11 सितंबर, 2021

विभावरी


 

लगती बड़ी सुहानी विभावरी 

चमकते दमकते छोटे बड़े

तारों के संग व्योम  में  

धवल चन्द्र की रौशनी भी संग होती |

जब नीला आसमान होता

संध्या होती  अंधियारा बढ़ने लगता

तारे  पूरे जोश से आते

 लेकर सब छोटे बड़ों को संग |

कभी जब काले भूरे बादल आते

लुका छिपी का खेल होता

पर अधिक समय नहीं

जल्दी से बदरा आगे बढ़ जाते |

फिर आसमा में एकाधिकार होता

चमकते दमकते तारों का |

उनकी रौशनी इतनी होती 

स्पष्ट मार्ग दिखाई देता पथिकों को  

खाली सड़क पर विचरण का

अनूठा ही आनंद होता |

आधी रात गुजरते ही

खिलने लगते पुष्प पारिजात के

भोर की बेला में झरने लगते

श्वेत चादर बिछ जाती वृक्ष तले |

दृश्य बड़ा मनोरम होता

मन को सुकून  से भर देता

महक भीनी भीनी सी

  दूना कर देती विभावरी में |

आशा

10 सितंबर, 2021

है अस्तित्व तुम्ही से मेरा


 

है अस्तित्व तुम्ही से मेरा


जब भी खोजा जानना चाहा


तारों भरी रात में खुद को


पहचानना चाहा |


ढूँढूं कैसे अपना घर वहां


 कोई पहचान न  छोडी तुमने


कैसे पाऊंगी उसे वहां |


तुम हो दीपक मैं बाती

 

फिर भी स्नेह बिना


 खुद को अधूरा पाती


 आसपास ही खोजती रही उसे |


 खोज पाती यदि उसको

   

तनिक भी जीती यदि रौशनी करती

   

 फिर लौ धीमी होती जाती 

मंद हवा का झोका आता

साथ साथ लहरारी उसके 


जब वायु वेग तीव्र होता


लौ अचानक भभकती बुझने लगती 

यही अंतिम पल होते मेरे अपने  

इस भवसागर में  

मैं तुम को याद करती भूल पाती

 

 लेती अंतिम साँस जब


ॐ निकलता मुंह से


 फिर न लौट पाती |

आशा

वर्ण पिरामिड

 

                        है

                मुझे

 
                
लगाव

                तुम से ही

                किसी से नहीं

                यह मैने  देखा

               यह किस कारण

                 सोच पाती किस तरह  

              अब यही  सोचना होगा

              हो

              तुम

              मेरे ही

              न किसी का

             अधिकार है

              तुम्हारे ऊपर 

                तुम उपहार नहीं    

            जो दिए जाओ उसको ही

              हैं

             यह

             सृष्टि का

              उपहार  

           तुमने पाया

          बहुत खुशी से

          अपनाया है उसे

           समग्र ही मनोयोग से 

           



        आशा 

09 सितंबर, 2021

श्री गणेश वन्दना

 



   हे गजानन हे विघ्नहरण 

सुख करता दुःख हरता

प्रथम पूज्य गौरी नंदन

लम्बोदर विघ्न हरता |

है मूषक वाहन तुम्हारा

रिद्धि सिद्धि के स्वामी

लाभ शुभ संतति के जनक

सब की विनती सुनते स्वामी |

उसका हल पलों में करते

 अरज सुनों मेरी  कभी तो ध्यान दो

मैं आई शरण तुम्हारी

 दान बड़ा कोई  न चाहूँ  

 दृष्टि तुम्हारे उपकार की ही है पर्याप्त |

मुझे धन धान्य की चाह नहीं

 सर पर वरद हस्त तुम्हारा चाहती

 सारे कार्य मेरे  होते सफल

 सरल सहज तुम्हारे आने से |

 तुम्हारे आशीष से बढ़ा आत्मविश्वास मेरा  

दृढ संकल्प से सभी कार्य

 होते संपन्न विधि विधान से

घर भरा पूरा है सुख सम्पदा से |

हे मोदकप्रिय प्रथम पूज्य लम्बोदर

मोदक भोग लगाया मैंने की आरती

 सबकी अरज  सुनने वाले    

नमन तुम्हें हे सिद्धि विनायक |

गजानन गणेश जल्दी से आओ

बहुत इंतज़ार अब सहन न होता

सूना लगता स्थापना स्थल तुम्हारा

हे एक दन्त तुम्हारे बिना  |

आशा 

08 सितंबर, 2021

सफलता


 


कोई कार्य सरल नहीं करने को

पर असंभव भी नहीं

यदि एकाग्र  चित्त हो  करना चाहो

हो उत्साह उसे करने का |

जब भी कोशिश हो मन से

दिल्ली दूर नहीं होती

कार्य सरल हो जाते दिल से

 करने वाले के लिए |

मन में है विश्वास आवश्यक

दूसरा साहस तीसरी  लगन 

सभी आवश्यक कार्य पूर्ती के लिए

उसमें सफल होने के लिए | 

उसी के कदम चूमें सफलता ने 

जिसने असफलता से भय न पाला 

बार बार गिर गिर कर सम्हला 

यही सही किया उसने  | 

आशा 








आशा 

वर्ण पिरामिड

 

            


                       है

     यही

    हमारा

   हमदम

    गीत गा रहा

    उसके नाम का

   कहना नहीं है यह

      दीपक स्नेह  बाती यही  

      


      वे 

       यही 

      देखते

     रह गए 

      दुलार स्नेह  

    उसके मन का

    पर कह न पाए

   यह किसको कहते

   करके बड़ा मनुहार


      है 

            यह   

    जमीन

   अपनी ही

 नाम भारत

  कितना सफल

 है प्रजातंत्र यहाँ 

सफल  रहा   कितना

 यही आकलन होना है  

आशा 


 

  

07 सितंबर, 2021

दो नन्हीं महमान आई घर में


 मेरे घर आईं दो नन्हीं महमान 
 दूध सी धवल रुई सी कोमल 

बहुत ही  नाजुक  टेडीवीअर सी  

श्वेत  फर  की चादर ओढ़े दीखतीं  |

आखों में गहराई झील सी

 जिनका  रंग नीला आसमान सा 

मन प्रसन्न हो जाता 

जी चाहता देखती रहूँ उन्हें |

 उछल कर चलते दोड़ते

म्याऊं म्याऊँ करते पंजे मारते 

हैं इतनी मीठी स्वर लहरी  

मानो  शिक्षा मिली है उन्हें जन्म से  

धीरे बोलो अपने  स्वर को पहले तोलो 

रहती  चहल पहल पूरे धर में  

जैसे आई बहार हो   फूलों  की बगियाँ में 

अगले कमरे में अपना अड्डा बना लिया है 

सोफे पर  आजाती हैं  कूद कर

  थकते ही   पैर तान कर सो जाती हैं |

आशा