31 दिसंबर, 2017

हे नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है !

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हे नव वर्ष 
तुम्हारा स्वागत मेरे दर पर 
कबसे राह तुम्हारी जोह रही 
बहुत स्नेह से आज को विदा किया है 
अब आई तुम्हारे स्वागत की बारी 
प्रथम करण आदित्य की 
बैठी पलक पसारे 
तुम्हारी बाट निहारे 
ओस कणों से पैर पखारे 
कोमल कोंपल वृक्ष वृन्द संग 
पलक पांवड़े बिछाए 
तन मन धन से करे स्वागत 
तुम्हें विशेष बनाए 
सारा साल खुशियों से भरा हो
भाईचारा आपस में रहे 
यही मेरा मन कहे 
सुख सम्पदा भरपूर रहे 
पूरी श्रद्धा से सम्पूर्ण वर्ष 
प्रसन्नता से भर जाए ! 

नव वर्ष की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाएं !

आशा सक्सेना  


25 दिसंबर, 2017

असंतोष





एक तो परिवार बड़ा
उस पर बेरोजगारी की मार
श्वास लेना भी है दूभर
आज के माहोल में
जीवन कटुता से भरा
कहीं प्रेम न ममता 
हर समय किसी न किसी की बात 
पर असंतोष ही उभरता मस्तिष्क  में
यूं ही छत पर
धीरे धीरे समय बीत जाता
 पञ्च तत्व में विलीन हो  जाता 
वह यादों में सिमिट कर रह जाता |
आशा

10 दिसंबर, 2017

असमंजस



वह झुकी-झुकी पलकों से 
कनखियों से देखती है 
बारम्बार तुम्हें !
हैं जानी पहचानी राहें 
पर भय हृदय में रहता है 
कहीं राह से दूरी न हो जाए !
कोई साथ नहीं देता बुरे समय में 
जब भी नज़र भर देखती है 
यही दुविधा रहती है 
कहीं राह न भूल जाए ! 
पर ऐसा नहीं होता 
भ्रम मात्र होता है ! 
भ्रमित मन भयभीत बना रहता 
जिससे उबरना है कठिन 
जब कोई नैनों की भाषा न पढ़ पाए
अर्थ का अनर्थ हो जाता !
इससे कैसे बच पायें 
है कठिन परीक्षा की घड़ी 
कहीं असफल न हो जाए 
जब सफलता कदम चूमे 
मन बाग़-बाग़ हो जाए 
जब विपरीत परीक्षाफल आये 
वह नतमस्तक हो जाए 
निगाहें न मिला पाए ! 


आशा सक्सेना 



07 दिसंबर, 2017

स्वप्न मेरे



हो तुम बाज़ीगर सपनों के 
जिन्हें तुम बेचते हो तमाशा दिखा कर 
मेरे पास है स्वप्नों का जखीरा 
क्या खरीदोगे कुछ उनमें से ?
पर जैसे हों वही दिखाना 
कोई काट छाँट नहीं करना  !
हर स्वप्न अनूठा है अपने आप में 
परिवर्तन मुझे रास नहीं आता  ! 
नए किरदार नए विचारों को 
संजोया है मैंने उनमें  !
बंद आँखों से तो अक्सर 
सपने देखे ही जाते हैं 
कुछ याद रह जाते हैं 
अधिकांश विस्मृत हो जाते हैं  !
खुली आँखों से देखे गए सपनों की 
बात है सबसे अलग  !
होते हैं वे सत्यपरक 
अनोखा अंदाज़ लिए ,
नवीन विचारों का सौरभ है उनमें  !
ऊँची उड़ान उनकी अनंत में 
बहुत रुचिकर है मुझे 
तभी वे हैं अति प्रिय मुझे ! 


आशा सक्सेना 



02 दिसंबर, 2017

फलसफा प्रजातंत्र का


बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती 
पालनार्थ आदेश पारित करती 
पर अर्थ का अनर्थ ही होता 
मंहगाई सर चढ़ बोलती 
नीति जनता तक जब पहुँचती 
अधिभार लिए होती 
हर बार भाव बढ़ जाते 
या वस्तु अनुपलब्ध होती 
पर यह जद्दोजहद केवल 
आम आदमी तक ही सीमित होती 
नीति निर्धारकों को 
छू तक नहीं पाती 
धनी और धनी हो जाते 
निर्धन ठगे से रह जाते 
बीच वाले मज़े लेते ! 
न तो दुःख ही बाँटते 
न दर्द की दवा ही देते 
ये नीति नियम किसलिए और 
किसके लिए बनते हैं 
आज तक समझ न आया ! 
प्रजातंत्र का फलसफा 
कोई समझ न पाया ! 
शायद इसीलिये किसीने कहा 
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे 
वर्तमान मन को न भाया !


आशा सक्सेना 




26 नवंबर, 2017

स्वीकार



व्यस्तता भरे जीवन में 
वह ऐसी खोई कि 
खुद को ही भूल गयी,
दिन और रात में 
ज़िंदगी एक ही सी हो गयी !
नहीं कोई परिवर्तन
आसपास रिक्तता का साम्राज्य 
और मस्तिष्क मशीन सा 
हुआ विचारों में मंदी का आलम 
ऐसा भी नहीं कि खुशियों ने 
कभी दी ही नहीं दस्तक 
मन के दरवाज़े पर 
लेकिन बंद द्वार 
न तो खुलता था ना ही खुला !
बाह्य आवरण 
जिसे उसने ओढ़ रखा था 
और सीमा पार करना वर्जित 
मन में झाँक कर देखा 
वह अकेली ही न थी ज़िम्मेदार 
आसपास की दुनिया भी तो थी 
उतनी ही गुनाहगार 
अब है बहुत उदास 
उदासी पीछा नहीं छोड़ती 
ना ही वह कोई परिवर्तन चाहती 
सब कुछ कर लिया है 
उसने अब स्वीकार ! 



17 नवंबर, 2017

सत्यानुरागी




मिलते हज़ारों में 
दो चार अनुयायी सत्य के 
सत्यप्रेमी यदा कदा ही मिल पाते 
वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते !
सदाचरण में होते लिप्त 
सद्गुणियों से शिक्षा ले 
उनका ही अनुसरण करते 
होते प्रशंसा के पात्र ! 

लेकिन असत्य प्रेमियों की भी 
इस जगत में कमी नहीं 
अवगुणों की माला पहने 
शीश तक न झुकाते 
अधिक उछल कर चले 
वैसे ही उनके मित्र मिलते 
लाज नहीं आती उन्हें 
किसी भी कुकृत्य में !

भीड़ अनुयाइयों की 
चतुरंगी सेना सी बढ़ती 
कब कहाँ वार करेगी 
जानती नहीं 
उस राह पर क्या होगा 
उसका अंजाम 
इतना भी पहचानती नहीं !

दुविधा में मन है विचलित 
सोचता है किधर जाए 
दे सत्य का साथ या 
असत्य की सेना से जुड़ जाए 
जीवन सुख से बीते 
या दुखों की दूकान लगे 
ज़िंदगी तो कट ही जाती है 
किसी एक राह पर बढ़ती जाती है  
परिणाम जो भी हो 
वर्तमान की सरिता के बहाव में 
कैसी भी समस्या हो 
उनसे निपट लेती है ! 


आशा सक्सेना 






06 नवंबर, 2017

आने को है बाल दिवस



हे कर्मवीर  
चाचा नेहरू तुम्हें 
मेरा प्रणाम 

रहे सक्रिय 
विविध रंग देखे 
राजनीति में 

नेहरू रहे 
गाँधी के अनुयायी 
आज़ादी चाही 

बाल दिवस 
चाचा नेहरू का है 
जन्म दिवस 

नेहरू जी ने 
दिया स्नेह अपार 
नन्हे मुन्नों को 

लाल गुलाब 
कोट की जेब पर 
सजा प्रेम से 

लुटाया प्यार 
देश के बच्चों पर 
अपरम्पार 

बालक मन 
सरिता सा निश्च्छल 
होता सरल 

धनुषाकार 
चंचल चितवन 
है विलक्षण 

जीत लेते हैं 
बच्चे सभी का मन 
भोली बातों से 

आने वाला है 
बच्चों को अति प्रिय 
बाल दिवस 



आशा सक्सेना 






29 अक्टूबर, 2017

दीपक और बाती



चौराहे पर चौमुख दीया 
दिग्दिगंत रौशन करता 
अपार प्रसन्नता होती 
जब यायावरों को राह दिखाता 
वायु के झोंके करते जब प्रहार 
झकझोर कर रख देते उसे 
बाती काँप जाती 
अपने को अक्षम पाती 
कभी तो घटती कभी बढ़ जाती 
वह दीपक से शिकायत करती 
अपने नीचे झाँको
है कितना अंधेरा तुम्हारे तले
है तुम्हारा कार्य 
भटकों को राह दिखाना 
परोपकार करते रहना 
पर क्या मिला बदले में तुम्हें ? 
दीपक ने सोचा क्षण भर के लिए 
कुछ मिला हो या न मिला हो 
जीता हूँ आत्म संतुष्टि के लिए 
किसी पर अहसान नहीं करता 
जब तुम हो मेरे साथ 
स्नेह से भरपूर ! 


आशा सक्सेना 


25 अक्टूबर, 2017

प्रलोभन



देने को बहुत कुछ है 
यदि हो विशाल हृदय
लेने के लिए होतीं 
वर्जनाएं बहुत 
दोनों हाथों से लिया जाता 
या फैला कर आँचल 
माँगा जाता 
समेटा जाता 
जितना उसमें समाता 
अधिक की इच्छा पूर्ण नहीं होती 
अधिक भरने पर 
सब बिखर जाता 
प्रलोभन में आकर 
इच्छा विकट रूप लेती 
पैर बहक जाते 
ग़लत मार्ग अपनाते 
असाध्य आकांक्षाओं की 
पूर्ति नहीं  होती तो 
पूर्ति के लिए राह भटक जाते 
जो दिल से धनवान होते 
वे ही दरिया दिल कहलाते ! 


आशा सक्सेना 



16 अक्टूबर, 2017

दीवाली इस वर्ष

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जब ज्योति जली 
विष्णुप्रिया के मंदिर में 
तम घटा घर के हर कोने का 
जगमग मन मंदिर हुआ 
रोशनी की चकाचौध में  !
पटाखों का शोर न थमता 
क्योंकि पहली पसंद हैं यह बच्चों की 
पर इस वर्ष लीक से हट कर 
देखी एक बात विशेष  ! 
मार्ग रहा साफ़ सुथरा 
फेंका कचरा सब एक तरफ 
क्या मालूम नहीं हम जुड़े हैं 
स्वच्छता अभियान से  ?
प्रति दिन सफाई करते हैं 
घर बाहर बुहारते हैं 
हमारे लिए है प्रति दिन दीपावली  !
आम आदमी जुड़ गया है 
इस अभियान से 
हर सुबह होती है इसके आग़ाज़ से  !
घर बाहर की स्वच्छता से 
मन प्रसन्न हो जाता 
एक ही दिन नहीं अब तो 
प्रति दिन दीपोत्सव मनाया जाता ! 


आशा सक्सेना 

09 अक्टूबर, 2017

पूनम का चाँद



शरद पूनम के चाँद सा मुखमंडल है 
उस पर स्निग्धता का भाव अनोखा है 
चन्द्र किरण की शीतलता का 
आनंद बहुत अनुपम है 
आनन पर मधुर मुस्कान है 
मौसम बड़ा हरजाई है 
काले लम्बे केशों की सर्पिणी सी चोटी 
कमर तक लहराई है 
हल्की सी जुम्बिश दी है उसने 
सरक कर चूनर मुख पर आई है 
ठंडक ने दस्तक दी है हल्की सी 
वायु के हलके से झोंके से 
नव ऋतु ने ली अंगड़ाई है 
दबे कदम शरद ऋतु आई है 
पौधों ने स्पर्श किया है 
पवन के इन झोंकों को 
उन्हें भी अहसास हुआ है 
इस परिवर्तन का 
हरसिंगार की पत्तियों पर 
ओस की बूँदें थिरक आई हैं 
नव चेतन की महक दूर से आई है 
खिली कलियाँ रात में 
फूलों पर बहार आई है 
शरद पूनम का चाँद देखा है जबसे 
निगाहों में उसकी ही छवि समाई है ! 


आशा  सक्सेना 





05 अक्टूबर, 2017

मधुर झंकार

एकांत पलों में 
जाने कब मन वीणा की 
हुई मधुर झंकार 
कम्पित हुए तार 
सितार के मन लहरी के 
पर शब्द रहे मौन 
जीवन गीत के !
जिसने जिया 
उदरस्थ किया उन पलों को 
जीने का मकसद मिल गया 
सुन उस मधुर धुन को ! 
थिरकन हुई कदमों में 
तारों के कम्पन से 
हर कण में बसी 
उत्साह की भावना 
रच बस गयी मन में 
जगा आत्म विश्वास 
उस पल पर टिका कर 
सफलता की सीढ़ी चढ़ी
अब वह जीता है 
उन्हीं पलों की याद में 
जो मुखर तो न हो सके 
पर रच बस गए 
उसके अंतस में ! 


आशा सक्सेना 





01 अक्टूबर, 2017

आज का रावण



हुआ प्रभात कुछ ऐसा 
हर व्यक्ति रावण हुआ 
दस शीश सब में हैं 
कुछ सद्बुद्धि से प्रेरित 
कुछ दुर्बुद्धि में लिप्त 
जब जिसका प्रभाव ज्यादह 
वैसा ही कर्मों का बोलबाला 
मद, मत्सर, माया में लिप्त 
अनुचित कार्य करने में प्रवीण 
आधुनिक रावण घूमते यहाँ वहाँ
समाज पर तीखा वार करने से 
वे नहीं चूकते हर बार 
इस वर्ष भी रावण दहन 
बुराइयों पर विजय पाने की कोशिश में 
बड़े जोश से किया गया दशानन दहन 
पर हुआ कितना कारगर 
एक रावण नष्ट हुआ तभी 
अन्य का हुआ जन्म 
रावणों की संख्या बढ़ रही 
दिन दूनी रात चौगुनी 
अनाचार ने सर उठाया 
अधिक बदतर आलम हुआ ! 


आशा सक्सेना 




27 सितंबर, 2017

उपवन का माली



है बागबान वह इस उपवन का 
किया जिसने समर्पित 
रोम रोम अपना 
इस उपवन को ! 
बचपन यहीं खेल कर बीता 
यौवन में यहीं कुटिया छाई ! 
हर वृक्ष, लता और पौधों से 
है आत्मीयता उसकी 
हर पत्ते से वह संभाषण करता 
उनसे अपना स्नेह बाँटता 
है उपवन सूना उसके बिना 
डाली डाली पहचानती स्पर्श उसका 
जब फलों की बहार आयेगी 
तब तक क्षीण हो चुकी होगी काया 
अपनी उम्र का अंतिम पड़ाव
वह पार कर लेगा 
मिट्टी से बनी काया 
मिट्टी में समाहित हो जायेगी 
लेकिन आत्मा उसकी उपवन में 
रची बसी होगी ! 
जब नया माली आयेगा 
उससे ही साक्षात्कार करेगा 
उपवन की महक 
जब दूर दूर तक पहुँचेगी 
अपनी ओर आकर्षित करेगी 
 उसकी यादें भूल न पायेंगे ! 
है वह अदना सा माली 
लेकिन यादें उसकी 
सदा अमर रहेंगी ! 



आशा सक्सेना


21 सितंबर, 2017

बहुरंगी हाइकू



माता की कृपा 
रहती सदा साथ 
मेरी रक्षक 

स्पर्श माता का 
बचपन लौटाता 
यादें सजाता 

माँ का आशीष 
शुभ फलदायक 
हो शिरोधार्य 

माँ की ममता 
व पिता का दुलार 
दिखाई न दे 

माँ की ऊँगली 
डगमगाते पाँव 
दृढ़ सहारा 

माता के साथ 
बालक चल दिया 
विद्या मंदिर 

जीवन भर 
कभी न करी सेवा 
अब श्राद्ध क्यों 

मन की पीड़ा 
बस पीड़ित जाने 
और न कोई 

सच में होता 
ऐसा ही परिवार 
सोचती हूँ मैं 


आशा सक्सेना 


17 सितंबर, 2017

अनुरागी मन



है सौभाग्य चिन्ह मस्तक पर
बिंदिया दमकती भाल पर
हैं नयन तुम्हारे मृगनयनी
सरोवर में तैरतीं कश्तियों से
तीखे नयन नक्श वाली
तुम लगतीं गुलाब के फूल सी
है मधुर मुस्कान तुम्हारे अधरों पे
लगती हो तुम अप्सरा सी
हाथों में रची मेंहदी गहरी 
कलाई में खनक रहे कंगना 
कमर पर करधन चमक रही 
मोह रहा चाँदी का गुच्छा 
पैरों में पायल की छनक 
अनुरागी मन चला आता है 
दूर दूर तक तुम्हें खोजता 
छोड़ नहीं पाता तुम्हें !



आशा सक्सेना




11 सितंबर, 2017

जीवन संगीत


जब स्वर आपस में टकराएँ 
कर्कश ध्वनि अनंत में बिखरे 
पर जब स्वर नियमबद्ध हो 
गुंजन मधुर हो जाए !
यही मधुरता 
गूंजने लगे चहुँ दिशि
मन में मिश्री घुल जाए 
और पूर्ण कृति हो जाए ! 
मनोभाव शब्दों में उतर कर 
कुछ नया सोच 
दिल को छुए 
मधुर संगीत का हो सृजन 
उदासी आनंद में बदल जाए ! 
प्यार, प्रेम का जन्म हो 
अद्भुत पलों का हो अहसास 
जीवन में संगीत ही संगीत हो 
हर पल, हर लम्हा 
संवर जाए ! 

आशा सक्सेना  

04 सितंबर, 2017

गुरु की शिक्षा





तुम शिक्षक
हो तो वेतन भोगी
लेकिन दानी

माता के बाद
हे ज्ञान दाता गुरु
तुम्हें नमन

आपसे मिली
शिक्षा की धरोहर
अमूल्य निधि

हूँ जो आज मैं
आपका आशीष है
चरण स्पर्श

ज्ञान पुंज से
तिमिर दूर कर
प्रज्ञा चक्षु दो


आशा सक्सेना 

01 सितंबर, 2017

रेल हादसा

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कितना कुछ पीछे छोड़ चली 
जीवन की रेल चली !
एक स्टेशन पीछे रह गया 
अगला आने को था 
पेड़ पीछे भाग रहे थे 
बड़ा सुहाना मंज़र था !
रात गहराई और सब खो गए 
नींद की आगोश में सारे यात्री सो गए !
एकाएक हुआ धमाका 
रेल रुकी धमाके से 
बिगड़ी जाने कैसी फ़िज़ा
मन में खिंचे सनाके से ! 
आये कई डिब्बे आग की चपेट में 
कई पटरी से उतर गये 
चीत्कार, हाहाकार सुनाई दिया 
यात्रियों के परिजन और सामान 
यहाँ वहाँ बिखर गए ! 
यहाँ से वहाँ तक 
घायल ही घायल 
खून का रेला थमने का नाम न ले 
भय और आशंका ऐसी सिर चढी 
कि कैसे भी उतरने का नाम न ले ! 
लोग घायलों की भीड़ में 
अपनों को खोजते रहे 
घुप अँधेरे में गिरते पड़ते 
यहाँ वहाँ दौड़ते रहे !
था पास एक ग्राम 
वहीं से लोग दौड़े चले आये 
जिससे जो बन पड़ा 
घायलों की मदद के लिए 
अपने साथ लेते आये !
आग पर काबू आता न था 
घायलों का चीत्कार थमता न था ! 
जब तक अगले स्टेशन से 
मदद आती उससे पहले ही 
सब जल कर राख हो गया 
जाने कितनों का सुख भरा संसार 
हादसे की भेंट चढ़ 
ख़ाक हो गया !
ट्रेन में बैठने के नाम से ही 
अब तो जैसे साँप सूँघ जाता है
  वह दारुण दृश्य और करुण क्रंदन 
अनायास ही कानों में 
गूँज जाता है ! 

आशा सक्सेना