12 जुलाई, 2011

ऐसा क्यूँ होता है


है कारण क्या परेशानी का

उदासी की महरवानी का

गर्मीं में अहसास सर्दी का

गहराती नफरत में छिपे अपनेपन का |

कभी आकलन न किया

जो कुछ हुआ उसे भुला दिया

फिर भी कहीं कुछ खटकता है

मन बेचारा कराहता है |

है कारण क्या

चाहता भी है जानना

पर दूर कहीं उससे

चाहता भी है भागना |

गहरी निराशा

पंख फैलाए आती है

मन आच्छादित कर जाती है

रौशनी की किरण कोइ

दूर तक दिखाई नहीं देती |

सिहरन सी होने लगती है

विश्वास तक

डगमगा जाता

मन आक्रान्त कर जाता |

क्या खोया कितना खोया

यह महत्त्व नहीं रखता

बस एक ही विचार आता है

क्यूँ होता है ऐसा

उसी के साथ हर बार |

आशा

11 जुलाई, 2011

तेरा प्यार




तेरा प्यार दुलार

भूल नहीं पाती

जब पाती नहीं आती

मुझे बेचैन कर जाती |

तेरे प्यार का

कोइ मोल नहीं

तू मेरी माँ है

कोई ओर नहीं |

आज भी

रात के अँधेरे में

जब मुझे डर लगता है

तेरी बाहें याद आती हैं |

कहीं दूर स्वप्न में

ले जाती हैं |

फिर सुनाई देती है

तेरी गाई लोरियाँ

आँखें बंद करो कहना

मेरा झूठमूठ उन्हें बंद करना |

सारा डर

भाग जाता है

जाने कब सो जाती हूँ

पता ही नहीं चलता |

आशा

09 जुलाई, 2011

कांटा गुलाब का



तू गुलाब का फूल
मैं काँटा उसी डाल का
है तू प्रेम का प्रतीक
और मैं उसकी नाकामी का |
दौनों के अंतर को
पाटा नहीं जा सकता
है इतनी गहरी खाई
कोइ पार नहीं कर पाता|
फिर भी तुझे पाने की आशा
हर व्यक्ति को होती है
मुझे देख भय लगता है
कभी विरक्ति भी होती है |
गुलाब तुझे पता नहीं
मैं दुश्मन प्रेम का नहीं
तेरे पास रहता हूँ
तुझे बचाने के लिए |
 चाहता हूँ यही
खुशबू तेरी बनी रहे
प्रेम का प्रतीक तू
ऐसा ही सदा ही बना रहे |
आशा

08 जुलाई, 2011

आज भी वही बात



तुम भूले वे वादे

जो रोज किया करते थे

बातें अनेक जानते थे

पर अनजान बने रहते थे |

तुम्हारी वादा खिलाफी

अनजान बने रहना

बिना बाट रूठे रहना

बहुत क्रोध दिलाता था |

फिर भी मन के

किसी कौने में

तुम्हारा अस्तित्व

ठहर गया था |

बिना बहस बिना तकरार

बहुत रिक्तता लगती थी

तुमसे बराबरी करने में

कुछ अधिक ही रस आता था |

वह स्नेह और बहस

अंग बन गए थे जीवन के

रिक्तता क्या होती है समझी

जब रास्ते अलग हुए |

बरसों बाद जब मिले

बातें करने की

उलाहना देने की

फिर से हुई इच्छा जाग्रत |

जब तुम कल पर अटके

कसमों वादों में उलझे

तब मैं भी उन झूठे बादों की

याद दिलाना ना भूली |

पर आज भी वही बात

ऐसा मैंने कब कहा था |

यह तो तुम्हारे,

दिमाग का फितूर था |

आशा

06 जुलाई, 2011

ग़म




अपने ग़मों के साथ

कई ग़म और लिये फिराता हूँ

देता हूँ तसल्ली उनको

खुद उन्हीं में डूबा रहता हूँ |

नहीं चाहता छुटकारा उनसे

वे हमराज हैं मेरे

हम सफर हैं जिंदगी के

जाने अनजाने आ ही जाते हैं

स्वप्नों को भी सजाते हैं |

हद तो जब हो जाती है

जाने कब चुपके से

मेरे मन में उतर जाते हैं

मन में बसते जाते हैं |

अब तो बिना इनके

अधूरी लगती है जिंदगी

क्यूँ कि खुशी तो

क्षणिक होती है |

इनका अहसास ही जताता है

दौनों में है अंतर क्या

इन्हीं से सीख पाया है

धबरा कर जीना क्या |

अब जहां कहीं भी जाएँ

बचैनी नहीं होती

क्यूँ कि साथ जीने की

आदत सी हो गयी है |

खुशियों की झलक होती मुश्किल

हैं मन के साथी ग़म

सदा साथ रहते हैं

बहते दरिया से होते हैं |

04 जुलाई, 2011

एक अनुभव बौलीवुड का


गहरा प्रभाव था चल चित्रों का मुझ पर

चेहरे पर चमक आ जाती थी आइना देख कर |

चस्का हीरो बनाने का इस तरह हावी हुआ

आगा पीछा कुछ ना देखा मुम्बई का रुख किया |

सुबह हुई आँख खुली खुद को स्टेशन पर पाया

मुंह धोने नल तक पहुंचा कोई बैग उठा कर चल दिया|

ना तो थे पैसे पास में ना ही ठिकाना रहने का

बस देख रहा था सड़क पर आती जाती गाड़ियों को |

अचानक एक गाड़ी रुकी इशारे से पास बुलाया

कहा क्या घर से भाग आए हो, कुछ काम करना चाहते हो |

कुछ करना हो तो मुझ से मिलना ,मैंने जैसे ही सिर हिलाया

स्वीकृति समझ पता बताया, और आगे चल दिया |

वहाँ पहुंच कर देखा मैंने , कोई शूटिग चल रही थी

भीड़ की आवश्यकता थी ,उत्सुकता मेरी भी कम न थी |

मिलते ही कुछ प्रश्न किये ,देखा परखा और शामिल कर लिया

शूटिग समाप्त होते ही ,कुछ रुपए दे चलता किया |

थकान बहुत थी , फुटपाथ पर ही सो गया

था बड़ा अजीब शहर ,वहाँ सोने के पैसे भी मांग लिए |

अब मेरी यही दिनचर्या थी, दिन भर भटकता था

कभी काम मिल जाता था कभी भूखा ही सो जाता था |

चेहरे का नूर उतरने लगा ,नियमित काम न मिल पाया

बॉलिवुड की सच्चाई ,पहचान नहीं पाया |

बापिसी की हिम्मत जुटा नहीं पाया

क्या खोया क्या पाया आकलन ना कर पाया |

अब तक हीरो बनाने का भूत भी पूरा उतर गया था

अपनी भूल समझ गया था ,सपनों से बाहर आ गया था |

एक दिन बड़े भाई आए जबरन घर बापिस लाए

आज अपने परिवार में रहता हूँ छोटी सी नौकरी करता हूँ |

जब भी वे दिन याद आते है ,लगता है मैं कितना गलत था

केवल सपनों में जीता था वास्तविकता से था दूर |

थी वह सबसे बड़ी भूल ,जो आज भी सालती है

चमक दमक की दुनिया की सच्चाई कुछ और होती है |

आशा

01 जुलाई, 2011

जहां अपार शान्ति होती है

अपनी ४०० वी रचना आज ब्लॉग पर डाल रही हूँ |:-

ऊंचे पर्वतों से निकली
चंचल चपल धवल धाराएं
मार्ग अपना प्रशस्त किया
आगे बढ़ीं सरिता बनीं |
अलग अलग मार्गों से आईं
मंदाकिनी विलीन हो गयी
अलखनंदा में मिल गयी
नदिया में बिस्तार आया
वह और रमणीय हो गयी |
आसपास हरियाली थी
तेज बहती जल धारा थी
कल कल ध्वनि बहते जल की
खींच रही थी अपनी ओर |
घंटों बैठे उसे निहारते
नयनों में वे दृश्य समेटे
एक चित्र कार बैठा पत्थर पर
उकेरता उन्हें कैनवास पर |
जब दिन ढला शाम हुई
दी दस्तक चाँद ने रात में
चंचल किरणें खेलने लगी
जल धारा के साथ में |
खेलता चन्द्रमा लुका छिपी
पेड़ों से छन कर आती
घरोंदों में होती रौशनी से
था दृश्य ही ऐसा
कि मन की झोली में भर लिया |
अब जब भी मन उचटता है
कहीं दूर जाना चाहता है
आखें बंद करते ही
वे दृश्य उभरने लगते हैं
मन सुकून से भर जाता है |
सच कहा था चित्रकार नें
जहां अपार शान्ति होती है
मानसिक थकान नहीं होती
कुछ नया सर्जन होता है |

आशा

30 जून, 2011

नार बिन चले ना

नार कटवाती दाई ,जन्म होता सुखदाई

मनुष्य जीवन पाया ,यूं व्यर्थ जाए ना |

वह सुन्दरी सुमुखी ,सज सवर चल दी

रीत यहाँ की जाने ना ,चाल सीधी चले ना |

उसकी नागिन जैसी ,बल खाती लंबी वेणी

मुख में बीड़ा दबाना ,बिना हंसे चले ना |

मंद मंद मुस्काना ,ध्यान कहीं भटकाना

गुमराह होती जाना ,मार्ग है अनजाना |

मन में होती अशांति ,तूती बजे ना फिर भी

प्रभु के भजन गाना ,नार बिन चले ना|

आशा

29 जून, 2011

है यही रीत दुनिया की


हरीतिमा वन मंडल की

अपनी ओर खींच रही थी

मौसम की पहली बारिश थी

हल्की सी बूंदाबांदी थी

तन भीगा मन भी सरसा

जब वर्षा में तेजी आई

पत्तों को छू कर बूंदे आईं |

पगडंडी पर पानी था

फिर भी पास एक

सूखा साखा पेड़ खडा था

था पत्ता विहीन

था तना भी बिना छाल का |

उसमें कोई तंत न था

जीवन उसका चुक गया था

कई टहनियाँ काट कर

ईंधन बनाया उन्हें जलाया

जब भी कोई उसे देखता

सब नश्वर है यही सोचता |

पहले जब वह हरा भरा था

कई पक्षी वहाँ आते थे

अपना बसेरा भी बनाते थे

चहकते थे फुदकते थे

मीठे फल उसके खाते थे

जो फल नीचे गिर जाते थे

पशुओं का आहार होते थे |

घनी घनेरी डालियाँ उसकी

छाया देती थीं पथिकों को

था वह बहुत उपयोगी

सभी यही कहते थे |

पर आज वह

ठूंठ हो कर रह गया है

सब ने अनुपयोगी समझ

उसका साथ छोड़ दिया है

है यही रीत दुनिया की

उसे ही सब चाहते हैं

जो आए काम किसी के

उपयोगिता हो भरपूर

तभी मन भाए सभी को |

जैसे ही मृत हो जाए

जो कुछ भी पास था

वह भी लूट लिया जाता है

कुछ अधिकार से

कुछ अनाधिकार चेष्टा कर

अस्तित्व मिटा देते हैं उसका

वह आज तो ठूंठ है

कल शायद वह भी न रहेगा

लुटेरों की कमी नहीं है

उनको खोजना न पड़ेगा |

आशा

26 जून, 2011

इसी तरह जी लेंगे


जब से तेरी तस्वीर सीने से लगाई है

दिल पर अधिकार न रहा

उसकी धडकन कभी धीमीं

तो कभी तेज हो जाती है

तस्वीर कभी रंगीन तो कभी रंग हीन

नजर आती है |

उससे निकली आवाज कभी ताल में

तो कभी बेताल हो जाती है

यह कहीं मेरे अंतर्मन में उठते

विचारों का सैलाव तो नहीं

जो मुझे बहा ले जाता है |

जब भी मैं खुश होता हूँ

उस पर भी खुशी झलकती है

देख कर मेरी उदासी

वह गम के साये में खो जाती है

बहुत उदास नजर आती है |

तू जाने किस अन्धकार में खो गई

पर मन में इस तरह बस गई

जहां भी नजर पडती है

तेरी याद आ जाती है

दिल की धड़कन बढ़ जाती है

यह कहीं मेरा भ्रम तो नहीं

तू जीती जागती

सजीव नजर आती है |

ऐसे ही अगर जीना है

हम यह भी सह लेंगे

कोई गिला शिकवा न करेंगे

किसी सहारे की दरकार नहीं है

बस इसी तरह जी लेंगे |

आशा

यदि चाहत हो कुछ करने की


यदि चाहत हो कुछ करने की

हर बार सफल रहने की

फिर भी करना मनमानी

उचित नहीं लगता

कुछ भी हाथ नहीं आएगा

समय पंख लगा उड़ जाएगा |

जिसने भी की मनमानी

अपनी जिद को सर्वोपरी समझा

असफलता की सीड़ी पर

चढता गया फिर मुड़ न सका

उम्र भी निकल गई

सिवाय पछतावे के
कुछ भी हाथ नहीं आया |

आशा

24 जून, 2011

कैसे तुझे भुलाऊँ


तू यहाँ रहे या वहाँ रहे

जहां चाहे वहाँ रहे

कभी रूठी रहे

या मन जाए

पर बहारों का पर्याय है तू

मीठी यादों का बहाव है तू |

चेहरे की मुस्कराहत

अठखेलियाँ करती अदाएं

अखियों की कोर सजाता काजल

लगा माथे पर प्यारा सा डिठोना

किसी की नजर ना लग जाए |

तेरी नन्हीं बाहों की पकड़

कसती जाती थी

जब भी बादल गरजते थे

दामिनी दमकती थी

वर्षा की पहली फुहार

तुझे भिगोना चाहती था |

आगे पीछे सारे दिन

मेरा पल्ला पकड़

इधर उधर तेरा घूमना

गोदी में आने की जिद करना

राह में हाथ फैला कर रुक जाना

बाहों में आते ही मुस्कराना

जाने कितनी सारी बातें हैं

दिन रात मन में रहती हैं

कैसे उन्हें भुलाऊँ

तू क्या जाने

तू क्या है मेरे लिए |

आशा

22 जून, 2011

विश्वास मन का



मंदिर गए मस्जित गए

और गिरजाघर गए

गुरुद्वारे में मत्था टेका

चादर चढाई मजार पर |

कई मन्नतें मानीं

कुछ इच्छाएं पूरी हुईं

कई अधूरी रह गईं

तब अंतर मन ने कहा

है यह विश्वास मन का

ना कि अंध विश्वास किसी धर्म का

होता वही है

जो है विधान विधि का |

क्या अच्छा और क्या बुरा

,हर व्यक्ति जानता है

फिर भी भटकाव रहता है

सब के मन में |

जान कर भी जानना नहीं चाहता

अनजान बना रहता है

,मन की शान्ति खोजता है

जिसका मन होता स्वच्छ और निर्मल

वह उसके बहुत करीब होता है |

जब आख़िरी दिन होगा

हर बात का हिसाब होगा

सब कर्मों का लेखा जोखा

यहीं दिखाई दे जाएगा |

आशा

21 जून, 2011

ऐसी ही है जिंदगी


कभी लगती पुष्पों की सेज सी

कभी डगर काँटों की

कभी पेंग बढाते झूले सी

ऐसी ही है जिंदगी |

देखते ही देखते

यूं ही गुजर जाती है

कैसे करें भरोसा इस पर

कभी भी साथ छोड़ जाती है |

जो भी इसे समझ पाया

सामंजस्य स्थापित कर पाया

वही अपने हिसाब से

अपने तरीके से जी पाया |

जिसने इसे नहीं समझा

इसका मोल नहीं आंका

इसे भोग नहीं पाया

वह भी तो इससे जुदा हुआ |

किसी ने बेवफा कहा इसे

कुछ ने मुक्ति मार्ग का नाम दिया

जाने कितनों ने इसे उपकार कहा

प्रभु की अनमोल देन समझा |

वह भी ऐसी

जो जन्म के साथ मिली हो

फिर वह बेवफा कैसे हो

जिसमें वफा ही भरी हो |

संगी साथी सब छूट जाते हैं

कभी स्मृतियों में

खोते जाते है

कभी विस्मृत भी हो जाते हैं |

है जिंदगी ऐसा अनुभव

जो दौनों ही पाते हैं

कुछ याद रखते हैं

कई भूल जाते हैं |

आशा

|

18 जून, 2011

क्यूँ दोष दूं किसी को


सुबह से शाम तक

फिरता रहता हूँ

सड़क पर

यहाँ वहाँ |

फटी कमीज पहने

कुछ खोजता रहता हूँ

शायद वह मिल जाए

मेरे दिल की दवा बन जाए |

मेरी गरीबी

मेरी बेचारगी

कोई समझ नहीं सकता

जिसे मैं भोग रहा हूँ |

एक दिन मैंने देखा

वह खुले बदन

ठण्ड से काँप रहा था

ना जाने क्यूँ

मुझे दया आई

अपनी गरीबी याद आई

कमीज उतारी अपनी

उसे ही पहना दी |

उसकी आँखों की चमक देख

संतुष्टि का भाव देख

मन में अपार शान्ति आई |

बस अब मेरे साथी हैं

यह फटा कुर्ता और पायजामा |

तेल बरसों से

बालों ने न देखा

आयना भी ना देखा

कभी खाया कभी भूखा रहा

फिर भी हाथ ना फैलाया |

क्या करू हूँ गरीब

समाज से ठुकराया गया

यह जिंदगी है ही ऐसी

कुछ भी न कर पाया |

गरीबी के दंशों से

बच भी नहीं पाया |

क्यूँ दोष दूं किसी को

हूँ पर कटे पक्षी सा

फिर भी रहता हूँ

अपनी मस्ती में |

जहां किसी का दखल नहीं है

कोई पूंछने वाला नहीं है

मुझे किसी की

ना ही किसी को

मेरी जरूरत है |

आशा

17 जून, 2011

अब वह कॉलेज कहाँ


कॉलेज की वे यादें

आज भी भूल नहीं पाती

मन में ऐसी बसी हैं

अक्सर याद आती हैं |

प्राध्यापक थे विद्वान

अपने विषयों के मर्मग्य

उच्च स्तरीय अध्यापन निपुण

और अनुकरणीय |

विद्यार्थी कम होते थे

स्वानुशासित रहते थे

कई गतिविधियां

खेल कूद और सांस्कृतिक भी

सौहार्द्र पूर्ण होती थीं |

उनमें भाग लेने की ललक

अजीब उत्साह भारती थी

जब जीत सुनिश्चित होती थी

या पुरूस्कार मिलता था

तालियों से स्वागत

गौरान्वित करता था |

थी एक मसखरों कई टोली

था काम गेट पर खड़े रहना

आते जाते लोगों को

बिना बात छेड़ते रहना

फिर भी बंधे थे मर्यादा से |

रिक्त काल खण्डों में

बागीचा था उन की बैठक

चुटकुले और शेर शायरी

या हास परिहास में

व्यस्त रहते थे|

सब के नाम रखे गए थे

जब भी कोई चर्चा होती थी

होता था प्रयोग उनका

हँसने का सामान जुट जाता था |

हंसी मजाक और चुहलबाजी

तक सब थे सीमित

लड़के और लडकियां आपस में

यदा कडा ही मिलते थे |

दत्त चित्त हो पढते थे

प्रोफेसर की नजर बचा

कक्षा में कभी लिख कर

बातें भी करते थे |

जब भी अवसर मिलता था

शरारतों का पिटारा खुलता था

हँसते थे हंसाते थे

पर दुखी किसी को ना करते थे |

अब वैसा समय कहाँ

ना ही वैसे अध्यापक हैं

और नहीं विद्यार्थी पहले से

आज तो कॉलेज लगते हैं

राजनीति के अखाड़े से |

आशा