25 दिसंबर, 2017
10 दिसंबर, 2017
असमंजस
वह झुकी-झुकी पलकों से
कनखियों से देखती है
बारम्बार तुम्हें !
हैं जानी पहचानी राहें
पर भय हृदय में रहता है
कहीं राह से दूरी न हो जाए !
कोई साथ नहीं देता बुरे समय में
जब भी नज़र भर देखती है
यही दुविधा रहती है
कहीं राह न भूल जाए !
पर ऐसा नहीं होता
भ्रम मात्र होता है !
भ्रमित मन भयभीत बना रहता
जिससे उबरना है कठिन
जब कोई नैनों की भाषा न पढ़ पाए
अर्थ का अनर्थ हो जाता !
इससे कैसे बच पायें
है कठिन परीक्षा की घड़ी
कहीं असफल न हो जाए
जब सफलता कदम चूमे
मन बाग़-बाग़ हो जाए
जब विपरीत परीक्षाफल आये
वह नतमस्तक हो जाए
निगाहें न मिला पाए !
आशा सक्सेना
07 दिसंबर, 2017
स्वप्न मेरे
हो तुम बाज़ीगर सपनों के
जिन्हें तुम बेचते हो तमाशा दिखा कर
मेरे पास है स्वप्नों का जखीरा
क्या खरीदोगे कुछ उनमें से ?
पर जैसे हों वही दिखाना
कोई काट छाँट नहीं करना !
हर स्वप्न अनूठा है अपने आप में
परिवर्तन मुझे रास नहीं आता !
नए किरदार नए विचारों को
संजोया है मैंने उनमें !
बंद आँखों से तो अक्सर
सपने देखे ही जाते हैं
कुछ याद रह जाते हैं
अधिकांश विस्मृत हो जाते हैं !
खुली आँखों से देखे गए सपनों की
बात है सबसे अलग !
होते हैं वे सत्यपरक
अनोखा अंदाज़ लिए ,
नवीन विचारों का सौरभ है उनमें !
ऊँची उड़ान उनकी अनंत में
बहुत रुचिकर है मुझे
तभी वे हैं अति प्रिय मुझे !
आशा सक्सेना
02 दिसंबर, 2017
फलसफा प्रजातंत्र का
बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती
पालनार्थ आदेश पारित करती
पर अर्थ का अनर्थ ही होता
मंहगाई सर चढ़ बोलती
नीति जनता तक जब पहुँचती
अधिभार लिए होती
हर बार भाव बढ़ जाते
या वस्तु अनुपलब्ध होती
पर यह जद्दोजहद केवल
आम आदमी तक ही सीमित होती
नीति निर्धारकों को
छू तक नहीं पाती
धनी और धनी हो जाते
निर्धन ठगे से रह जाते
बीच वाले मज़े लेते !
न तो दुःख ही बाँटते
न दर्द की दवा ही देते
ये नीति नियम किसलिए और
किसके लिए बनते हैं
आज तक समझ न आया !
प्रजातंत्र का फलसफा
कोई समझ न पाया !
शायद इसीलिये किसीने कहा
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे
वर्तमान मन को न भाया !
आशा सक्सेना
26 नवंबर, 2017
स्वीकार
व्यस्तता भरे जीवन में
वह ऐसी खोई कि
खुद को ही भूल गयी,
दिन और रात में
ज़िंदगी एक ही सी हो गयी !
नहीं कोई परिवर्तन
आसपास रिक्तता का साम्राज्य
और मस्तिष्क मशीन सा
हुआ विचारों में मंदी का आलम
ऐसा भी नहीं कि खुशियों ने
कभी दी ही नहीं दस्तक
मन के दरवाज़े पर
लेकिन बंद द्वार
न तो खुलता था ना ही खुला !
बाह्य आवरण
जिसे उसने ओढ़ रखा था
और सीमा पार करना वर्जित
मन में झाँक कर देखा
वह अकेली ही न थी ज़िम्मेदार
आसपास की दुनिया भी तो थी
उतनी ही गुनाहगार
अब है बहुत उदास
उदासी पीछा नहीं छोड़ती
ना ही वह कोई परिवर्तन चाहती
सब कुछ कर लिया है
उसने अब स्वीकार !
17 नवंबर, 2017
सत्यानुरागी
मिलते हज़ारों में
दो चार अनुयायी सत्य के
सत्यप्रेमी यदा कदा ही मिल पाते
वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते !
सदाचरण में होते लिप्त
सद्गुणियों से शिक्षा ले
उनका ही अनुसरण करते
होते प्रशंसा के पात्र !
लेकिन असत्य प्रेमियों की भी
इस जगत में कमी नहीं
अवगुणों की माला पहने
शीश तक न झुकाते
अधिक उछल कर चले
वैसे ही उनके मित्र मिलते
लाज नहीं आती उन्हें
किसी भी कुकृत्य में !
भीड़ अनुयाइयों की
चतुरंगी सेना सी बढ़ती
कब कहाँ वार करेगी
जानती नहीं
उस राह पर क्या होगा
उसका अंजाम
इतना भी पहचानती नहीं !
दुविधा में मन है विचलित
सोचता है किधर जाए
दे सत्य का साथ या
असत्य की सेना से जुड़ जाए
जीवन सुख से बीते
या दुखों की दूकान लगे
ज़िंदगी तो कट ही जाती है
किसी एक राह पर बढ़ती जाती है
परिणाम जो भी हो
वर्तमान की सरिता के बहाव में
कैसी भी समस्या हो
उनसे निपट लेती है !
आशा सक्सेना
06 नवंबर, 2017
आने को है बाल दिवस
हे कर्मवीर
चाचा नेहरू तुम्हें
मेरा प्रणाम
रहे सक्रिय
विविध रंग देखे
राजनीति में
नेहरू रहे
गाँधी के अनुयायी
आज़ादी चाही
बाल दिवस
चाचा नेहरू का है
जन्म दिवस
नेहरू जी ने
दिया स्नेह अपार
नन्हे मुन्नों को
लाल गुलाब
कोट की जेब पर
सजा प्रेम से
लुटाया प्यार
देश के बच्चों पर
अपरम्पार
बालक मन
सरिता सा निश्च्छल
होता सरल
धनुषाकार
चंचल चितवन
है विलक्षण
जीत लेते हैं
बच्चे सभी का मन
भोली बातों से
आने वाला है
बच्चों को अति प्रिय
बाल दिवस
आशा सक्सेना
29 अक्तूबर, 2017
दीपक और बाती
चौराहे पर चौमुख दीया
दिग्दिगंत रौशन करता
अपार प्रसन्नता होती
जब यायावरों को राह दिखाता
वायु के झोंके करते जब प्रहार
झकझोर कर रख देते उसे
बाती काँप जाती
अपने को अक्षम पाती
कभी तो घटती कभी बढ़ जाती
वह दीपक से शिकायत करती
अपने नीचे झाँको
है कितना अंधेरा तुम्हारे तले
है तुम्हारा कार्य
भटकों को राह दिखाना
परोपकार करते रहना
पर क्या मिला बदले में तुम्हें ?
दीपक ने सोचा क्षण भर के लिए
कुछ मिला हो या न मिला हो
जीता हूँ आत्म संतुष्टि के लिए
किसी पर अहसान नहीं करता
जब तुम हो मेरे साथ
स्नेह से भरपूर !
आशा सक्सेना
25 अक्तूबर, 2017
प्रलोभन
देने को बहुत कुछ है
यदि हो विशाल हृदय
लेने के लिए होतीं
वर्जनाएं बहुत
दोनों हाथों से लिया जाता
या फैला कर आँचल
माँगा जाता
समेटा जाता
जितना उसमें समाता
अधिक की इच्छा पूर्ण नहीं होती
अधिक भरने पर
सब बिखर जाता
प्रलोभन में आकर
इच्छा विकट रूप लेती
पैर बहक जाते
ग़लत मार्ग अपनाते
असाध्य आकांक्षाओं की
पूर्ति नहीं होती तो
पूर्ति के लिए राह भटक जाते
जो दिल से धनवान होते
वे ही दरिया दिल कहलाते !
आशा सक्सेना
16 अक्तूबर, 2017
दीवाली इस वर्ष
जब ज्योति जली
विष्णुप्रिया के मंदिर में
तम घटा घर के हर कोने का
जगमग मन मंदिर हुआ
रोशनी की चकाचौध में !
क्योंकि पहली पसंद हैं यह बच्चों की
पर इस वर्ष लीक से हट कर
देखी एक बात विशेष !
मार्ग रहा साफ़ सुथरा
फेंका कचरा सब एक तरफ
क्या मालूम नहीं हम जुड़े हैं
स्वच्छता अभियान से ?
प्रति दिन सफाई करते हैं
घर बाहर बुहारते हैं
हमारे लिए है प्रति दिन दीपावली !
आम आदमी जुड़ गया है
इस अभियान से
हर सुबह होती है इसके आग़ाज़ से !
घर बाहर की स्वच्छता से
मन प्रसन्न हो जाता
एक ही दिन नहीं अब तो
प्रति दिन दीपोत्सव मनाया जाता !
आशा सक्सेना
09 अक्तूबर, 2017
पूनम का चाँद
शरद पूनम के चाँद सा मुखमंडल है
उस पर स्निग्धता का भाव अनोखा है
चन्द्र किरण की शीतलता का
आनंद बहुत अनुपम है
आनन पर मधुर मुस्कान है
मौसम बड़ा हरजाई है
काले लम्बे केशों की सर्पिणी सी चोटी
कमर तक लहराई है
हल्की सी जुम्बिश दी है उसने
सरक कर चूनर मुख पर आई है
ठंडक ने दस्तक दी है हल्की सी
वायु के हलके से झोंके से
नव ऋतु ने ली अंगड़ाई है
दबे कदम शरद ऋतु आई है
पौधों ने स्पर्श किया है
पवन के इन झोंकों को
उन्हें भी अहसास हुआ है
इस परिवर्तन का
हरसिंगार की पत्तियों पर
ओस की बूँदें थिरक आई हैं
नव चेतन की महक दूर से आई है
खिली कलियाँ रात में
फूलों पर बहार आई है
शरद पूनम का चाँद देखा है जबसे
निगाहों में उसकी ही छवि समाई है !
आशा सक्सेना
05 अक्तूबर, 2017
मधुर झंकार
एकांत पलों में
जाने कब मन वीणा की
हुई मधुर झंकार
कम्पित हुए तार
सितार के मन लहरी के
पर शब्द रहे मौन
जीवन गीत के !
जिसने जिया
उदरस्थ किया उन पलों को
जीने का मकसद मिल गया
सुन उस मधुर धुन को !
थिरकन हुई कदमों में
तारों के कम्पन से
हर कण में बसी
उत्साह की भावना
रच बस गयी मन में
जगा आत्म विश्वास
उस पल पर टिका कर
सफलता की सीढ़ी चढ़ी
अब वह जीता है
उन्हीं पलों की याद में
जो मुखर तो न हो सके
पर रच बस गए
उसके अंतस में !
आशा सक्सेना
01 अक्तूबर, 2017
आज का रावण
हुआ प्रभात कुछ ऐसा
हर व्यक्ति रावण हुआ
दस शीश सब में हैं
कुछ सद्बुद्धि से प्रेरित
कुछ दुर्बुद्धि में लिप्त
जब जिसका प्रभाव ज्यादह
वैसा ही कर्मों का बोलबाला
मद, मत्सर, माया में लिप्त
अनुचित कार्य करने में प्रवीण
आधुनिक रावण घूमते यहाँ वहाँ
समाज पर तीखा वार करने से
वे नहीं चूकते हर बार
इस वर्ष भी रावण दहन
बुराइयों पर विजय पाने की कोशिश में
बड़े जोश से किया गया दशानन दहन
पर हुआ कितना कारगर
एक रावण नष्ट हुआ तभी
अन्य का हुआ जन्म
रावणों की संख्या बढ़ रही
दिन दूनी रात चौगुनी
अनाचार ने सर उठाया
अधिक बदतर आलम हुआ !
आशा सक्सेना
27 सितंबर, 2017
उपवन का माली
है बागबान वह इस उपवन का
किया जिसने समर्पित
रोम रोम अपना
इस उपवन को !
बचपन यहीं खेल कर बीता
यौवन में यहीं कुटिया छाई !
हर वृक्ष, लता और पौधों से
है आत्मीयता उसकी
हर पत्ते से वह संभाषण करता
उनसे अपना स्नेह बाँटता
है उपवन सूना उसके बिना
डाली डाली पहचानती स्पर्श उसका
जब फलों की बहार आयेगी
तब तक क्षीण हो चुकी होगी काया
अपनी उम्र का अंतिम पड़ाव
वह पार कर लेगा
मिट्टी से बनी काया
मिट्टी में समाहित हो जायेगी
लेकिन आत्मा उसकी उपवन में
रची बसी होगी !
जब नया माली आयेगा
उससे ही साक्षात्कार करेगा
उपवन की महक
जब दूर दूर तक पहुँचेगी
अपनी ओर आकर्षित करेगी
उसकी यादें भूल न पायेंगे !
है वह अदना सा माली
लेकिन यादें उसकी
सदा अमर रहेंगी !
आशा सक्सेना
21 सितंबर, 2017
बहुरंगी हाइकू
माता की कृपा
रहती सदा साथ
मेरी रक्षक
स्पर्श माता का
बचपन लौटाता
यादें सजाता
माँ का आशीष
शुभ फलदायक
हो शिरोधार्य
माँ की ममता
व पिता का दुलार
दिखाई न दे
माँ की ऊँगली
डगमगाते पाँव
दृढ़ सहारा
माता के साथ
बालक चल दिया
विद्या मंदिर
जीवन भर
कभी न करी सेवा
अब श्राद्ध क्यों
मन की पीड़ा
बस पीड़ित जाने
और न कोई
सच में होता
ऐसा ही परिवार
सोचती हूँ मैं
आशा सक्सेना
17 सितंबर, 2017
अनुरागी मन
है सौभाग्य चिन्ह मस्तक पर
बिंदिया दमकती भाल पर
हैं नयन तुम्हारे मृगनयनी
सरोवर में तैरतीं कश्तियों से
तीखे नयन नक्श वाली
तुम लगतीं गुलाब के फूल सी
है मधुर मुस्कान तुम्हारे अधरों पे
लगती हो तुम अप्सरा सी
हाथों में रची मेंहदी गहरी
कलाई में खनक रहे कंगना
कमर पर करधन चमक रही
मोह रहा चाँदी का गुच्छा
पैरों में पायल की छनक
अनुरागी मन चला आता है
दूर दूर तक तुम्हें खोजता
छोड़ नहीं पाता तुम्हें !
आशा सक्सेना
11 सितंबर, 2017
जीवन संगीत
जब स्वर आपस में टकराएँ
कर्कश ध्वनि अनंत में बिखरे
पर जब स्वर नियमबद्ध हो
गुंजन मधुर हो जाए !
यही मधुरता
गूंजने लगे चहुँ दिशि
मन में मिश्री घुल जाए
और पूर्ण कृति हो जाए !
मनोभाव शब्दों में उतर कर
कुछ नया सोच
दिल को छुए
मधुर संगीत का हो सृजन
उदासी आनंद में बदल जाए !
प्यार, प्रेम का जन्म हो
अद्भुत पलों का हो अहसास
जीवन में संगीत ही संगीत हो
हर पल, हर लम्हा
संवर जाए !
आशा सक्सेना
04 सितंबर, 2017
01 सितंबर, 2017
रेल हादसा
कितना कुछ पीछे छोड़ चली
जीवन की रेल चली !
एक स्टेशन पीछे रह गया
अगला आने को था
पेड़ पीछे भाग रहे थे
बड़ा सुहाना मंज़र था !
रात गहराई और सब खो गए
नींद की आगोश में सारे यात्री सो गए !
एकाएक हुआ धमाका
रेल रुकी धमाके से
बिगड़ी जाने कैसी फ़िज़ा
मन में खिंचे सनाके से !
आये कई डिब्बे आग की चपेट में
कई पटरी से उतर गये
चीत्कार, हाहाकार सुनाई दिया
यात्रियों के परिजन और सामान
यहाँ वहाँ बिखर गए !
यहाँ से वहाँ तक
घायल ही घायल
खून का रेला थमने का नाम न ले
भय और आशंका ऐसी सिर चढी
कि कैसे भी उतरने का नाम न ले !
लोग घायलों की भीड़ में
अपनों को खोजते रहे
घुप अँधेरे में गिरते पड़ते
यहाँ वहाँ दौड़ते रहे !
था पास एक ग्राम
वहीं से लोग दौड़े चले आये
जिससे जो बन पड़ा
घायलों की मदद के लिए
अपने साथ लेते आये !
आग पर काबू आता न था
घायलों का चीत्कार थमता न था !
जब तक अगले स्टेशन से
मदद आती उससे पहले ही
सब जल कर राख हो गया
जाने कितनों का सुख भरा संसार
हादसे की भेंट चढ़
ख़ाक हो गया !
ट्रेन में बैठने के नाम से ही
अब तो जैसे साँप सूँघ जाता है
वह दारुण दृश्य और करुण क्रंदन
अनायास ही कानों में
गूँज जाता है !
आशा सक्सेना
27 अगस्त, 2017
मेरी सोनचिरैया
चिड़िया दिन भर आँगन में चहकती
यहाँ वहाँ टहनियों पे
अपना डेरा जमाती
कुछ दिनों में नज़र न आती
पर शायद उसका स्थान
मेरी बेटी ने ले लिया है
जब से उसने पायल पहनी
ठुमक ठुमक के चलती
पूरे आँगन में विचरण करती
अपनी मीठी बातों से
मन सबका हरती
खुशियाँ दामन में भरती !
उसमें और गौरैया में
दिखी बहुत समानता
गौरैया कहीं चली गयी
अब यह भी जाने को है
अपने प्रियतम के घर
इस आँगन को सूना कर
पर याद बहुत आयेगी
न जाने लौट कर
फिर कब आयेगी !
आशा सक्सेना
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