11 जून, 2013

घट छलका


  एक बदरा कहीं से आया 
मौसम पा अनुकूल उसने
डेरा अपना फलक पर जमाया 
 वहीं रुकने का मन बनाया |
दूजे ने पीछा किया
गरजा तरजा
वरचस्व की लड़ाई में 
उससे जा टकराया |
बाहुबल के प्रदर्शन में 
आपसी टकराव में 
दामिनी दमकी
व्योम रौशन किया |
जल  भरा घट छलका
धरती तक आया 
प्रथम वृष्टि की बूंदों से 
वृक्षों ने अवगाहन किया |
नव किशालयों ने
 पूरे उत्साह से 
हवा के  झोंकों के साथ 
वर्षा की नन्हीं बूंदों का 
दिल खोल स्वागत किया |
पंछी चहके गीत गाए
हो विभोर   टहनियों पर झूले
बिछी श्वेत चादर पुष्पों की
उनने  भी सन्मान दिया |
भीनी सुगंध पुष्पों की
 सोंधी खुशबू मिट्टी की 
गवाह उनकी हुई 
खुशनुमां मौसम को
 और हसीन कर गयी |
आशा



09 जून, 2013

शब्द प्रपात


जीवन एक झरने सा बहता 
कल कल निनाद करता 
बाधाएं अटल चट्टान सी 
मार्ग में मिलतीं 
टकराता राह बदलता 
पर विचलित ना होता 
निर्वाध गति से आगे बढ़ता
 मार्ग की हर बाधा से 
हो सहष्णु समझौता करता 
मन मुदित होता जब कोइ आता 
अपने मनोभाव जताता 
सुख दुःख मुझसे सांझा करता 
अटूट बंधन प्रेम का 
मेरे उसके बीच का
और प्रगाढ़ होता 
मन वीणा का तार 
अधिक झंकृत होता 
प्रगति पथ पर बढ़ने की
बार बार प्रेरणा देता
मैं निर्झर निर्मल 
शब्द प्रपात हो रहता |
आशा




04 जून, 2013

आवास आत्मा का

अस्थि मज्जा से बना यह पिंजर 
प्राण वायु से सिंचित 
दीखता  सहज सुन्दर 
आकृष्ट सभी को करता |
पर कितना असहाय क्षणभंगुर
कष्टों को  सह नहीं पाता
तिल तिल मिटता
बेकल रहता तिलामिलाता
किरच किरच बिखरता शीशे सा
यहीं निवास अक्षय आत्मा का 
है आभास उसे
 पिंजर के स्वभाव का |
ओढ़े रहती  अभेद्य कवच 
कभी क्षय नहीं होती 
एक से अलग होते ही 
दूसते घर की तलाश करती
अपना स्वत्व मिटने न देती |
है कितना आश्चर्य 
पिंजर नश्वर पर वह नहीं 
होते ही मुक्त उससे 
समस्त ऊर्जा समेत 
उन्मुक्त पवन सी
अनंत में विचरण करती 
सदा सोम्य बनी रहती |
जैसे ही तलाश पूर्ण होती
पिछला सब कुछ भूल
नवीन कलेवर धारण करती 
नई डगर पर चल देती |
आशा








23 मई, 2013

भोला बचपन


Photo



 ममता की छाँव में
परवान चढ़ पल्लवित होता
प्यारा सा भोला सा बचपन 
माँ के दुलार में खोया रहता 
 कुंद के पुष्प सा महकता
मीठी लोरी सुनता बचपन |
प्यार भरी थपकिया पा 
चुपके सेआँखें मूंदता 
सोने का नाटक करता
फिर धीरे से अँखियाँ खोल
माँ को बुद्धू बनाता बचपन |
मधुर मुस्कानअधरों पर ला
मीठी मीठी बातों से
सारी थकान मिटाता 
अपना प्यार जताता
माँ का सबसे प्यारा बैभव |
कभी कभी गुस्सा करता
रूठता मनमानी करता
जब तक बात पूरी ना हो
रो रो घर सर पर उठाता
पर जल्दी से मन भी जाता
बहता निर्मल धारा सा |
बेटी हो या बेटा
शैशव तो शैशव ठहरा
 कोई  फर्क नहीं पड़ता
आँगन में कुहुकता
माँ का प्यार बांटता
उसका  आँचल थाम
ठुमक ठुमक  चलता बचपन |
आशा |



20 मई, 2013

कितना नीरस होता

एक हथोड़ा व एक बांसुरी 
एक साथ रहते 
जीवन कितना गुजर गया
यह तक नहीं सोचते  |
था हथोड़ा कर्मयोगी 
महनतकश  पर हट योगी 
सदा भाव शून्य रहता 
खुद को बहुत समझता |
थी बांसुरी स्वप्न सुन्दरी 
कौमलांगिनी भावों से भरी
मदिर मुस्कान बिखेरती 
स्वप्नों में खोई रहती |
जब भी ठकठक सुनती 
तंद्रा उसकी भंग होती 
आघात मन पर होता 
तभी वह विचार करती |
क्या कोइ स्थान नहीं उसका 
उस कर्मठ के जीवन में 
पर शायद वह सही न थी 
भावनाएं सब कुछ न थीं 
जीवन ऐसे नहीं चलता 
ना ही केवल कर्मठता से |
जो डूबा रहता भावों में 
कल्पना की उड़ानों  में
तब घर घर नहीं रहता 
संधर्ष सदा होता रहता |
यह कैसा संयोग कि 
दौनों साथ साथ रहते 
एक दूसरे को समझते 
आवश्यकताएं जानते 
एक की कर्मठता 
और दूसरे की भावनाएं 
यदि साथ ना होतीं 
जीवन कितना नीरस होता |
आशा







17 मई, 2013

नैसर्गिक कला

प्यारे प्यारे कुछ पखेरू
चहकते फिरते वन में 
पीले हरे  से अलग दीखते
पेड़ों के झुरमुट में
एक विशेषता देखी उनमें 
कभी न दीखते शहरों में |
वर्षा ऋतु आने के पहिले
 नर पक्षी तिनके चुनता 
एक नीड़ बनाने में 
इतना व्यस्त होता 
श्रम की अदभुद मिसाल दीखता |
उस नीड़ की संरचना
 आकर्षित करती
 हर जाने आने वाले को
पेड़ से लटका हुआ
 फिर  भी इतना सुदृढ़ कि 
कोई नष्ट ना कर पाए 
वायु के थपेड़े हों 
या किसी का प्रहार |
एक दिन ले प्रियतमा 
पखेरू आया वहां 
सुखी संसार बसाया अपना
था प्रवेश मार्ग वहां 
संगिनी बाट जोहती 
 झांकती उसमें से 
 अपने प्रिय के आने की |
था एक अद्भुद नगर सा 
कुछ जोड़े रहते थे 
कुछ मकान खाली भी थे 
चूजों की आहट आतीं थीं 
लगते थे धर आवाद |
पर सब पखेरू  उड़ गए 
कुछ अंतराल के बाद
अब वहां कोइ न था 
बस थे  घौंसले रिक्त
फिर भी था अटूट बंधन उनका 
उन वृक्षों की डालियों  से  |








14 मई, 2013

मैं और शब्द

सृष्टि के अनछुए पहलू 
उनमें झांकने की 
जानने की ललक
बारम्बार आकृष्ट करती 
नजदीकिया उससे बढ़तीं 
वहीं का हो रह जाता 
आँचल में उसके 
छिपा रहना चाहता 
भोर का तारा देख 
सुबह का भान होता 
दिन कब कट जाता 
जान न पाता
तारों भरी रात में 
सब लगते विशिष्ट 
कहीं जुगनूं चमकते 
उलूक ध्वनि करते 
चिमगादड़ जतातीं 
अपनी भी उपस्थिति वहां 
जो दृश्य सजोए वहां 
बंद किये आँखों में 
भावनाओं पर ऐसे छाए 
अनेकों रंग नजर आये 
ह्रदय पटल पर हुए साकार 
एकांत पलों में अद्भुद सुकून पा
मन फिर वहीं जाना चाहता 
कल्पना के पंख लगा 
 ऊंची उड़ान भरता 
अनोखे विचार उपजते 
तब शब्द शब्द नहीं रहते 
उनमें ही वे भी रंग जाते 
फिर लिवास नवीन  पहन
सज धज कर नया रूप धर 
सबके समक्ष आते |
आशा






13 मई, 2013

कामवाली बाई

 


शादी के मौसम में
व्यस्त सभी बाई रहतीं
सहन उन्हें करना पड़ता
बिना उनके रहना पड़ता
उफ यह नखरा बाई का
आये दिन होते नागों का
चाहे जब धर बैठ जातीं
नित नए बहाने बनातीं
यदि वेतन की हो कटौती
टाटा कर चली जातीं
 लगता है जैसे हम गरजू हैं
उनके आश्रय में पल रहे हैं
पर कुछ कर नहीं पाते
मन मसोस कर रह जाते |
आशा

11 मई, 2013

विराम सृजन का



शनेशने बढ़ते जीवन में 
कई बिम्ब उभरे बिखरे 
बीती घटनाएं ,नवीन भाव 
लुका छिपी खेलते मन में 
बहुत छूटा कुछ ही रहा 
जिज्ञासा को विराम न मिला 
अनवरत पढ़ना लिखना 
चल रहा था चलता रहा 
कुछ से प्रशंसा मिली 
कई निशब्द ही रहे 
अनजाने में मन उचटा 
व्यवधान भी आता रहा
मानसिक थकान भी 
जब तब  सताती
जाने कितना कुछ है 
विचारों के समुन्दर में 
कैसे उसे समेटूं 
पन्नों पर सजाऊँ 
बड़ा विचित्र यह
 विधान विधि का
असीमित घटना क्रम 
नित्य नए प्रयोग 
यहाँ वहां बिखरे बिखरे 
सहेजना उनको 
लगता असंभव सा तभी
दिया विराम लेखन को 
जो पहले लिखा
 उसी पर ही
मनन प्रारम्भ किया 
यादें सजीव  हो उठीं 
उन में फिर से खोने लगा  
अशक्त तन मन को
 उसी में रमता देख 
वहीं हिचकोले लेने लगा 
शायद है यही पूर्णविराम 
सृजन की दुनिया का |
आशा



08 मई, 2013

आधुनिक बिटिया


खून पसीने से सींचा 
पालापोसा बड़ा किया 
जाने कितनी रातें
 आँखों आँखों में काटीं
पर उसे कष्ट न होने दिया 
पढ़ाया लिखाया 
सक्षम बनाया 
जो हो सकता था किया
पर रही पालने में कही कमीं 
बेटी बेटी न रही 
कितनी बदल गयी 
जिस पर रश्क होता था 
कहीं गुम हो गयी
जाने कब खून सफेद हुआ 
संस्कार तक भूली 
धन का मद ऐसा चढ़ा
खुद में सिमट कर रह गयी 
यही व्यवहार उसका 
मन पर वार करता
 आहत कर जाता 
हो अपना खून या पराया 
रिश्ता तो रिश्ता ही है 
 सूत के कच्चे  धागे सा 
अधिक तनाव न सह पाता
 झटके से टूट जाता 
ममता आहत होती
दूरी बढ़ती जाती |




06 मई, 2013

चिड़िया

एक चिड़िया नन्हीं सी 
टुवी टुवी करती
प्रसंनमना उड़ती फिरती 
डालियों पर 
एक से दूसरी पर जाती 
लेती आनंद झूलने का 
एकाएक राह भूली 
झांका खिड़की से 
भ्रमित चकित 
कक्ष में आई 
चारो ओर दृष्टिपात करती
पहले यहाँ वहां बैठी 
सोच रही  वह कहाँ आ गयी 
दर्पण देख रुकी 
टुवी टुवी करती
मारी चोंच उस पर 
आहत हो कुछ ठहरी
फिर वार पर वार किये 
मन ने सोचा 
लगता कोइ दुश्मन 
जो उसे डराना चाहता 
पर यह था केवल भ्रम
उसके अपने मन का 
यूं ही आहत हुई 
जान नहीं पाई 
कोई अन्य न था 
था उसका ही अक्स 
जिससे वह जूझ  रही थी 
बिना बात यूं ही 
भयभीत हो रही थी |
आशा




04 मई, 2013

आनंद कुछ और ही होता

तारों भरे आकाश में 
ले ज्योत्सना साथ में 
मयंक चला भ्रमण करने 
अनंत व्योम के विस्तार में 
सभी चांदनी में नहाए 
ज्योतिर्मय हुए 
क्या पृथ्वी क्या आकाश 
पर पास के अभयारण्य में 
यह सब कहाँ 
धने पेड़ों की टहनियां
 आपस में बात करतीं
आपस की होती सुगबुगाहर 
विचित्र सी आवाज से
मन में भय भरती
सांय सांय चलती हवाएं 
आहट किसी अनजान के 
पद चाप की
अदृश्य शक्ति का अहसास करा 
भय दुगुना करती 
कभी छन कर आती रौशनी में 
कोई छाया दिखाई देती 
मन में भय उपजता 
सही राह न दिखाई देती 
एकाएक ठिठकता सोचता 
कहीं यह भ्रम तो नहीं 
साहस कर कदम आगे बढाता 
फिर भी अकेलापन सालता 
काश कोइ साथ होता 
राह तो दिखाता 
चांदनी रात में तब घूमने  का
आनंद कुछ और ही होता |
आशा





02 मई, 2013

बेचैन मन


 सारे पखेरू उड़ गए
हुआ घोंसला खाली
ठूंठ अकेला रह गया
छाई ना हरियाली
आँगन सूना देख
मेरा मन क्यूं घबराए ना
क्यूं गाऊँ मैं गीत
मुझे कुछ भी भाए ना
सभी व्यस्त अपने अपने में
समय का अभाव बताते
रहते अपनी दुनिया में
उनकी ममता जागे ना
मैं अकेली रह गयी
अक्षमता का बोध लिए
पर डूबी माया मोह में
यह बंधन छूटे ना
यह जन्म तो बीत चला
तेरी पनाह में
है अटूट विशवास तुझ पर
पर मन स्थिर ना रह पाता
अभी है यह हाल
आगे न जाने क्या होगा |

30 अप्रैल, 2013

अनुगूंज

जहां देखती हूँ 
वहीं तुझे पाती हूँ 
तेरी गूँज सुनाई देती 
 सृष्टि के कण कण में |
 ऊंची नीची पगडंडी पर 
पहाड़ियों से धिरी वादी में 
बढ़ता कलरव परिंदों का 
मन हुआ गाने का 
उनका साथ निभाने का
जैसे ही स्वर छेड़ा
अपने ही स्वर गूंजे 
प्रत्यावर्तित हुए |
विचारों में खोई आगे बढ़ी
एकांत में बैठ सरिता तट पर 
देखा उर्मियाँ टकराती चट्टान से 
तभी विशिष्ट ध्वनी होती 
कानों में गुंजन करती |
मैंने पाया एक सुअवसर 
प्रकृति के सानिध्य का 
सुना संगीत साथ देते 
कलकल ध्वनि करते जल का |
 तभी दूर से आती ध्वनि 
व्यवधान बनी कर्ण कटु  लगी
टूटी श्रंखला विचारों की
सोचा यह कहाँ से आई |
अनायास बादल गरजे 
बादलों के  गर्जन तर्जन की
टकराई ध्वनि पहाड़ियों से 
हुई प्रत्यावर्तित 
गूँज उसकी तीव्र हुई 
क्या यही अनुगूंज है ?
शब्द नश्वर नहीं होते 
जब भी कुछ कहा जाता 
वे विलीन हो जाते
 किसी निसर्ग में
कहीं न कहीं सुनाई देती 
उनकी अनुगूंज भुवन में 
जिसे हम अनुभव करते 
अनुगूँज जब होती
सत्य जीवन का उजागर होता 
जिसे भौतिक और नश्वर 
जगत न जान पाता |
आशा




28 अप्रैल, 2013

एक बुलबुला

शाम ढले विचरण करता 
जा पहुंचा सरिता तट पर 
वृक्षों की छाँव तले
बहती जल की धारा 
था मौसम बड़ा सुहाना 
मन भी उससे हारा 
वहीं रुका और बैठ गया 
जल में पैर डाल अपने 
अस्ताचल को जाता सूरज 
 अटखेलियाँ जल से  करता 
दृश्य ने ऐसा बांधा 
उठने का मन न हुआ 
सहसा ठहरी दृष्टि 
जल में उठता बुलबुला देख 
पहले था वह नन्हा सा 
फिर बड़ा हुआ और फूट गया 
वह देखता ही रह गया 
वे एक से अनेक हुए 
बहाव के साथ बहे 
थोड़ी दूर  तक गए 
फिर विलीन जल में हुए 
विचारों ने ली करवट 
सिलसिला शुरू हुआ 
जीवन के बिभिन्न पहलुओं  की
सतत चलती प्रक्रिया का 
उसके समापन का 
सृष्टि का यही तो क्रम है 
क्या सजीव क्या निर्जीव में 
उसे लगा खुद का जीवन 
पानी के एक  बुलबुले सा |
आशा





25 अप्रैल, 2013

सुकून खो गया


मैं खोती तो दुःख न होता
राह खोज ही लेती 
मंजिल तक पहुँच मार्ग 
 बना ही लेती |
पर हूँ परेशान इसलिए 
कि मेरा सुकून खो गया है 
अकारण मन बहुत 
बेचैन हो गया है |
अब तो मुस्कुराने पर भी 
अधिभार लगता है
बाहर कदम बढाने पर 
परमिट लगता है |
यदि भूली कोइ प्रमाणपत्र
बहुत शर्म आती है 
पढ़े लिखे होने  का तमगा
 चूंकि माथे पर लगा है |
मुझसे तो वे ही अच्छी हैं 
जो हैं निपट गंवार 
आत्म बल तो है उनमें 
भय नहीं स्वतंत्र विचरण में |
खोखली मान्यताओं ने 
निर्बल बना दिया 
सुकून भी खोज न पाई
जाने कहाँ भूल आई |
आशा



23 अप्रैल, 2013

बदलाव

गर्मीं में ये सर्द हवाएं  
कितनी अजीब लगतीं 
बेमौसम की बरसातें
जीवन अस्तव्यस्त करती |
खेतों में सूखा अनाज था 
सारा गीला हो गया 
किसान की चहरे की  खुशी 
अपने साथ ही निगल गया |
बीमारी ने धर दबोचा
छोटे बड़े सभी को
मौसम में बदलाव 
रास न आया सब को |
जाने क्या है प्रभु की मर्जी 
शान्ति नहीं रहती 
कुछ न कुछ होता रहता है 
सुखानुभूति नहींहोती |
मौसम बदला तेवर बदले
आम आदमी के पर
मन तैयार न हो पाया
हर शय से जूझने को |
आशा




20 अप्रैल, 2013

अद्भुद और विलक्षण

रंगों से खेलता बालक 
तूलिका ले हाथ में 
 तन्मय चित्र बनाने में 
था व्यस्त अपने आप में |
आहट से चौंका
चेहरे पर सवालिया भाव देख 
सकुचाया ,शरमाया 
फिर धीमे से मुस्काया |
बिना कुछ कहे 
अपनी कृति यहीं छोड़ 
खेलने भाग गया 
पर उत्सुकता जगा गया |
जब देखा 
क्या बनाया उसने ?
बड़ा अद्भुद नजर आया
विलक्षण उसे पाया  |
जितनी बार उसे देखता 
जिस भी कौण से देखता
कुछ नया दिखाई देता 
जो मुझे प्रेरणा देता |
बहुत सहेज कर रखा उसे 
नित्य नए चित्र बनाए
मैं खोजने लगा कृतियों में
बालक की प्रतिभा को |
एक दिन वह फिर  आया
अपना भाईचारा जताया 
बने चित्र देखना चाहे 
मैंने सारे आगे कर दिए |
 हर चित्र मनोयोग से देखता 
अपनी प्रतिक्रया भी देता 
जैसे ही वह चित्र देखा 
निशब्द ,देखता ही रह गया |
मैंने ही पूछ लिया 
तुमने यह क्या   बनाया   ?
विशिष्ट चमक से चेहरा दमका 
पर प्रतिउत्तर ना दिया |
हंसा और भाग निकला 
जैसे कह रहा हो 
खुद ही सोच लो 
है क्या इसमें |
आशा










16 अप्रैल, 2013

हो क्यूं उदास

जिसे जाना था चला गया 
हो क्यूं उदास इतने 
छोड़ो सारी बातों को 
जिनसे दुःख उपजे |
वहां जाना अवश्य 
दुआ भी करना 
पर आंसूं न बहाना 
कष्ट उसे ना पहुंचाना |
सूक्ष्म रूप धारण किये
 वह भी तुम्हे निहारता होगा 
याद भी करता होगा 
पर तुम्हें बता नहीं सकता |
जो यादें वह
 पीछे छोड़ गया 
उन्हें जीवित रख
सहज सफर उसका करना
वह लौट तो न पायेगा 
स्मृतियों में उसे
 जीवित रखना |
उसकी हर बात 
जो हंसाती थी
 गुदगुदाती थी 
बहुत सहेज कर रखना |
तब ही वे लम्हे जी पाओगे 
यादें जब ताजा होंगी 
तब अकेले नहीं होगे 
उसके बहुत करीब होगे 
उदासी भूल जाओगे |





13 अप्रैल, 2013

नव गीत

है प्रेरित
 नव विचारों से 
ना ही बंधा
 किसी बंधन से 
है उद्बोधक 
सरल सहज 
नव सोच का 
उत्साह से परिपूर्ण 
नव गीत 
नव विधा में
चेतना जागृत करता 
भाव मधुर
 मुखरित होते 
सत्य से 
पीछे न हटते 
सद विचारों से
घट भरता
जब छलकता
 बहकता
हर तथ्य 
उजागर करता
है सोच
 युवा वर्ग का
चेतना है 
जाग्रति है 
अभिव्यक्ति है |
जन मानस का 
समस्त सोच
 समाहित होते
इस में 
परिलक्षित होते
नव गीत के रूप में |





09 अप्रैल, 2013

नव वर्ष

आप सब को नव वर्ष के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभ कामनाएं यहाँ नव वर्ष कैसे मनाया जाता है देखिये :-

नव संवत्सर का प्रथम दिवस
घर घर सजे दरवाजे 
साड़ी की गुड़ियों से 
  शुभ कामनाएं दे रहे परस्पर 
प्यार से गले मिल कर 
नौ दिन तक उपवास करते 
महिमा गाते दुर्गा माँ की 
जौ,तिल घी लौंग की आहुति दे
 हवन करते
वायुमंडल की शुद्धि करते
पूरम पूरी ,गुजिया और
देते प्रसाद चने की दाल का 
सौहाद्र का इजहार करते 
कच्चे आम की कैरी का पना 
लगता बड़ा स्वादिष्ट
आज भी है परम्परा इस दिन
सुबह नीम की कोपल खाने की
हल्दी कुमकुम  देने की 
भर गोद आशीष लेने की |
नव वर्ष हो शुभ  सभी को 
कामना है यही 
हर बरस से अच्छा हो्
सद ्भावना है यही |

वैसे तो यह परम्परा महाराष्ट्र की है पर यदि सब लोग इतनी खुशियाँ इसी प्रकार बांटे तो जितना आनंद मिलेगा शायद कम हो |
आशा



07 अप्रैल, 2013

मन की पीर

अनाज यदि मंहगा हुआ ,तू क्यूं आपा खोय |
मंहगाई की मार से बच ना पाया कोय ||
 
कोई भी ना देखता , तेरे मन की पीर  |
हर वस्तु अब तो लगती ,धनिकों की जागीर ||

रूखा सूखा जो मिले ,करले तू स्वीकार |
उसमें खोज खुशी अपनी ,प्रभु की मर्जी जान ||
 
पकवान की चाह न हो ,ना दे बात को तूल |
चीनी भी मंहगी हुई ,उसको जाओ भूल ||

वाहन भाडा  बढ़ गया , इसका हुआ प्रभाव  |
भाव आसमा छु रहे ,लगता बहुत अभाव  ||

इधर उधर ना घूमना ,मूंछों पर दे ताव  |
खाली यदि जेबें रहीं ,कोइ न देगा भाव  ||

भीड़ भरे बाजार में ,पैसों का है जोर  |
मन चाहा यदि ना मिला , होना ही है बोर ||

आशा


05 अप्रैल, 2013

बोझिल तन्हाइयां

आँखों की आँखों से बातें 
ली जज्बातों की सौगातें
कुछ हुई आत्मसात
शेष बहीं आसुओं के साथ
अश्रु थे खारे जल से 
साथ  पा कर उनका 
हुई नमकीन वे भी 
यह अनुभव कुछ कटु हुआ 
वह भाप बन कर उड़ न सका 
हुई बोझिल तन्हाइयां 
मलिन मन मस्तिष्क हुआ 
धीरज कोई न दे पाया 
कटु सत्य सामने आया 
कितनी बार किया मंथन 
आस तक न जगी झूठी
पर मैं जान गयी 
हूँ खड़ी कगार पर
कभी भी किसी भी पल 
यह साथ छूट जाएगा 
अधिक खींच न सह पाएगा 
जीवन डोर का बंधन 
जिसे समझा था अटूट 
टूटेगा बिखर जाएगा 
जाने कहाँ ले जाएगा |
आशा
 
 


02 अप्रैल, 2013

बेटा क्या सोच रहा

आज न जाने क्यूँ बाबूजी 
उदासी धेरे मुझे 
जैसे ही पलक मूंदता 
आप समक्ष होतेमेरे
आपका हाथ सर पर 
दे रहा संबल मुझे |
हो गया कितना बदलाव 
पहले में और आज में 
तब आप अलग से थे 
जब भी सामना होता था 
भय आपसे होता  था |
पर जाने कब आपका
 व्यवहार मित्रवत हुआ
आपका अनुशासित दुलार
गहन प्रभाव छोड़ गया 
दमकता चहरा  मृदु मुस्कान लिए
दृढ निश्चय और कर्मठता का
अदभुद  प्रताप लिए
आप सा कोइ नहीं लगता|
यही पीर  मन में है
होते हुए अंश आपका 
 आप सा  क्यूं न बन पाया
चाहता समेट लूं  सब को
मैं भी अपनी बाहों में
पर भुजाओं का वह  विस्तार 
मैं कहाँ से लाऊँ
आपकी प्रशस्ति के लिए 
शब्दों की संख्या कम लगती 
माँ सरस्वती ,लक्ष्मी और काली 
तीनो का था वरद हस्त
हाथ कभी न रहे खाली |
जीवन के हर मोड़ पर
 कर्मठता ने दिया साथ 
शरीर थका पर मस्तिष्क नहीं 
दृढ़ता कम न हुई मन की 
सार्थक जीवन जिया आपने 
बने  प्रेरणा सबकी  |
सोचता हूँ मैं हर पल
 हूँ कितना भाग्यशाली 
आपकी छत्र छाया मिली 
आपने इस योग्य बनाया 
उन्नत सर मैं कर पाया 
फिर भी कसक बाकी रही
आपसा क्यूं न बन पाया |
 
आशा





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