20 मई, 2010

यादें बीते कल की

जब तुम इधर से गुजरती हो ,
पहली वर्षा की फुहार सी लगती हो ,
पुरवइया बयार सी लगती हो ,
तुम मुझे कुछ-कुछ अपनी सी लगती हो |
होंठों पर मधुर मुस्कान लिये ,
कजरारी आँखों में प्यार लिये ,
जब तुम धीमी गति से चलती हो ,
मुझे बहुत प्यारी लगती हो
बचपन में तुम्हारा आना ,
मेरेपास से हँस कर गुजर जाना ,
फूलों से घर को सजाना ,
गुड़ियों का ब्याह रचाना ,
और बारात में हमें बुलाना ,
फिर सब का स्वागत करवाना ,
सब मुझे सपना सा लगता है ,
तब भी तुम्हें देखने का मन करता है ,
अब मैं तम्हें दूर से देखता हूँ ,
क्योंकि अब तुम मेरी
बचपन की दोस्त नहीं हो ,
अब तुम मेरी निगाह में ,
हर बात में , जजबात में
मुझसे बहुत दूर खड़ी हो ,
यह निश्छल प्यार का बंधन है ,
बीते बचपन का अभिनन्दन है ,
कॉलेज में साथ पढ़ते हैं ,
फिर भी दूरी रखते हैं ,
हर शब्द सोच कर कहते हैं ,
शायद मन में यह रहता है ,
कोई गलत अर्थ न लगा पाये
व्यर्थ विवाद ना हो जाये ।
जब तुम भी कहीं चली जाओगी ,
मैं भी कहीं दूर रहूँगा ,
दोनों अजनबी से बन जायेंगे ,
यदि जीवन के किसी मोड़ पर मिले ,
बीते दिन छाया चित्र से नजर आयेंगे ,
यादों के सैलाब उमड़ आयेंगे ,
हम उनमें फिर से खो जायेंगे |


आशा

,

19 मई, 2010

इंतज़ार अभी बाकी है

विरही मन चारों ओर भटकता है ,
हर आहट पर चौंक जाता है ,
शायद वह लौट कर आयेगी ,
इंतज़ार नहीं करवायेगी |
मैं तपता सूरज कभी नहीं था ,
पर शांत कभी न रह पाया ,
मयंक सा शीतल न हो पाया ,
उसे कभी न समझ पाया |
मैं कैसे इतना निष्ठुर निकला ,
ऐसा क्या गलत किया मैंने ,
मुझे भूल गई बिसरा बैठी ,
कहीं और तो नेह न लगा बैठी ?
उसे मेरी याद नहीं आई ,
क्यों मुझे समझ नहीं पाई ,
घंटों मोबाईल पर बातें ,
अक्सर चैटिंग भी करती थी |
वह यह सब कैसे भूल गयी,
बीता कल पीछे छोड गयी ,
मैं दीपक सा जलता ही रहा ,
पर उसे कभी झुलसने न दिया |
मैं ही शायद गलत कहीं हूँ ,
कैसे यह अलगाव सहूँ ,
मन उद्वेलित होता जाये ,
विद्रूप से भरता जाये |
मन का तिलस्म टूट गया ,
वह बैचेनी से भटक रहा ,
मुझ में ही कुछ कमी रह गयी ,
अपना उसे बना न पाया ,
घायल पंछी सा तड़पता रहा ,
ठंडी बयार न दे पाया |
फिर भी हर क्षण ,
उसकी याद सताती है ,
वह चाहे कुछ भी सोचे ,
इंतज़ार अभी तक बाकी है |


आशा

18 मई, 2010

दो किनारे नदिया के

दो किनारे नदिया के ,
होते है कितने बेचारे ,
साथ-साथ चलते हैं सदा ,
फिर भी मिल नहीं पाते ,
संगम को तरस जाते|
ये जन्म और मृत्यु जैसे नहीं होते ,
जो कभी एक न हो पाते ,
वे कभी साथ न चल पाते |
किनारों में है गहरा बंधन ,
यह बंधन नहीं है अनजाना ,
इसको किसीने न जाना ,
वे अलग-अलग तो रहते हैं ,
पर उनमें है गहरा बंधन ,
बंधन सेतु है बहता पानी ,
जिसका कोई नहीं सानी |
देख एक दूसरे को दोनों ,
आगे तो बढ़ते रहते हैं ,
हमराही भी कहलाते हैं ,
आगे बढ़ते हैं अनजानों से ,
चलते जाते बेगानों से ,
शायद हालातों से है समझौता ,
पर है यह समन्वय कैसा ,
समझौते की बात करें क्या ,
वे ख़ुद ही कटते जाते हैं ,
पर राह छोड़ नहीं पाते हैं |
यदि सलिला नहीं होती ,
शायद वे भी नहीं होते ,
अपना अस्तित्व कहाँ खोजते ,
साथ चले थे साथ चल रहे ,
आगे भी साथ निभायेंगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारण हैं वे ,
यह कैसे भूल पायेंगे ,
किसी के साथ चलने की,
होती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह |


आशा

17 मई, 2010

तीन चूहे

तीन चूहे थे |वे अपने आप को बहुत चतुर समझते थे |प़र वे बिल्ली से बहुत डरते थे |हर समय अपने आप को उससे बचाने की कोशिश में लगे रहते थे |एक दिन उनने सोचा की क्यों न वे अपने मकान बना लें रोज रोज का झंझट ही
समाप्त हो जाएगा |
पहले चूहे ताऊं ने अपना मकान कागज का बनाया ,
उसमें रंग बिरंगा दरवाजा लगवाया |
ख़ुद को बहुत सुरक्षित पाया |
दूसरे चूहे ठाऊँ ने एक किला बनवाया,
आसपास की खाई में दूध भरवाया ,
किले में अपने को अधिक सुरक्षित पाया |
तीसरा चूहा दाऊं था ,
वह बहुत असमंजस में था ,
आर्कीटेक्ट से नक्षा बनवाया ,
सीमेंट रेत से घर बनवाया ,
लोहे का दरवाजा लगवाया ,
अन्दर ख़ुद को सुरक्षित पाया |
बिल्ली भी कुछ कम नहीं थी ,
उसने एक तरकीब सोची,
पहुंची पहले ताऊं के घर ,
बोली "बेटा ताऊं ,बेटा ताऊं ,
क्या मैं घर के भीतर आऊं ",
ताऊं बोला " मौसी आज नहीं आना ,
मुझको है बाहर जाना "
पहले तो वह लौट चली ,
पर कुछ सोच लौट पड़ी ,
गुस्से मैं पंजा फैलाया ,
ताकत से घर पर दे मारा ,
कागज का मकान नष्ट हो गया ,
ताऊंबिल्ली का भोजन हो गया |
पेट भर गया जब बिल्ली का ,
उसका मूड ठीक हो गया |
दुसरे दिन बिल्ली देर से उठी ओर इधर उधर घूमने लगी |पर कुछ समय बाद उसे भूख सताने लगी उसको ख्याल आया की क्यों न वह ठाऊं के घर जाए ओर उसे अपना भोजन बनाए |
वह जल्दी से किले तक पहुंची ,
खाई देख हुई भोंच्क्की ,
केसे खाई पार करे ,
ओर किले तक पहुंचे ,
कुछ क्षण तक वह खडी रही,
फिर सारा दूधचट कर गई ,
ओर खाई पार कर गई |
एक छलांग में दीवार फांद कर,
ठाऊं को भी चट कर गई |
बात तीसरे दिन की है |जब बिल्ली को भूख लगी तब वह बेचैन हो रही थी | अब उसे दाऊं की याद आनेलगी |
ओर वह उसके घर की ओर चल दी |
जैसे ही उसने घर देखा ,
लोहे का दरवाजा देखा ,
घूम घूम बाहर से घर देखा ,
कोइ राह नजर न आई ,
उसके मन में उदासी छाई |
फिर भी हिम्मत न हारी,
मीठी आवाज में वह बोली ,
दाऊं दाऊं प्यारेदाऊं ,
"क्या नया घर नहीं दिखलाओगे ,
अपने घर नहीं बुलाओगे ",
दाऊं बहुत सीधा था वह भूल गया कि अपने घर में ही वह बहुत सुरक्षित है |घर दिखाने की लालसा में उसने
लोहे का दरवाजा खोल दिया |
जैसे ही बिल्ली अन्दर आई ,
मुंह से लार उसने टपकाई ,
फुर्ती से कूदी दाऊं पर ,
पंजे में कस कर पकड़ लिया ,
उसे भी पेट के हवाले किया |
सारे मकान खाली रह गये ,
तीनों चूहे नष्ट हो गए ,
बिल्ली मौसी से कोई भी नहीं बच पाया |तीनों की चतुराई बिल्ली के आगे न चल सकी

16 मई, 2010

सोच एक शाम की

शाम को झील के किनारे ,
बेंच पर बैठना अच्छा लगता है ,
हरियाली पास से देखना ,
सपना सा लगता है ,
झिलमिल करते बिजली के खम्भे ,
उनकी पानी में छाया ,
पानी में छोटी-छोटी कश्ती ,
दृश्य मनमोहक लगता है |
धीमी गति की लहरों में ,
अँधेरी रात के पहलू में ,
पानी में पैर डाले रखना ,
जब मन चाहे छप-छप करना ,
जल से नाता अपना रखना ,
मुझको बहुत प्यारा लगता है |
दूर एक छोटा सा मंदिर ,
मन्दिर में एक सुन्दर मूरत ,
रोशनी से भरा हुआ परिसर ,
भक्तों की भीड़ अपार जहाँ पर ,
मधुर ध्वनि घंटों की सुनकर ,
वहाँ पहुँचने का मन करता है |
अनिश्चय की दुविधा मिट जाती है ,
मन अभिमंत्रित हो जाता है ,
जल्दी से वहाँ पहुँच पाऊँ ,
प्रभु चरणों में शीश नवाऊँ ,
भगवत भजन में चित्त लगाऊँ ,
सारी चिंता बिसराऊँ ,
संसार चक्र से मुक्ति पाऊँ |


आशा

14 मई, 2010

अनमोल नज़ारा

गर्मी का मौसम और ठंडी बयार ,
झील का किनारा एक मदहोश शाम ,
सनोवर के पेड़ों की लम्बी होती छाया ,
पानी में हिलती डुलती जैसे कोई काया ,
है रंगीन फिज़ा ओर अनमोल नज़ारा |
पानी में दिखती हाउस बोट,
भाग जिसके लकड़ी से तराशे गये ,
बाहर और अन्दर का रख रखाव ,
उसमें चार चाँद लगाते हैं ,
अविस्मरणीय उसे बनाते हैं ,
पानी में घर और उसका अक्स ,
दोनों ही मन को लुभाते हैं |
जो लोग वहाँ ठहरते हैं ,
झील का नज़ारा देखते हैं ,
पा प्रकृति की गोद में ख़ुद को ,
अपने को धन्य समझते हैं |
उगता सूरज स्वर्णिम आभा ,
झील का मन मोहक नज़ारा ,
रंगों को कूची में ले कर ,
केनवास पर उसे उकेरते हैं |
बजरों में सजी दुकानों में ,
दूधिया रोशनी के साये में ,
दिखा रहे हर वस्तु सभी को ,
चाहत देने की लेने की ,
अपनी और खींच रही सबको ,
चहल पहल और गहमागहमी ,
सभी आकृष्ट हो जाते हैं ,
और खरीदार बन जाते हैं ,
आवश्यकता का सभी सामान ,
सब यहीं मिल जाता है ,
एक वृहद् बाज़ार नजर आता है |
व्यवहार शिकारे के मालिक का ,
अपनापन लिए हुए होता है ,
सब का ध्यान वे रखते हैं ,
सदा प्रसन्न वे दिखते हैं ,
वे कई बातें बताते हैं ,
अनेक संस्मरण सुनाते हैं ,
क्या पहले घटा क्या बीत गया ,
सारे पलों का हिसाब,
उनके होंठों पर होता है ,
मानों छोटे-छोटे मनकों को ,
कोई धागे में पिरोता है ,
बात चले यदि केशर की ,
केशर की क्यारी दिखाते हैं ,
असली ओर नकली केशर में ,
है क्या अन्तर समझाते हैं ,
घर से कहवा बनवा कर लाते ,
उसका स्वाद चखाते हैं ,
अपनापन अधिक दिखाते हैं |
कश्मीर की सुरम्य वादियाँ ,
चार चिनार की बहार ,
उस पर झील का आकर्षण ,
मन डल झील में खोता जाता है ,
धरती पर स्वर्ग नज़र आता है |


आशा

11 मई, 2010

यादें बचपन की


जब अतीत पर नजर पड़ी
भूली बिसरी यादों से जुड़ी
बचपन की याद सताने लगी
छुटपन की वे प्यारी यादें
निश्छल चंचल मीठी बातें
प्रथम वृष्टि की पहली बूँदें
खिली धूप में जल की बूँदें
मन प्रसन्न हो जाता था
आँगन में खेलना भाता था |
पानी में छप-छप और बरसातें
पन्ना फाड़ कॉपी से अपनी
कागज़ की छोटी नाव बनाना
उसको पानी में तैराना
साथ कश्ती के दूर तक जाना |
नाव यदि गल जाये तो
नाराज़गी मन की दिखलाना
हर एक बात याद आने लगी
फिर बचपन में पहुँचाने लगी |
फिर मन पहुँचा उस बगिया में
घंटो जहाँ खेला करते थे
झूलों पर झूला करते थे
कभी बेंच पर बैठे-बैठे
उड़ती चिड़िया देखा करते थे
धरती पर पड़े रंगीन पंख
कॉपी में सहेजा करते थे |
रंगीन पंख पत्थर और कागज़
बड़ा खज़ाना होते थे
बार-बार उनको दिखलाना
बस्ते में फिर उन्हें छुपाना
मन आह्लादित करता था
स्फूर्ति से मन भरता था |
पास ही एक छोटा तालाब
था जल से भरा रहता
वहाँ कई मछलियाँ रहती थी
वे भी मेरी परिचिता थीं |
बूँद हवा की लेने आतीं
कुछ क्षण सतह पर दिख जातीं
जल्दी से फिर डुबकी लेकर
पानी में नीचे बैठ जातीं
आगे पीछे ऊपर नीचे
तैर कर आगे बढ़ जाना
छोटा सा एक समूह बनाना
कैसे साथ रहा जाता है
सारी दुनिया को दिखलाना
मै भूल नहीं पाती बचपन
ऐसा था वो प्यारा जीवन
प्रथम पाठशाला जीवन की
कितनी बातें सिखा गई
सही राह दिखा गई |

आशा

10 मई, 2010

विश्वास

ऐ विश्वास जरा ठहरो ,
मुझसे ना नाता तोड़ो ,
जीवन तुम पर टिका हुआ है ,
केवल तुम्हीं से जुड़ा हुआ है ,
यदि तुम्हीं मुझे छोड़ जाओगे ,
अधर में मुझे लटका पाओगे ,
मेरा सम्बल कौन बनेगा ,
सारी विपदा कौन हरेगा ,
पूर्ण रूप से आश्रित तुम पर ,
तुम ही मेरे जीवन के धन ,
विश्वास यदि तुम खो जाओगे ,
मेरा सब कुछ ले जाओगे ,
मन का चैन तिरोहित होगा ,
अनास्था का समुंदर होगा ,
अडिग प्रेम के सारे बंधन ,
तार-तार हो जायेंगे ,
जीवन के अनेक रंग ,
सारे फीके पड़ जायेंगे ,
तुम प्रस्तर की मजबूत नींव ,
जीवन की बुनियाद तुम्हीं ,
सार्थक जीवन आश्रित तुम पर ,
सफल जीवन की माँग तुम्हीं ,
ऐ विश्वास यहीं ठहरो ,
मन में अविश्वास न भरने दो ,
वह मुझे नहीं जीने देगा ,
नहीं सत्य को सहने देगा |


आशा

09 मई, 2010

माँ

मातृ दिवस के उपलक्ष्य में ,
ममता का कोई मोल नहीं होता ,
हतभागा है वह जो इसे खो देता ,
माँ की ममता का कोई नहीं सानी ,
उसकी ममता है अथाह नहीं मैं अनजानी ,
उसके प्यार की थपकी ,
मुझे जब भी याद आ जाती हैं ,
आँखें नम हो जाती हैं ,
माँ की याद दिलाती हैं |


आशा
आप २१.१२.२००९ की पोस्ट माँ भी पढ़ें शायद आपको अच्छी लगे

07 मई, 2010

कुछ लोग ऐसे भी होते है

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं ,
जो कभी बड़े नहीं होते ,
मन की कुंठाओं को ढोते-ढोते ,
पार किये उम्र के कितने पड़ाव ,
पर बीच में कहीं ठिठक गये ,
मन में कई अवसाद लिये ,
बड़े कहलाने की चाहत
रखते हैं ,
पर संयत व्यवहार नहीं करते ,
कुंठाओं से नहीं उबर पाते ,
निंदा रस का स्वाद आत्मसात कर लेते हैं ,
पर निंदा का कोई अवसर ,
नहीं हाथ से जाने देते ,
हीन भावना के परिचायक ,
सब को तुच्छ समझते हैं ,
दुनियादारी से दूर बहुत ,
खुद को बहुत समझते हैं ,
दूरी सबसे रखते हैं ,
अहम भाव से भरे हुए ,
संकीर्ण मानसिकता के
पुरोधा होते हैं |


आशा

05 मई, 2010

उदासी का नामोंनिशां नहीं होगा


तुम गुमसुम से क्यूँ बैठे हो
कुछ अधिक उदास ही रहते हो
कोई तो ऐसी बात करो
जो तुमको भी रास आ जाये
मेरा मन भी बहला जाये
कुछ तुम सोचो कुछ मैं सोचूँ
दोनों का सोच यदिहो एक् सा
दुनिया रंगीन नजर आये
दुःख से दुनिया भरी हुई है
पर सुख की भी कोई कमी नहीं 
दुःख से तुम किनारा कर लो
सुख से ही बस नाता जोड़ो
सारे कष्ट भुला कर अपने
खुशियों से  रिश्ता जोड़ो
कुछ तुम बढ़ो कुछ मै बढूँ
दुनिया के सब बंधन तोडूँ
मेरा हाथ जब  थामोगे
मुझे अपने साथ  पाओगे
देखो दुनिया कितनी रंगीन
खुशियों से दामन भर लाओ
आने वाले कल को अपनाओ
खुशियों से भरा कल होगा
उदासी का नामोनिशां नहीं होगा |

आशा

04 मई, 2010

अनुपम छटा प्रकृति की

रात चाहे कितनी लम्बी हो
इसके बाद सुबह होती है
बाल सूर्य की प्रथम किरण
अंधकार को धो देती है |
मंद हवा का स्पंदन
खुशबू से भरता उपवन
फूलों से गंध चुरा लाया
सारे उपवन को महकाया |
बाल सूर्य की स्वर्णिम किरणें
चारों ओर बिखरने लगीं
मन बंजारा ठहर गया
स्वर्णिम आभा में सराबोर हुआ |
प्रकृति की रंगीन छटा
अंतस में घर करने लगी
अरुणाई समस्त व्योम की
अपनी बाँहों में भरने लगी|
अमलतास के  फूलों से
पीली धरती पीला उपवन
पुष्प गुच्छों में स्पंदन
उनमें से किरणों का विचरण |
रंग बिरंगे फूलों से
सजा हुआ पूरा उपवन
मन भावन दृश्य उभरने लगा
अंतरमन में सिमटने लगा |
सूरज की किरणों का
स्वागत करता पूरा मधुवन
मन प्रफुल्लित हो जाता है
प्रकृति में रमता जाता है |
चिड़ियों का कलरव उड़ना उनका
मन के तारों को छूने लगा
मन झंकृत होने लगा
यह अद्भुत छटा प्रकृति की
अनुपम देन वन देवी की |


आशा

03 मई, 2010

यदि ऐसा होता


उपालंभ तुम देते रहे
हर बार उन्हें वह सहती रही
जब दुःख हद से पार हुआ
उसका जीना दुश्वार हुआ
कुछ अधिक सहा और सह न सकी
उसका मन बहुत अशांत हुआ
पानी जब सिर से गुजर गया
उसने सब पीछे छोड़ दिया
निराशा मन में घर करने लगी
जीने का मोह भंग हुआ
अपनी खुशियाँ अपने सुख दुःख
मुट्ठी में बंद किये सब कुछ
अरमानों की बलिवेदी पर
खुद की बली चढ़ा बैठी
जीते जी खुद को मिटा बैठी
दो शब्द प्यार के बोले होते
दिल के रहस्य खोले होते
जीवन में इतनी कटुता ना होती
वह हद को पार नहीं करती
सदा तुम्हारी ही रहती |


आशा

01 मई, 2010

बंधन प्रेम का

कुछ ऐसी बात करो मुझसे ,
जो मेरे मन पर छा जाये ,
आहत पक्षी की तरह ,
मुझको भी जीना आ जाये |
आज मुझे छोड़ कर ,
तुम कैसे जा पाओगे ,
यह है एक ऐसा बंधन ,
जिसको ना तोड़ पाओगे |
प्रेम पाश में बाँध कर मेरे ,
खींचते चले आओगे ,
मुझ से बच कर दूर बहुत ,
आखिर तुम कहाँ जाओगे |
मैंने जो प्यार दिया तुमको
उसे कैसे झुठलाओगे ,
मुझ को दंश प्रेम का दे कर ,
तुम कैसे जा पाओगे |
मेरे साथ बिठाये हर पल ,
छाया बन कर साथ चलेंगे ,
यह निस्वार्थ प्रेम का बंधन ,
कैसे उसे भुला पाओगे |


आशा

30 अप्रैल, 2010

जीने की ललक अभी बाकी है

स्वत्व पर मेरे पर्दा डाला ,
मुझको अपने जैसा ढाला ,
बातों ही बातों में मेरा ,
मन बहलाना चाहा ,
स्वावलम्बी ना होने दिया ,
अपने ढंग से जीने न दिया |
तुमने जो खुशी चाही मुझसे ,
उसमें खुद को भुलाने लगी ,
अपना मन बहलाने लगी ,
अपना अस्तित्व भूल बैठी ,
मन की खुशियाँ मुझ से रूठीं ,
मैं तुम में ही खोने लगी |
आखिर तुम हो कौन ?
जो मेरे दिल में समाते गए ,
मुझको अपना बनाते गए ,
प्रगाढ़ प्रेम का रंग बना ,
उसमें मुझे डुबोते गए |
पर मैं ऊब चुकी हूँ अब ,
तुम्हारी इन बातों से ,
ना खेलो जज़बातों से,
मुझको खुद ही जी लेने दो ,
कठपुतली ना बनने दो ,
उम्र नहीं रुक पाती है ,
जीने की ललक अभी बाकी है |


आशा

29 अप्रैल, 2010

ख़ुद ही कविता बन जाओगी

मैंने देखा जब से तुम को ,
कुछ लिखने का मन करता है ,
तुम सामने बैठी रहो ,
एक कविता बनती जायेगी ,
सुंदरता का गहरा रंग ,
कविता में समाता जायेगा ,
सौंदर्य बोध जागृत होगा ,
मन में घर करता जायेगा ,
सौंदर्य के सभी आयाम ,
कविता में आते जायेंगे ,
कविता बढ़ती जायेगी ,
कलम न रुकने पायेगी ,
ऐसा लगता है मुझ को ,
मैं अपनी सुधबुध खो बैठूँगा ,
अधिक समय यदि तुम ठहरीं ,
खुद ही कविता बन जाओगी |


आशा

28 अप्रैल, 2010

तपिश

खत चाहे जितने भी जला दो ,
मुझको न भूल पाओगे ,
अपनी चाहत को भी तुम ,
कैसे झुठला पाओगे ,
मेरी चाहत की ऊँचाई ,
तुम कभी न छू पाओगे ,
उस आग की तपिश में ,
खुद ही झुलसते जाओगे |

आशा

27 अप्रैल, 2010

बंधन जाति का

खिली कली बीता बचपन
जाने कब अनजाने में
दी दस्तक दरवाज़े पर
यौवन की प्रथम सीढ़ी पर
जैसे ही कदम पड़े उसके
आँखों ने छलकाया यौवन
हर एक अदा में सम्मोहन
वह दिल में जगह बना बैठी
सजनी बन सपने में आ बैठी |
धीरे-धीरे कब प्यार हुआ
साथ जीने मरने का
जाने कब इकरार हुआ
छिप-छिप कर आना उसका
मन के सारे भेद बता कर
जी भर कर हँसना उसका
निश्छल मन चंचल चितवन
आनन पर लहराती काकुल
मन में कर देती हलचल |
जब विवाह तक आना चाहा
जाति प्रथा का पड़ा तमाचा
ध्वस्त हुए सारे सपने
कोई भी नहीं हुए अपने |
माँ बाबा ने उसे बुला कर
मुझसे दूर उसे ले जा कर
एक जाति बंधु से ब्याह रचाया
उसका मुझसे नाता तुड़वाया
मुझ में ऐसी क्या कमियाँ थीं
मै तो समझ नहीं पाया |
जाति में मन चाहा वर
भाग्यशाली ही पाता है
अक्सर यह लाभ
कुपात्र ही ले जाता है
वह थोड़ा बहुत कमाता था
बहुत व्यस्त है दर्शाता था
ऐसा भी कोई गुणी नहीं था
जिस कारण अकड़ा जाता था
सारी हदें पार करता था
बेबसी पर खुश होता था |
पहले तो वह झुकती जाती थी
हर बार पिता की इज्जत का
ख्याल मन में लाती थी
फिर घुट-घुट कर जीना सीख लिया
समाज से डरना सीख लिया |
मैं भी दस-दस आँसू रोया
फिर दुनियादारी में खोया
एक लम्बा अरसा बीत गया
यादों को मन में दफना कर
उन पर पर्दा डाल दिया
अब जीवन चलता पटरी पर
कहीं नहीं भटकता पल भर |
तेज हवा की आँधी सी वह
मेरे सामने खड़ी हुई थी
बहुत उदास आँखों में आँसू
खंडित प्रतिमा सी लग रही थी
उसके आँसू देख न पाया
जज्बातों को बस में करके
उसका हाल पूछना चाहा
पहले कुछ न बोल पाई
फिर धीरे से प्रतिक्रिया आई
ऐसा कैसा जाति का बंधन
जो बेमेल विवाह का कारक बन
जीने की ललक मिटा देता
कितनों का जीवन हर लेता |
जब उसकी व्यथा कथा को जाना
मनोदशा को पहचाना
नफरत से मन भर आया
विद्रोही मन उग्र हुआ
जाति प्रथा को जी भर कोसा |


आशा

26 अप्रैल, 2010

क्षणिका

ये आँसू सरल नहीं होते ,
आँखें तक नम नहीं करते ,
इनके लिये सौहार्द्र चाहिये ,
मन की पीड़ा का ताप चाहिये ,
तभी कहीं ये बह पायेगे ,
बाढ़ नदी की बन पायेंगे|

आशा

23 अप्रैल, 2010

नन्हा सा बीज

नन्हा सा बीज कहीं से आया
नदिया तट पर पैर जमाया
प्रकृती नटी की महिमा देखो
धरती पर हरियाली लाया
बहती नदिया की तीव्र गति
माटी बहा कर ले जाती
यदि वृक्ष का साथ नहीं पाती
कारण कटाव का बन जाती
तट पर पेड़ों की गहरी मूल
कस कर अपने प्रेम पाश में
माटी को जकड़े समूल
नदिया तट तोड़ नहीं पाती
मर्यादा छोड़ नहीं पाती
धरती क्षय होने से बच जाती
नदिया उथली ना हो पाती
पेड़ों की महिमा बहुत अधिक 
इतना सा संदेशा लाती
बड़े वृक्ष घनेरी छाया
कितनों का बनते हैं सहारा
पंछी का बसेरा बनते 
पंथी को छाया देते हैं
फल फूल और औषधियों से
मन में सुकून भर देते हैं
सब को खुश कर देते हैं
प्रकृति नटी का विशिष्ट नज़ारा
हरियाली व  नदी का किनारा
मन उसमें रमता जाता 
नन्हा सा बीज बन वृक्ष बड़ा
दिल में घर करता जाता  |


आशा

21 अप्रैल, 2010

सच्चा मित्र

केवल जज्बातों में बह कर ,
उसको तुम क्या जानोगे ,
यदि वक्त पर आया काम ,
तभी उसे पहचानोगे ,
दुर्योधन ने निजी स्वार्थ वश ,
कर्ण को अपना मित्र बनाया ,
अंग देश का दिया राज्य ,
पर सच्चा मित्र ना बन पाया ,
दुनिया में सब कुछ मिलता है ,
पर असली मित्र ना मिल पाता ,
वह बहुत भाग्यशाली है ,
जो सच्चे दोस्त को पा जाता ,
अच्छे के सारे साथी हैं ,
अपना प्यार जताते हैं ,
यदि बुरा वक्त आ जाये ,
सब कन्नी काट चले जाते हैं ,
बुरे समय में जो अपनाये ,
ग़लत सही की पहचान कराये ,
सही राह पर ले कर आये ,
सच्चा मित्र वही कहलाये ,
हर अच्छे और बुरे समय में ,
मन से पूरा साथ निभाये ,
सरल सहज और पारदर्शी हो ,
मन की भाषा पढ़ना चाहे,
पर्दे की ओट से भी ,
जो सहज पहचाना जाये ,
कृष्ण सुदामा की मिसाल बन ,
तुम पर अपना सर्वस्व लुटाये ,
ऐसे मित्र की तलाश में ,
ज़ज्बातों का काम नहीं ,
समय बहुत प्रबल होता है
इसका तुम्हें अहसास नहीं
जिस दिन सच्चा मित्र मिलेगा
मन से तुमको अपनायेगा
सच्चा मित्र वही होगा
जो सही राह दिखलायेगा |


आशा

19 अप्रैल, 2010

वर्तमान

कालचक्र चलता जाता
ना रुका कभी ना रोका जाता
बीता कल लौट नही पाता
मन अशांत करता जाता
फिर क्यूँ सोचूँ जो बीत गया
जो ना लौटा और रीत गया
अतीत पीछे छूट गया
जो बीत गया सो बीत गया
जीवन की कटुता से सीखा
बीता कल सहज नहीं होता
यदि अतीत में खोते जाओ
वर्तमान में जी ना पाओ
उस कल में ना जीना चाहूँ
जिसका कोई पता नहीं
केवल कोरी कल्पना में
क्यों मैं अपना समय गवाऊँ
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
अगला पल किसने देखा है
फिर भविष्य की कल्पना में
क्यूँ भावुक हो बहती जाऊँ
उस कल की क्या बात करूँ
जो अनिश्चित है अनजाना है
ऐसे आगत की चिंता में 
क्यूँ मैं अपना आज गवाऊँ
मैं वर्तमान में जीती हूँ
क्षण-क्षण का मोल समझती हूँ
हर पल का पूरा हिसाब रखा
मैं सही आकलन करती हूँ
समय का काँटा घूम रहा
वह तेजी से भाग रहा
अग्र भाग के केशों से
समय को पकड़े रहती हूँ
मैं जब दिल को बहलाना चाहूँ
इधर उधर साधन अनेक
उनमें से कुछ को चुन कर
अपना जीवन जीना चाहूँ
जो बीत गया वो ना लौटा
आने वाला कल किसने देखा
सब के सुख दुःख अपना कर
मैं यथार्थ में रहती हूँ
अनजाने लोग अनजान शहर
उनमें अपनापन पाकर
हर पल को खुशियों से भर कर
मैं वर्तमान में जीती हूँ |
आशा

16 अप्रैल, 2010

प्रकृति से

हरी भरी बगिया में देखा ,
रंग बिरंगे फूल खिले ,
हरियाली छाई पेड़ों पर ,
फले फूले और खूब सजे ,
तरह-तरह के पक्षी आये ,
उन पेड़ों पर नीड़ बनाए ,
पर इक छोटी सी चिड़िया ,
आकृष्ट करे पंख फैलाये,
उसकी मीठी सी स्वर लहरी ,
जब भी कानों में पड़ जाये ,
एक अजीब सा सम्मोहन ,
उस ओर बरबस खींच लाये,
चूंचूं चूंचूं चींचीं चींचीं ,
चूंचूं चींचीं करती चिड़िया ,
इस डाल से उस डाल तक ,
पंख फैला कर उड़ती चिड़िया,
दाना पानी की तलाश में ,
बहुत दूर तक जाती चिड़िया ,
फिर पानी की तलाश में ,
नल कूप तक आती चिड़िया ,
जल स्त्रोत तक आना उसका ,
चोंच लगा नल की टोंटी से ,
बूँद-बूँद जल पीना उसका ,
मुझको अच्छा लगता है ,
घंटों बैठी उसे निहारूँ ,
ऐसा मुझको लगता है ,
मुझको आकर्षित करता है |
तिनका-तिनका चुन कर उसने ,
छोटा सा अपना नीड़ बनाया ,
उसी नीड़ में सुख से रहती ,
अपने चूजों को दाना देती ,
उसका समर्पण देख- देख कर ,
अपना घर याद आने लगता है ,
बच्चों की चिंता होती है ,
मन अस्थिर होने लगता है ,
कैसे घर समय पर पहुँचूँ ,
चिंता मुझको होती है ,
जब घर पहुँच जाती हूँ ,
तभी शांत मन हो पाता है ,
चिड़िया की मेहनत और समर्पण ,
बार-बार याद आते हैं ,
उसको देख बिताए वे पल ,
यादगार क्षण बन जाते हैं |


आशा

12 अप्रैल, 2010

नव चेतना

आज सुबह जब पेपर खोला ,
मुख्य पृष्ठ पर मैंने देखा ,
हाई अलर्ट कई राज्यों में ,
नक्सलियों ने हमला बोला ,
कितनों की जान गई आखिर ,
कितनों को पीछे रोता छोड़ा,
यह कैसी विडम्बना है,
या समाज की अवहेलना है ,
या राजनीति की घटिया चालों का,
एक छोटा सा नमूना है ,
नेताओं से लड़ने की ताकत ,
कोई भी न जुटा पाया ,
जो हिम्मत कर आगे आया ,
उसे जड़ से मिटता पाया ,
जिसने भी आवाज उठाई ,
या हथियार उठा कुछ विरोध किया ,
उसको माओवादी बोला ,
या नक्सली करार दिया ,
उसे समूल नष्ट करने का ,
बारम्बार विचार किया ,
वे आदिवासी भोले भाले ,
खुद में मस्त रहने वाले ,
उनके जजबातों से खेला ,
अपनी-अपनी रोटी सेकी ,
उनको केवल इस्तेमाल किया ,
उनकी आखिर चाहत क्या है,
कोई कभी न समझ पाया ,
केवल सतही बातों से ,
उनको अस्त्र बनाता आया ,
वे हैं कितने बेबस कितने लाचार ,
कोई नहीं जान पाया ,
राजनीति तो अंधी है ,
उसने केवल मतलब देखा ,
मतलब को पूरा करने को ,
आदिवासी को मरते देखा ,
कहने को तो सब कहते हैं ,
हर समस्या का हल होता है ,
पर इतनी लम्बी अवधि में ,
कोई भी हल न निकल पाया ,
शोषण कर्ता के खेलों का ,
कभी तो अंत होना है ,
यह है कैसा बोझ ,
जिसे समाज को ढोना है ,
क्या समाज सम्वेदनशील नहीं है ,
या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है ,
कब जागरण आएगा ,
इन सब से मुक्ति दिलायेगा ,
जैसे दिन में तपता सूरज ,
कइयों को झुलसाता है ,
त्राहि त्राहि वे करते हैं ,
मन मसोस रह जाते हैं,
पर शाम होते ही सूरज ,
थक कर अस्त हो जाता है ,
आम आदमी उसकी गिरफ्त से ,
कुछ तो राहत पाता है |


आशा

11 अप्रैल, 2010

चाँद, मैं और मेरी बेटी

तारों भरी रातों में ,
अक्सर भर जज़बातों में ,
तारों से बातें होती हैं ,
अपनों की याद सँजोती हैं ,
तारों की चमक और आकाश गंगा ,
रातों की संबल होती है,
तारों को जी भर कर देखा ,
और अपनों को याद किया ,
अपना तारा खोजा मैंने ,
उस पर रहने का विचार किया ,
झिलमिल तारों की बारात छोड़,
जैसे ही पूर्ण चंद्र आया ,
चाँदनी का आकर्षण ,
मुझे बाहर खींच लाया ,
ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे ,
चुपके से आना उसका ,
कभी दीखती बहुत चपल ,
फिर गुमसुम हो जाना उसका ,
धीमी घुँघरू की छनछन,
मन में तरंग जगाने लगी ,
मीठे गीतों की स्वर लहरी ,
बन तरंग छाने लगी,
चाँदनी की शीतलता का ,
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ ,
जब चाँद को देखा मैंने ,
छिपे प्यार का इज़हार हुआ ,
इतने में इक तारा टूटा ,
सपना मेरी चाहत का ,
इसी समय मन में फूटा ,
जल्दी से नयन मूँदे अपने ,
टूटे तारे से मैंने ,
मन की मुराद को माँग लिया ,
जब मैं बहुत छोटी सी थी ,
मेरी माँ अक्सर कहती थी ,
चन्दा में एक बुढ़िया रहती है ,
वह चरखे पर बैठ सदा ,
सूत कातती रहती है ,
मैंने बहुत ध्यान से देखा ,
वह बुढ़िया नज़र नहीं आई ,
केवल काले-काले धब्बे ,
और ना कुछ देख पाई,
जब चाहत मेरी रंग लाई ,
पूर्ण चंद्र सी बेटी ,
मेरे आँगन में उतर आई ,
दमन खुशियों से भर लाई ,
वह अक्सर चाँद देखती है ,
उसको पाने को कहती है ,
काफी सोच विचार किया ,
फिर से याद पुरानी आई ,
आँगन में ले आई थाली ,
उस में भर पानी मैंने ,
थाली में चाँद उसे दिखाया ,
उसे खुशी से झूमता पाया ,
फिर चाँद पकड़ने की कोशिश में ,
नन्हा हाथ थाली तक आया ,
जैसे ही हाथ थाली तक पहुँचा ,
चंदा को दूर खुद से पाया ,
वह प्रश्न अनेकों करती है ,
कई-कई सोच बदलती है ,
चंदा क्यूँ पास नहीं आता ,
ऐसे क्यूँ उसको तरसाता ,
वह तो उससे मिलना चाहे ,
इतनी सी बात ना समझ पाता ,
चरखे वाली नानी शायद ,
उसको नहीं आने देतीं ,
या है कोई अन्य समस्या ,
उसको नहीं खेलने देती ,
चंदा तो सदा दूर ही होगा ,
कभी पास ना आयेगा ,
यह कैसे उसको समझाऊँ ,
उसका मन कैसे बहलाऊँ |


आशा