24 जून, 2011

कैसे तुझे भुलाऊँ


तू यहाँ रहे या वहाँ रहे

जहां चाहे वहाँ रहे

कभी रूठी रहे

या मन जाए

पर बहारों का पर्याय है तू

मीठी यादों का बहाव है तू |

चेहरे की मुस्कराहत

अठखेलियाँ करती अदाएं

अखियों की कोर सजाता काजल

लगा माथे पर प्यारा सा डिठोना

किसी की नजर ना लग जाए |

तेरी नन्हीं बाहों की पकड़

कसती जाती थी

जब भी बादल गरजते थे

दामिनी दमकती थी

वर्षा की पहली फुहार

तुझे भिगोना चाहती था |

आगे पीछे सारे दिन

मेरा पल्ला पकड़

इधर उधर तेरा घूमना

गोदी में आने की जिद करना

राह में हाथ फैला कर रुक जाना

बाहों में आते ही मुस्कराना

जाने कितनी सारी बातें हैं

दिन रात मन में रहती हैं

कैसे उन्हें भुलाऊँ

तू क्या जाने

तू क्या है मेरे लिए |

आशा

22 जून, 2011

विश्वास मन का



मंदिर गए मस्जित गए

और गिरजाघर गए

गुरुद्वारे में मत्था टेका

चादर चढाई मजार पर |

कई मन्नतें मानीं

कुछ इच्छाएं पूरी हुईं

कई अधूरी रह गईं

तब अंतर मन ने कहा

है यह विश्वास मन का

ना कि अंध विश्वास किसी धर्म का

होता वही है

जो है विधान विधि का |

क्या अच्छा और क्या बुरा

,हर व्यक्ति जानता है

फिर भी भटकाव रहता है

सब के मन में |

जान कर भी जानना नहीं चाहता

अनजान बना रहता है

,मन की शान्ति खोजता है

जिसका मन होता स्वच्छ और निर्मल

वह उसके बहुत करीब होता है |

जब आख़िरी दिन होगा

हर बात का हिसाब होगा

सब कर्मों का लेखा जोखा

यहीं दिखाई दे जाएगा |

आशा

21 जून, 2011

ऐसी ही है जिंदगी


कभी लगती पुष्पों की सेज सी

कभी डगर काँटों की

कभी पेंग बढाते झूले सी

ऐसी ही है जिंदगी |

देखते ही देखते

यूं ही गुजर जाती है

कैसे करें भरोसा इस पर

कभी भी साथ छोड़ जाती है |

जो भी इसे समझ पाया

सामंजस्य स्थापित कर पाया

वही अपने हिसाब से

अपने तरीके से जी पाया |

जिसने इसे नहीं समझा

इसका मोल नहीं आंका

इसे भोग नहीं पाया

वह भी तो इससे जुदा हुआ |

किसी ने बेवफा कहा इसे

कुछ ने मुक्ति मार्ग का नाम दिया

जाने कितनों ने इसे उपकार कहा

प्रभु की अनमोल देन समझा |

वह भी ऐसी

जो जन्म के साथ मिली हो

फिर वह बेवफा कैसे हो

जिसमें वफा ही भरी हो |

संगी साथी सब छूट जाते हैं

कभी स्मृतियों में

खोते जाते है

कभी विस्मृत भी हो जाते हैं |

है जिंदगी ऐसा अनुभव

जो दौनों ही पाते हैं

कुछ याद रखते हैं

कई भूल जाते हैं |

आशा

|

18 जून, 2011

क्यूँ दोष दूं किसी को


सुबह से शाम तक

फिरता रहता हूँ

सड़क पर

यहाँ वहाँ |

फटी कमीज पहने

कुछ खोजता रहता हूँ

शायद वह मिल जाए

मेरे दिल की दवा बन जाए |

मेरी गरीबी

मेरी बेचारगी

कोई समझ नहीं सकता

जिसे मैं भोग रहा हूँ |

एक दिन मैंने देखा

वह खुले बदन

ठण्ड से काँप रहा था

ना जाने क्यूँ

मुझे दया आई

अपनी गरीबी याद आई

कमीज उतारी अपनी

उसे ही पहना दी |

उसकी आँखों की चमक देख

संतुष्टि का भाव देख

मन में अपार शान्ति आई |

बस अब मेरे साथी हैं

यह फटा कुर्ता और पायजामा |

तेल बरसों से

बालों ने न देखा

आयना भी ना देखा

कभी खाया कभी भूखा रहा

फिर भी हाथ ना फैलाया |

क्या करू हूँ गरीब

समाज से ठुकराया गया

यह जिंदगी है ही ऐसी

कुछ भी न कर पाया |

गरीबी के दंशों से

बच भी नहीं पाया |

क्यूँ दोष दूं किसी को

हूँ पर कटे पक्षी सा

फिर भी रहता हूँ

अपनी मस्ती में |

जहां किसी का दखल नहीं है

कोई पूंछने वाला नहीं है

मुझे किसी की

ना ही किसी को

मेरी जरूरत है |

आशा

17 जून, 2011

अब वह कॉलेज कहाँ


कॉलेज की वे यादें

आज भी भूल नहीं पाती

मन में ऐसी बसी हैं

अक्सर याद आती हैं |

प्राध्यापक थे विद्वान

अपने विषयों के मर्मग्य

उच्च स्तरीय अध्यापन निपुण

और अनुकरणीय |

विद्यार्थी कम होते थे

स्वानुशासित रहते थे

कई गतिविधियां

खेल कूद और सांस्कृतिक भी

सौहार्द्र पूर्ण होती थीं |

उनमें भाग लेने की ललक

अजीब उत्साह भारती थी

जब जीत सुनिश्चित होती थी

या पुरूस्कार मिलता था

तालियों से स्वागत

गौरान्वित करता था |

थी एक मसखरों कई टोली

था काम गेट पर खड़े रहना

आते जाते लोगों को

बिना बात छेड़ते रहना

फिर भी बंधे थे मर्यादा से |

रिक्त काल खण्डों में

बागीचा था उन की बैठक

चुटकुले और शेर शायरी

या हास परिहास में

व्यस्त रहते थे|

सब के नाम रखे गए थे

जब भी कोई चर्चा होती थी

होता था प्रयोग उनका

हँसने का सामान जुट जाता था |

हंसी मजाक और चुहलबाजी

तक सब थे सीमित

लड़के और लडकियां आपस में

यदा कडा ही मिलते थे |

दत्त चित्त हो पढते थे

प्रोफेसर की नजर बचा

कक्षा में कभी लिख कर

बातें भी करते थे |

जब भी अवसर मिलता था

शरारतों का पिटारा खुलता था

हँसते थे हंसाते थे

पर दुखी किसी को ना करते थे |

अब वैसा समय कहाँ

ना ही वैसे अध्यापक हैं

और नहीं विद्यार्थी पहले से

आज तो कॉलेज लगते हैं

राजनीति के अखाड़े से |

आशा

15 जून, 2011

प्रक्रिया परिवर्तन की



बोया बीज पौधा उगा

जाने कब पेड़ बन गया

कली से फूल

और फिर फल बन गया

यह परिवर्तन कब हुआ

जान नहीं पाया |

रंग बिरंगी तितली

उड़ती फिरती डाल डाल

मकरंद चुरा कर फूलों का

ले जाती जाने कहाँ

यह रंग रूप कहाँ से पाया

जान नहीं पाया |

नन्हां बच्चा

बढते बढते जाने कब

वयस्क हो गया

और फिर बूढा हुआ

परिवर्तन तो देखा

पर कैसे हुआ कब हुआ

अनुभव ही नहीं हुआ |

कब परिवर्तन होते हैं

दिन में या रात में

या सतत होते रहते हैं

प्रकृति के आँचल में

राज न जान पाया |

है यह करिश्मा प्रकृति का

या कोई निर्देश नियति का

इससे भी अनजान रहा

पर उत्सुक हूँ अवश्य

जानना चाहता हूँ

कब होती है प्रक्रिया

तिल तिल बढ़ने की |

आशा

है सम्बन्ध असंभव

है सामान्य कद काठी ,काला रंग भ्रमर सा
रिश्ते की चाहत ने उसे ,बेकल बनाया है |

तेज पैनी निगाह से ,पहले देखता रहा
दिखाए झूठे सपने ,उसे बहकाया है |

उसकी बातें सभी को ,प्रभावित कर जातीं
अपनी झूठी बातों से ,दुःख पहुंचाया है |

सौ बात की एक बात ,सम्बन्ध है असंभव
उसके व्यवहार ने ,मन को दुखाया है |

आशा

13 जून, 2011

स्वार्थ सर्वोपरी


सारी सत्ता सारा बैभव

यहीं छूट जाता है

बस यादे रह जाती हैं

व्यक्तित्व की छाप की |

आकर्षण उनका भी

उन लोगों तक ही

सिमट जाता है

यदि कोई काम

उनका किया हो

या कोई अहसान

उन पर किया हो |

कुछ लोग ऐसे भी हैं

होता कोई न प्रभाव जिन पर

जैसे ही काम निकल जाता है

रास्ता तक बदल जाता है |

कहीं कुछ भी होता रहे

अनजान बने रहते हैं

भूले से भी यदि

पहुंच गये

तटस्थ भाव

अपना लेते हैं

जैसे पह्चानते ही न हों |

क्यूँ कि संवेदनाएं

मर गई हैं

वे तो वर्तमान में जीते हैं

कल क्या होगा

नहीं सोचते |

यदि दुनिया के सितम

बढ़ गए

उन्हें कंधा कौन देगा

उनके दुःखों को

बांटने के लिए |

आशा

11 जून, 2011

यहाँ कुछ नहीं बदलता


जब देखे अनेक चित्र
ओर कई रँग उसके
जाने की इच्छा हुई
अनुभव बढ़ाना चाहा |

समझाया भी गया
वहाँ कुछ भी नहीं है
जैसा दिखता है
वैसा नहीं है |

पंक है अधिक
कुछ खास नहीं है
जो भी वहाँ जाता है
उसमें फंसता जाता है|

पर कुछ पौधे ऐसे हैं
जो वहाँ ही पनपते हैं
फलते फूलते हैं
हरे भरे रहते हैं |

राजनीति है ऐसा दलदल
जहां नोटों की है हरियाली
जो भी वहाँ जाता है
आकण्ठ डूबता जाता है |

सारी शिक्षा सारे उसूल भूल
सत्ता के मद में हो सराबोर
जिस ओर हवा बहती है
वह भी बहता जाता है |

उस में इतना रम जाता है
वह भूल जाता है
वह क्या था क्या हो गया है
अस्तित्व तक गुम हो गया है |

कभी तिनके सा
हवा में बहता है
फिर गिर कर उस दलदल में
डूबने लगता है |

तब कोई मदद नहीं करता
आगे आ हाथ नहीं थामता
है यह ऐसा दलदल
यहाँ कुछ भी नहीं बदलता |


आशा












10 जून, 2011

हर कहानी अधूरी है


कई कथानक कई कहानियां
पढ़ी सुनी और मनन किया
पर हर कहानी अधूरी लगी
थी अच्छी फिर भी कहीं कमी थी |
जीवन के किसी एक पक्ष को
करती है वह उजागर
पर जो भी कहा जाता है
पूरे जीवन का सत्व नहीं है |
अनगिनत घटनाएं
होती रहती हैं
कुछ तो यादगार होती हैं
भुला दिया जाता कुछ को |
कभी अच्छी लगती हैं
आघात कभी दे जाती हैं
यदि बहुत विचार किया
मन चंचल कर जाती हैं |
अंत जीवन का हो
या कहानी का
जब भी लिखा जाए
अधूरा ही रह जाता है |
कितना भी विचार कर
लिखा जाए
आगे और भी
लिखा जा सकता है |
इसी लिए लगता है
हर कहानी चाहे जैसे लिखी जाए
उसके आगे और भी
लिखा जा सकता है |

आशा



08 जून, 2011

है यह कैसा प्रजातंत्र


सत्य कथन सत्य आचरण
देश हित के लिए
बढ़ने लगे कदम
सोचा है प्रजातंत्र यहाँ
अपने विचार स्पष्ट कहना
है अधिकार यहाँ |
उसी अधिकार का उपयोग किया
सत्य कहा
कुछ गलत ना किया
फिर भी एक चिंगारी ने
पूरा पंडाल जला डाला
कितने ही आह्त हुए
गिनती तक ना हो पाई
सक्षम की लाठी चली
आंसुओं की धार बही
धारा थी इतनी प्रवाल कि
विचारों को भी बहा ले चली |
दूर दूर तक वे फैले
जनमानस में
चेतना भरने लगे
उन्हें जाग्रत करने के लिए
फिर भी अंदर ही अंदर
सक्षम को भी हिला गए |
स्वतंत्र रूप से अपने विचार
सांझा करने का अधिकार
क्या यहाँ नहीं है
जब कि देश का है नागरिक
स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की नहीं है |
आज भी बरसों बाद भी
मानसिकता वही है
जोर जबरदस्ती करने की
अपना अपना घर भरने की
आदत गई नहीं है |
यदि कोई सही मुद्दा उठे
नृशंसता पूर्ण कदम उठा
उसे दबा देने की
इच्छा मरी नहीं है |
है यह कैसा प्रजातंत्र
जो खून के आंसू रुलाता है
है कुछ लोगों की जागीर
उनको ही महत्त्व देता है |
यदि कोई अन्य बोले
होता है प्रहार इतना भारी
जड़ से ही हिला देता है
पूरी यही कोशिश होती है
फिर से कोई ना मुंह खोले |

आशा




07 जून, 2011

वास्तविकता कोयल की


जैसे ही ग्रीष्म ऋतु आई

जीवों में बेचैनी छाई

वृक्ष आम के बौरों से लदे

आगई बहार आम्र फल की |

पक्षियों की चहचाहट

कम सुनने को मिलती थी

मीठी तान सुनाती कोयल

ना जाने कहाँ से आई |

प्रकृति सर्वथा भिन्न उसकी

रात भर शांत रहती थी

होते ही भोर चहकती थी

उसकी मधुर स्वर लहरी

दिन भर सुनाई देती थी |

जब पेड़ पर फल नहीं होंगे

जाने कहाँ चली जाएगी

मधुर स्वर सुनाई न दे पाएंगे

वातावरण में उदासी छाएगी |

दिखती सुंदर नहीं

कौए जैसी दिखती है

पर मीठी तान उसकी

ध्यान आकर्षित करती है |

घर अपना वह नही बनाती

कौए के घोसले में चुपके से

अंडे दे कर उड़ जाती

वह जान तक नहीं पाता |

ठगा जाता नहीं पहचानता

ये हैं किसके ,उसके अण्डों के साथ

उन्हें भी सेता बड़े जतन से

गर्मीं दे देखभाल करता |

बच्चे दुनिया में आ, बड़े होते

जब तक वह यह जानता

वे उसके नहीं हैं

तब तक वे उड़ चुके होते |

कहलाता कागा चतुर

फिर भी ठगा जाता है

है अन्याय नहीं क्या ?

कोयल का रंग काला

पर है मन भी काला

कौए सा चालाक पक्षी भी

उससे धोखा खा जाता |

आशा

04 जून, 2011

ये अश्रु


ये अश्रु हैं हिम नद से
यूँ तो जमें रहते हैं
पर थोड़ी ऊष्मा पाते ही
जल्दी से पिघलने लगते हैं |
ले लेते रूप नदी का
कभी बाढ भी आती है
तट बंध तोड़ जाती है
जाने कितने विचारों को
साथ बहा ले जाती है |
तब जल इतना खारा होता है
विचारों के समुन्दर से मिल कर
साथ साथ बह कर
थी वास्तविकता क्या उसकी
यह तक याद नहीं रहता |
अश्रु हैं इतने अमूल्य
व्यर्थ ही बह जाना इनका
बहुत व्यथित करता है
बिना कारण आँखों का रिसाव
मन पर बोझ हो जाता है |
आशा





03 जून, 2011

अनोखा जीवन मनुष्य का


जल में तैरतीं इठलातीं
रंग बिरंगी मछलियां
भोजन की तलाश में
यहाँ वहाँ जाती मछलियां |
तितलियाँ उड़ातीं फिरतीं
एक फूल से दूसरे पर
मकरंद का रस लेतीं
जब तक जीतीं
आकण्ठ डूबी रहतीं
मस्ती में |
पर मनुष्य ऐसा कहाँ
वह तो है उपज
विकसित मस्तिष्क की |
सोचता है कुछ
करता कुछ और है
कभी खाली नहीं रहता
खोजता रहता
नायाब तरीके धनोपार्जन के |
वे हों चाहे नैतिक या अनैतिक
बस वह तो यही जानता है
धन तो धन ही है
चाहे जैसे भी आए |
मानता हैजीवन का आधार उसे |
आकण्ठ डूब कर उसमें
अपने आप को
कृतकृत्य मानता है |
समाज भी ऐसे ही लोगों को
देता है मान प्रतिष्ठा
जो धनिक वर्ग से आते हैं
अपने को सर्वोपरी मानते हैं |
अंत समय आते ही
याद आता है ईश्वर
जिसे पहले कभी पूजा ही नहीं
यदि पूजा भी तो रस्म निभाई |
जो प्रेम दूसरों से किया
था केवल दस्तूर दुनिया का
अब कुछ भी न रहा |
मन में अवसाद लिए
दुनिया छोड़ चला
वह मछली सा या तितली सा
कभी ना बन पाया |
आशा








02 जून, 2011

दूर कहीं चले जाते


पहले उनका इन्तजार
बड़ी शिद्दत से किया करते थे
हर वक्त एक उम्मीद लिए
नजरें बिछाए रहते थे |
इन्तजार उसका क्यूँ करें
जिसने हमें भुला दिया
जब उसे ही हमारी फिक्र नहीं
गैरों से गिला क्यूँ करें |
हाले दिल बयां क्यूँ करें
परेशानी का सबब क्यूँ बनें
जब रुलाने में ही उसे मजा आए
उसकी खुशी में इज़ाफा क्यूँ करें |
गर अल्लाह से कुछ मांगते
जो भी पाते खैरात में देते जाते
दवा तो लगती नहीं
तब सदका भी उतारते
दुआ से ही काम चला लेते
वह भी अगर नहीं मिलाती
जिंदगी से पनाह मांग लेते |
वह भी अगर भुला देते
तब दूर कहीं चले जाते
उससे रहते दूर बहुत
दामन भी कभी ना थामते |
आशा |



आशा

बेचैन पक्षी


नीलाम्बर में  
प्रकृति के आँचल में
नीली छतरी के नीचे
यहाँ वहाँ उड़ते फिरते 
थे स्वतंत्र फिर भी 
भयाक्रांत रहते थे |
डर कर  चौंकते थे 
विस्फोटों से 
कर्ण कटु आवाजों से
पंख फैला कर उड़ते 
या  उन्हें फड़फड़ाते
कभी आँखें मूँदे 
अपने कोटर में 
या पत्तियों की आड़ में दुबके 
यही  सोचते रहते थे
ना  जाने कब परिवर्तन होगा
भय मुक्त वातावरण होगा
डर  डर कर कब तक जियेंगे
कैसे ये दिन बीतेंगे |
जब  सुखद वातावरण होगा
मौसम सुहावना होगा
बाधा मुक्त जीवन होगा
भय मुक्त हो
स्वतंत्र विचरण करेंगे |
प्रसन्न मन  दाना चुगेंगे
स्वच्छ  जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
बेचैनी  से दूर बहुत
वृक्षों पर बैठ
चहकेंगे  चहचहाएंगे |

आशा






01 जून, 2011

चाँद भी लजाया है

चितचोर बना मोर
पंख फैला थिरकता |
रंगों की छटा देखता
मन में समाया है |
ये मधुर स्वर सुन
कानों में गूंजती धुन |
जब स्वर पास आया
और पास लाया है |

है अद्भुद रूप तेरा
आकर्षित करता है |
अपने जादू से तूने
सब को लुभाया है |
काकुल चहरे पर
आ छु गयी इस भांति
काली घटा देख कर
चंद्र शरमाया है |

मधुर मुस्कान भरी
ऐसी प्यारी छवि तेरी |
देखी सुंदरता तेरी
चाँद भी लजाया है |
आशा




31 मई, 2011

भरम टूट ना जाए


इस बेरंग उदास  जिंदगी में
तुम बहार बन  कर आए
काली घटाएं जब छाईं
स्नेह की फुहार बन  कर आए |
रास्ता भूली भटक गयी
गंतव्य तक ना पहुँची
तभी सही मार्ग दर्शन दिया
मेरी राह बन कर आए |
इस सूखी बंजर भूमि पर
बहुत थी वीरानगी
नए पौधे लगाए
हरियाली बन कर छाए |
अब सजने लगे सपने
कई लगने लगे अपने
आसपास बने झूठे आवरण से
बाहर मुझे निकाल पाए |
नैराश्य भरे जीवन में
 कुछ इस तरह छाए
जैसे किसी सरोवर में
कई कमल खिलाए |
इस बेरंग जीवन में
जब सब से दूर रही
 अवसाद ने जड़ें जमाईं
मेरे लिए मनुहार बन कर आए |
मैं हूँ बहुत खुश
आज की स्थिती के लिए
कहीं जाने की बात ना करना
कहीं मेरा भरम टूट ना जाए |
आशा



29 मई, 2011

कुछ समय आदिवासियों के संग

जब पहली बार साथ गयी
था दिन हाट का
कुछ  सजे संवरे आदिवासी
करने आए थे बाजार
थीं साथ महिलाएं भी |
मैं  दरवाजे की ओट से
देख रही थी  हाट  की रौनक
उन्हें  जैसे ही पता चला
कुछ मिलनें आ गईं
पहले सोचा क्या बात करू
फिर  लोक गीत सुनना चाहे
उनकी मधुरता लयबद्धता
आज  तक भूल नहीं पाई|
थे  गरीब पर मन के धनी
गिलट  के जेवर ही काफी थे
रूप निखारने के लिए
केश विन्यास की विशिष्ट शैली
मन को आकृष्ट कर रही थी |
धीरे से वे पास आईं
घर आने का किया आग्रह
फिर  बोलीं जरूर आना
 स्वीकृति  पा प्रसन्न  हो   चली गईं |
प्रातः काल हुए तैयार
कच्ची सड़क पर उडाती धूल
गराड पर चलती हिचकोले खाती
आगे बढ़ने लगी जीप|
जब मुखिया के घर पहुंचे
हतप्रभ हुए स्वच्छता   देख
था  झोंपडा कच्चा
पर चमक रहा था कांच सा |
द्वार  सजा मांडनों से
भीतरी  दीवार सजी
तीर कमान और गोफन से
मक्का  की रोटी और साग
साथ थी  छाछ  और स्नेह का तडका
वह स्वाद आज तक नहीं भूली  |
दिन ढला शाम आई
फिर  रात में चांदनी  नें पैर पसारे
सज धज कर सब  आए   मैदान में |
ढोल  की थाप पर कदम से कदम मिला
गोल घेरे में मंथर गति से थिरके
नृत्य और  गीतों का समा था ऐसा
पैर रुकने  का नाम न लेते थे |
एक  आदिवासी बाला ने मुझे  भी
  नृत्य में शामिल किया
वह अनुभव भी अनूठा था
रात कब बीत गयी पता ही नहीं चला |
सुबह हुई कुछ बालाओं नें
अपनी विशिष्ट शैली में
मेरा  केश विन्यास किया
कच्चे कांच की मालाओं से सजा
काजल  लगाया  उपहार दिए
वह साज सज्जा आज भी भूली नहीं हूँ
वह  प्यार वह मनुहार
आज भी बसी है  यादों में |
अगली हाट  पर 
भिलाले आदिवासी  भी  आए
बहुत आग्रह से आमंत्रित किया
पर हम नहीं जा पाए
एक  अवसर खो  दिया उनको जानने का
उनका प्रेम पाने का |
आशा



























28 मई, 2011

अन्तर मन


तेरे मन के अन्दर
है ऐसा आखिर क्या |
जो कोइ नहीं देखता
तुझे नहीं जानता |
हल्की सी छाया दिखती
तेरा वजूद जताती |
तूने भी न पहचाना
पर मैं उसे देख पाया |
देखा तो तूने भी उसे
पर अनदेखा किया |
मुँह और फेर लिया
यह क्या उचित था |
यदि उलझन नहीं
है क्या यह बेचारगी |
तू कितना सोचती है
अंतस में खोजना |
तभी तो जान पाएगी
कुछ कहना सुनाना |
फिर सोचना गुनना
सक्षम तभी होगी |
अपने को समझेगी
ख़ुद को पा जाएगी |
चमकेगी चहकेगी
रूठी ना रहेगी |

आशा


26 मई, 2011

ज़रा सोच कर देखो


सारे सुख सारी सुविधाएं

पा कर भी कुछ नहीं किया

झूठी सच्ची बातों से

सारे घर को बहकाया |

हर सुविधा का दुरूपयोग किया

खुद को बहुत योग्य समझा

सभी की सलाहों को

समय की बरबादी समझा |

इधर उधर यारी दोस्ती में

बहुमूल्य समय बरबाद किया

क्या यह भी कभी सोचा

आखिर भविष्य क्या होगा |

यह भी जानना नहीं चाहा

बीता कल लौट कर नहीं आता

जब अपनी अंक सूची दिखाओगे

दस जगह ठुकराए जाओगे |

आगे बढ़ने के लिए

कोई रास्ता नहीं होगा

हर ओर अन्धकार होगा

तब तक बहुत देर हो जाएगी |

आज की मौज मस्ती

और यही भटकाव

जीवन भर सालता रहेगा

दुःख के सिवाय कुछ भी

प्राप्त न हो पाएगा |

अपने को नियंत्रित रखने के लिए

सफलता पाने के लिए

प्रलोभनों से बचने के लिए

कष्ट तो उठाने पड़ते हैं

पर जब मीठा फल मिलता है

आनंद कुछ और होता है |

आशा

24 मई, 2011

प्रकृति की गोद में


मैं चाहती हूँ

सोचती हूँ दूर कहीं जंगल में

घनघोर घटाओं से आच्छादित

व्योम तले बैठ नयनों में समेट

उस सौंदर्य को

अपने मन में छुपा लूं

और उसी में खो जाऊं |

यह भूल जाऊं कि मैं क्या हूँ

मेरा जन्म किस लिए हुआ

इस घरा पर आने का

उद्देश्य पूरा हुआ या अधूरा रहा |

बस अपने आस पास

प्रकृति का वरद हस्त पा

मन की चंचलता से

बेचैनी से कहीं दूर जा

एक नए आवरण से

खुद को ढका पाऊँ |

सताए ना भूख प्यास

ना ही रहूँ कभी उदास

चिंता चिता ना बन जाए

केवल हो चित्त शांत

खुलें अंतर चक्षु व मुंह से निकले

है यही जीवन का सत्व

बाकी है सब निरर्थक |

मधुर कलरव पक्षियों का

चारों ओर छाए हरियाली

हो कलकल करती बहती जल धारा

उसी में खो जाऊं |

हर ऋतु का अनुभव करू

आनंद लूं

एकाकी होने के दुख से

दूर रहूँ सक्षम बनूँ

दुनियादारी से दूर बहुत

सुरम्य वादियों में खो जाऊं

वहीँ अपना आशियाना बनाऊँ |

आशा