  ले कर आया
पर एक बूँद भी ना  पी  पाया
बहुत ही खारा उसे पाया
एक विचार मन में आया  
क्या फायदा ऐसे जल का
जब प्यासे को पानी न मिले 
हुआ बहुत उदास
 फिर सोचा कितने ही
जीव जंतुओं  का घर है यहाँ
उसे जल न मिला तो क्या
जलचरों को मिलता खाना
रहने को घर यहाँ
है बहुत महत्व इसका
वर्षा का स्रोत है यह
बादल जल पाते हैं इससे
पर्यावरण संतुलित होता जिससे |


आशा

17 जनवरी, 2018

रघुवर तुमसे मैं हारी



रघुवर तुमसे मैं हारी
अनुनय कभी न सुनी मेरी
 ना कोई दुःख ना असंतोष
पर फिर भी कहीं कोई कमी रही
जो खल रही मुझको
 जब से तुमसे दूरी पाली
 ऐसा कभी सोचा न था
क्यों तुमसे दूरी पाली 
अनुनय विनय और सभी जतन 
निकले थोथे  मैं हारी 
कोई राह दिखाओ मुझको 
रघुवर दूरी अब सही  न जाती |
आशा












16 जनवरी, 2018

अलाव


सर्द हवाओं के झोंकों से
 ठण्ड बढ़ी  ठिठुरते लोग
सड़क पार तम्बू में ठहरे 
फटे बिस्तर में दुबके लोग 
पर बच्चों की चंचल वृत्ति 
खींच लाई उन्हें सड़क पर 
जल्दी-जल्दी निकालीं
 छोटी-छोटी लकड़ियाँ
पोलीथीन में रखी सूखी पत्तियाँ
माचिस जलाई  आग लगाई 
की बहुत मशक्कत अलाव जलाने में 
धीरे-धीरे सुलगा अलाव 
धुआँ उठा लौ निकली 
चमकने लगे सुलगते अंगारे 
और बढ़ने लगी थोड़ी-थोड़ी गर्मी 
आ गयी चेहरों पर सुर्खी 
बच्चों के प्रयत्नों की ! 
जब आई बच्चों की आवाज़ 
झाँक कर बाहर देखा 
फेंकी चादर निकले बाहर 
देख कर जलता अलाव !
हुआ गर्व बालकों पर 
उनकी सूझ बूझ से
 कुछ तो राहत पाई 
आते जाते हाथ सेंकते 
सड़क पर चलते लोग 
और बढ़ जाती बच्चों की 
आँखों में चमक और अधरों पर मुस्कान ! 


आशा सक्सेना 



14 जनवरी, 2018

क्षणिकाएं



आपने अफसाना अपना सुनाया
सभी के दिलों को बहकाया
जब अपने पास बुलाया
कुछ पलों को थमता सा पाया
आपके शब्दों की कसक
कानों में गूंजती रही वर्षों तक !

दीप जलाया मन मंदिर में 
हवा के झोंके सह न सका
था बुझने के कगार पर
अंतर्वेदना तक प्रगट न कर पाया
कसमसाया भभका और बुझ गया |

नीला समुन्दर नीला आसमान 
धरती बहुरंगी इंद्र धनुष समान 
आशा उपजती इसे निहारने की 
समस्त रंग जीवन में उतारने की  |

मुझ से टकरा कर चले जाते हैं
न जाने क्या है मुझसे वैर उनका
न जाने की खबर देते हैंन आने कीआहट
 बस मन के तार छेड़ जाते हैं |...

बेचैन न हो धर धीर धरा की तरह 
सब कष्ट सहन करमना धरणी की तरह 
गुण सहनशीलता का होगा विकसित 
महक जिसकी होगी हरीतिमा कि तरह |

आशा

09 जनवरी, 2018

सकारात्मक सोच


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केवल अधिकारों की देते हैं जानकारी 
पर कर्तव्यविहीन हो रही सोच हमारी 
खुल कर बोलना है अधिकार हमारा 
कब बोलना, कहाँ बोलना व विवादों को 
देना निमंत्रण क्या दुरुपयोग नहीं ! 
हँसना हँसाना लगता तो है भला 
पर कटु भाषण और व्यंगाबाण 
मन पर करते प्रहार 
संतुलित आचरण रहा तो रिश्ते संवरें 
पर बिना बात के ताने 
मन की सुख शान्ति हर ले जाएँ 
है यह स्वयं का विवेक 
हम किस मार्ग पर जाएँ 
कहीं संस्कारविहीन नहीं हुए हों 
अच्छी सोच हो खिले पुष्पों की तरह 
जो खुद तो महके ही अपने 
आस पास को भी चमन बना दे
खुशबू दिग्दिगंत तक जाए ! 


आशा सक्सेना 






04 जनवरी, 2018

एक वादा खुद से




है वादा अपने आप से 
इस वर्ष के लिए 
है यह पहला वादा 
शायद यह तो पूरा 
कर ही सकते हैं ! 
अधिक की अपेक्षा नहीं की 
आज तक कभी
ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक !
यह कुछ कठिन तो नहीं ! 
बस खुद पर संयम ही 
काफी है इसके लिए ! 
नया कभी चाहा ही नहीं !
मन पर नियंत्रण से 
निकाल दो नकारात्मक 
विचारों को 
फिर देखो प्रभाव मन पर ! 


आशा सक्सेना 



31 दिसंबर, 2017

हे नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है !

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हे नव वर्ष 
तुम्हारा स्वागत मेरे दर पर 
कबसे राह तुम्हारी जोह रही 
बहुत स्नेह से आज को विदा किया है 
अब आई तुम्हारे स्वागत की बारी 
प्रथम करण आदित्य की 
बैठी पलक पसारे 
तुम्हारी बाट निहारे 
ओस कणों से पैर पखारे 
कोमल कोंपल वृक्ष वृन्द संग 
पलक पांवड़े बिछाए 
तन मन धन से करे स्वागत 
तुम्हें विशेष बनाए 
सारा साल खुशियों से भरा हो
भाईचारा आपस में रहे 
यही मेरा मन कहे 
सुख सम्पदा भरपूर रहे 
पूरी श्रद्धा से सम्पूर्ण वर्ष 
प्रसन्नता से भर जाए ! 

नव वर्ष की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाएं !

आशा सक्सेना  


25 दिसंबर, 2017

असंतोष





एक तो परिवार बड़ा
उस पर बेरोजगारी की मार
श्वास लेना भी है दूभर
आज के माहोल में
जीवन कटुता से भरा
कहीं प्रेम न ममता 
हर समय किसी न किसी की बात 
पर असंतोष ही उभरता मस्तिष्क  में
यूं ही छत पर
धीरे धीरे समय बीत जाता
 पञ्च तत्व में विलीन हो  जाता 
वह यादों में सिमिट कर रह जाता |
आशा

10 दिसंबर, 2017

असमंजस



वह झुकी-झुकी पलकों से 
कनखियों से देखती है 
बारम्बार तुम्हें !
हैं जानी पहचानी राहें 
पर भय हृदय में रहता है 
कहीं राह से दूरी न हो जाए !
कोई साथ नहीं देता बुरे समय में 
जब भी नज़र भर देखती है 
यही दुविधा रहती है 
कहीं राह न भूल जाए ! 
पर ऐसा नहीं होता 
भ्रम मात्र होता है ! 
भ्रमित मन भयभीत बना रहता 
जिससे उबरना है कठिन 
जब कोई नैनों की भाषा न पढ़ पाए
अर्थ का अनर्थ हो जाता !
इससे कैसे बच पायें 
है कठिन परीक्षा की घड़ी 
कहीं असफल न हो जाए 
जब सफलता कदम चूमे 
मन बाग़-बाग़ हो जाए 
जब विपरीत परीक्षाफल आये 
वह नतमस्तक हो जाए 
निगाहें न मिला पाए ! 


आशा सक्सेना 



07 दिसंबर, 2017

स्वप्न मेरे



हो तुम बाज़ीगर सपनों के 
जिन्हें तुम बेचते हो तमाशा दिखा कर 
मेरे पास है स्वप्नों का जखीरा 
क्या खरीदोगे कुछ उनमें से ?
पर जैसे हों वही दिखाना 
कोई काट छाँट नहीं करना  !
हर स्वप्न अनूठा है अपने आप में 
परिवर्तन मुझे रास नहीं आता  ! 
नए किरदार नए विचारों को 
संजोया है मैंने उनमें  !
बंद आँखों से तो अक्सर 
सपने देखे ही जाते हैं 
कुछ याद रह जाते हैं 
अधिकांश विस्मृत हो जाते हैं  !
खुली आँखों से देखे गए सपनों की 
बात है सबसे अलग  !
होते हैं वे सत्यपरक 
अनोखा अंदाज़ लिए ,
नवीन विचारों का सौरभ है उनमें  !
ऊँची उड़ान उनकी अनंत में 
बहुत रुचिकर है मुझे 
तभी वे हैं अति प्रिय मुझे ! 


आशा सक्सेना 



02 दिसंबर, 2017

फलसफा प्रजातंत्र का


बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती 
पालनार्थ आदेश पारित करती 
पर अर्थ का अनर्थ ही होता 
मंहगाई सर चढ़ बोलती 
नीति जनता तक जब पहुँचती 
अधिभार लिए होती 
हर बार भाव बढ़ जाते 
या वस्तु अनुपलब्ध होती 
पर यह जद्दोजहद केवल 
आम आदमी तक ही सीमित होती 
नीति निर्धारकों को 
छू तक नहीं पाती 
धनी और धनी हो जाते 
निर्धन ठगे से रह जाते 
बीच वाले मज़े लेते ! 
न तो दुःख ही बाँटते 
न दर्द की दवा ही देते 
ये नीति नियम किसलिए और 
किसके लिए बनते हैं 
आज तक समझ न आया ! 
प्रजातंत्र का फलसफा 
कोई समझ न पाया ! 
शायद इसीलिये किसीने कहा 
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे 
वर्तमान मन को न भाया !


आशा सक्सेना 




26 नवंबर, 2017

स्वीकार



व्यस्तता भरे जीवन में 
वह ऐसी खोई कि 
खुद को ही भूल गयी,
दिन और रात में 
ज़िंदगी एक ही सी हो गयी !
नहीं कोई परिवर्तन
आसपास रिक्तता का साम्राज्य 
और मस्तिष्क मशीन सा 
हुआ विचारों में मंदी का आलम 
ऐसा भी नहीं कि खुशियों ने 
कभी दी ही नहीं दस्तक 
मन के दरवाज़े पर 
लेकिन बंद द्वार 
न तो खुलता था ना ही खुला !
बाह्य आवरण 
जिसे उसने ओढ़ रखा था 
और सीमा पार करना वर्जित 
मन में झाँक कर देखा 
वह अकेली ही न थी ज़िम्मेदार 
आसपास की दुनिया भी तो थी 
उतनी ही गुनाहगार 
अब है बहुत उदास 
उदासी पीछा नहीं छोड़ती 
ना ही वह कोई परिवर्तन चाहती 
सब कुछ कर लिया है 
उसने अब स्वीकार ! 



17 नवंबर, 2017

सत्यानुरागी




मिलते हज़ारों में 
दो चार अनुयायी सत्य के 
सत्यप्रेमी यदा कदा ही मिल पाते 
वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते !
सदाचरण में होते लिप्त 
सद्गुणियों से शिक्षा ले 
उनका ही अनुसरण करते 
होते प्रशंसा के पात्र ! 

लेकिन असत्य प्रेमियों की भी 
इस जगत में कमी नहीं 
अवगुणों की माला पहने 
शीश तक न झुकाते 
अधिक उछल कर चले 
वैसे ही उनके मित्र मिलते 
लाज नहीं आती उन्हें 
किसी भी कुकृत्य में !

भीड़ अनुयाइयों की 
चतुरंगी सेना सी बढ़ती 
कब कहाँ वार करेगी 
जानती नहीं 
उस राह पर क्या होगा 
उसका अंजाम 
इतना भी पहचानती नहीं !

दुविधा में मन है विचलित 
सोचता है किधर जाए 
दे सत्य का साथ या 
असत्य की सेना से जुड़ जाए 
जीवन सुख से बीते 
या दुखों की दूकान लगे 
ज़िंदगी तो कट ही जाती है 
किसी एक राह पर बढ़ती जाती है  
परिणाम जो भी हो 
वर्तमान की सरिता के बहाव में 
कैसी भी समस्या हो 
उनसे निपट लेती है ! 


आशा सक्सेना 






06 नवंबर, 2017

आने को है बाल दिवस



हे कर्मवीर  
चाचा नेहरू तुम्हें 
मेरा प्रणाम 

रहे सक्रिय 
विविध रंग देखे 
राजनीति में 

नेहरू रहे 
गाँधी के अनुयायी 
आज़ादी चाही 

बाल दिवस 
चाचा नेहरू का है 
जन्म दिवस 

नेहरू जी ने 
दिया स्नेह अपार 
नन्हे मुन्नों को 

लाल गुलाब 
कोट की जेब पर 
सजा प्रेम से 

लुटाया प्यार 
देश के बच्चों पर 
अपरम्पार 

बालक मन 
सरिता सा निश्च्छल 
होता सरल 

धनुषाकार 
चंचल चितवन 
है विलक्षण 

जीत लेते हैं 
बच्चे सभी का मन 
भोली बातों से 

आने वाला है 
बच्चों को अति प्रिय 
बाल दिवस 



आशा सक्सेना 






29 अक्तूबर, 2017

दीपक और बाती



चौराहे पर चौमुख दीया 
दिग्दिगंत रौशन करता 
अपार प्रसन्नता होती 
जब यायावरों को राह दिखाता 
वायु के झोंके करते जब प्रहार 
झकझोर कर रख देते उसे 
बाती काँप जाती 
अपने को अक्षम पाती 
कभी तो घटती कभी बढ़ जाती 
वह दीपक से शिकायत करती 
अपने नीचे झाँको
है कितना अंधेरा तुम्हारे तले
है तुम्हारा कार्य 
भटकों को राह दिखाना 
परोपकार करते रहना 
पर क्या मिला बदले में तुम्हें ? 
दीपक ने सोचा क्षण भर के लिए 
कुछ मिला हो या न मिला हो 
जीता हूँ आत्म संतुष्टि के लिए 
किसी पर अहसान नहीं करता 
जब तुम हो मेरे साथ 
स्नेह से भरपूर ! 


आशा सक्सेना 


25 अक्तूबर, 2017

प्रलोभन



देने को बहुत कुछ है 
यदि हो विशाल हृदय
लेने के लिए होतीं 
वर्जनाएं बहुत 
दोनों हाथों से लिया जाता 
या फैला कर आँचल 
माँगा जाता 
समेटा जाता 
जितना उसमें समाता 
अधिक की इच्छा पूर्ण नहीं होती 
अधिक भरने पर 
सब बिखर जाता 
प्रलोभन में आकर 
इच्छा विकट रूप लेती 
पैर बहक जाते 
ग़लत मार्ग अपनाते 
असाध्य आकांक्षाओं की 
पूर्ति नहीं  होती तो 
पूर्ति के लिए राह भटक जाते 
जो दिल से धनवान होते 
वे ही दरिया दिल कहलाते ! 


आशा सक्सेना 



16 अक्तूबर, 2017

दीवाली इस वर्ष

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जब ज्योति जली 
विष्णुप्रिया के मंदिर में 
तम घटा घर के हर कोने का 
जगमग मन मंदिर हुआ 
रोशनी की चकाचौध में  !
पटाखों का शोर न थमता 
क्योंकि पहली पसंद हैं यह बच्चों की 
पर इस वर्ष लीक से हट कर 
देखी एक बात विशेष  ! 
मार्ग रहा साफ़ सुथरा 
फेंका कचरा सब एक तरफ 
क्या मालूम नहीं हम जुड़े हैं 
स्वच्छता अभियान से  ?
प्रति दिन सफाई करते हैं 
घर बाहर बुहारते हैं 
हमारे लिए है प्रति दिन दीपावली  !
आम आदमी जुड़ गया है 
इस अभियान से 
हर सुबह होती है इसके आग़ाज़ से  !
घर बाहर की स्वच्छता से 
मन प्रसन्न हो जाता 
एक ही दिन नहीं अब तो 
प्रति दिन दीपोत्सव मनाया जाता ! 


आशा सक्सेना 

09 अक्तूबर, 2017

पूनम का चाँद



शरद पूनम के चाँद सा मुखमंडल है 
उस पर स्निग्धता का भाव अनोखा है 
चन्द्र किरण की शीतलता का 
आनंद बहुत अनुपम है 
आनन पर मधुर मुस्कान है 
मौसम बड़ा हरजाई है 
काले लम्बे केशों की सर्पिणी सी चोटी 
कमर तक लहराई है 
हल्की सी जुम्बिश दी है उसने 
सरक कर चूनर मुख पर आई है 
ठंडक ने दस्तक दी है हल्की सी 
वायु के हलके से झोंके से 
नव ऋतु ने ली अंगड़ाई है 
दबे कदम शरद ऋतु आई है 
पौधों ने स्पर्श किया है 
पवन के इन झोंकों को 
उन्हें भी अहसास हुआ है 
इस परिवर्तन का 
हरसिंगार की पत्तियों पर 
ओस की बूँदें थिरक आई हैं 
नव चेतन की महक दूर से आई है 
खिली कलियाँ रात में 
फूलों पर बहार आई है 
शरद पूनम का चाँद देखा है जबसे 
निगाहों में उसकी ही छवि समाई है ! 


आशा  सक्सेना 





05 अक्तूबर, 2017

मधुर झंकार

एकांत पलों में 
जाने कब मन वीणा की 
हुई मधुर झंकार 
कम्पित हुए तार 
सितार के मन लहरी के 
पर शब्द रहे मौन 
जीवन गीत के !
जिसने जिया 
उदरस्थ किया उन पलों को 
जीने का मकसद मिल गया 
सुन उस मधुर धुन को ! 
थिरकन हुई कदमों में 
तारों के कम्पन से 
हर कण में बसी 
उत्साह की भावना 
रच बस गयी मन में 
जगा आत्म विश्वास 
उस पल पर टिका कर 
सफलता की सीढ़ी चढ़ी
अब वह जीता है 
उन्हीं पलों की याद में 
जो मुखर तो न हो सके 
पर रच बस गए 
उसके अंतस में ! 


आशा सक्सेना 





01 अक्तूबर, 2017

आज का रावण



हुआ प्रभात कुछ ऐसा 
हर व्यक्ति रावण हुआ 
दस शीश सब में हैं 
कुछ सद्बुद्धि से प्रेरित 
कुछ दुर्बुद्धि में लिप्त 
जब जिसका प्रभाव ज्यादह 
वैसा ही कर्मों का बोलबाला 
मद, मत्सर, माया में लिप्त 
अनुचित कार्य करने में प्रवीण 
आधुनिक रावण घूमते यहाँ वहाँ
समाज पर तीखा वार करने से 
वे नहीं चूकते हर बार 
इस वर्ष भी रावण दहन 
बुराइयों पर विजय पाने की कोशिश में 
बड़े जोश से किया गया दशानन दहन 
पर हुआ कितना कारगर 
एक रावण नष्ट हुआ तभी 
अन्य का हुआ जन्म 
रावणों की संख्या बढ़ रही 
दिन दूनी रात चौगुनी 
अनाचार ने सर उठाया 
अधिक बदतर आलम हुआ ! 


आशा सक्सेना