05 अगस्त, 2011

प्रकृति से छेड़छाड़


हो रही धरती बंजर
उभरी हैं दरारें वहाँ
वे दरारें नहीं केवल
है सच्चाई कुछ और भी
रो रहा धरती का दिल
फटने लगा आघातों से
वह सह नहीं पाती
भार और अत्याचार
दरारें तोड़ रही मौन उसका
दर्शा रहीं मन की कुंठाएं
क्या अनुत्तरित प्रश्नों का हल
कभी निकल पाएगा
प्रकृति से छेड़छाड़ की
सताई हुई धरा
है अकेली ही नहीं
कई और भी हैं
हर ओर असंतुलन है
जो जब चाहे नजर आता है
झरते बादल आंसुओं से
बूंदों के संग विष उगलते
हुआ प्रदूषित जल नदियों का
गंगा तक न बच पाई इससे
कहीं कहर चक्रवात का
कहीं सुनामी का खतरा
फिर भी होतीं छेड़छाड़
प्रकृति के अनमोल खजाने से
हित अहित वह नहीं जानता
बस दोहन करता जाता
आज की यही खुशी
कल शूल बन कर चुभेगी
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी |
आशा

03 अगस्त, 2011

कोइ पूर्ण नहीं होता


जब से सुना उसके बारे में
कई कल्पनाएँ जाग्रत हुईं
जैसे ही देखा उसे
लगी आकर्षक प्रतिमा सी |
था चंद्र सा लावण्य मुख पर
थी सजी सजाई गुडिया सी
आँखें थीं चंचल हिरनी सी
और चाल चंचला बिजली सी |
काले केश घनघोर घटा से
लहराते चहरे पर आते
प्रकाश पुंज सा गोरा रंग
लगी स्वर्ग की अप्सरा सी |
उसकी सुंदरता और निखार
और आकर्षण ब्यक्तित्व का
सम्मोहित करता
लगता प्रतीक सौंदर्य का |
जैसे ही निकली समीप से
उसके स्वर कानों में पड़े
उनकी कटुता से
सारा मोह भंग हो गया |
वह सोचने को बाध्य हुआ
कहीं न कहीं
कुछ तो कमी रह ही जाती है
कोइ पूर्ण नहीं होता |
आशा

01 अगस्त, 2011

तुम कैसे जानोगे


है प्यार क्या
उसका अहसास क्या
तुम कैसे जानोगे
जब तुमने किसी से
प्यार किया ही नहीं |
पिंजरे में बंद पक्षी की वेदना
कैसे पहचानोगे
जब तुमने ऐसा जीवन
कभी जिया ही नहीं |
उन्मुक्त पवन सा बहना भी
तुम समझ ना पाओगे
क्यूँ कि
ए .सी .कमरे की हवा में
जिसमें पूरा दिन बिताते हो
उस जैसा प्रवाह कहाँ |
बाह्य आडम्बरों में लिप्त तुम
भावनाएं किसी की
कैसे समझोगे
हो प्रकृति से दूर बहुत
आधुनिकता की दौड़ में
सबको पीछे छोड़आए हो |
प्यार और दैहिक भूख
के अंतर को
कैसे जान पाओगे
जब सात्विक प्यार के
अहसास को
दिल से न लगाओगे |

आशा

31 जुलाई, 2011

सुख दुःख तो आते जाते हैं


होता रहता परिवर्तन
कभी खुशी सुख देती
कभी अहसास होता
दर्दे दुःख का |
क्या है यह सब
मन बावरा जान नहीं पाता
आती खुशी पल भर को
फिर से गहन उदासी छाती
होता नहीं नियंत्रण मन पर
ना ही कोइ बंधन उस पर
होता हर बार कुछ नया
जो स्वीकार्य तक नहीं होता
मन जिधर झुकता
वह भी झुकता जाता |
जैसा वह चाहे होता है वही |
दे दोष किसे
इस अस्थिरता के लिए
अजीब प्रकृति है
विचलन नहीं थमता |
जाने क्यूँ मन चंचल
ठहराव नहीं चाहता
है वह झूले सा
कभी ऊंचाई छूता
कभी नीचे आता |
भूले भटके जब भी
तटस्थ भाव जाग्रत होता
तभी लगता
सुख दुःख तो आते रहते 
अनेक रंग जीवन के
हैं अभिन्न अंग उसके |
आशा



29 जुलाई, 2011

भय


हूँ भया क्रांत
और जान सांसत में
कोइ आहट नहीं
फिर भी घबराहट
तनी है भय की चादर
आस पास |
इससे मुक्त होने के लिए
अनेकों यत्न किये
पीछा फिर भी
न छूट पाया |
अब तो लगता है
यह है उपज मन की
दबे पाँव आ जाता है
छा जाता मन
मस्तिष्क पर |
कुछ करने की
इच्छा नहीं होती
फिर से लिपट जाता हूँ
उसी चादर में
भय के आगोश में |
ओर खोजता रहता हूँ
वास्तविकता उसकी
जानना चाहता हूँ
है सत्य क्या उसकी |

आशा



27 जुलाई, 2011

छलकने लगा प्यार


भवें लगती कमान
नयनों के सैन बाण ,
निशाना भी है कमाल
यूँ ही व्यर्थ जाए ना |

पानी व दर्प उसका
लगता सच्चे मोती सा ,
बिना प्रीतम से मिले
चैन उसे आए ना |

प्रिय मिलन की आस
लगी लौ हुई बेहाल ,
विचित्र हाल मन का
पर बतलाए ना |

मिला जब मीत आज
खुशी का ना कोइ नाप ,
छलकने लगा प्यार
समेटा भी जाए ना |

आशा

25 जुलाई, 2011

वह चली गयी


घने वृक्षों के झुरमुट में
शाम ढले एकांत में
रोज मिला करते थे
कुछ अपनी कहते
कुछ उसकी सुनते थे |
जाने कितने वादे होते थे
वह इकरार हमेशा करती थी
बहुत अधिक चाहती थी
कहती रहती थी अक्सर
तुम यदि चले गए
नितांत अकेली हो जाउंगी
फिर किस के लिए जियूंगी
किसकी हो कर रहूंगी |
काफी समय बीत गया
यही सिलसिला चलता रहा
अब व्यवधान आने लगे
रोज होती मुलाकातों में
कुछ बदलाव भी नजर आया
उसकी चंचल चितवन में |
जब भी जानना चाहा
वह टाल गयी
मुस्कुराई नज़र झुकाई
बात आई गयी हो गयी |
जो आग दिल में लगी
क्या मन में उसके भी थी
क्या वह भी सोचती थी ऐसा
वह सोचता ही रह गया
वह तो चली गयी
किसी और की हो गयी
देख कर बेवफाई उसकी
ग़मगीन विचारों में लींन
वह अकेला ही रह गया |

आशा





23 जुलाई, 2011

विश्वास किस पर करें




है दिखावे से भरपूर दुनिया
कुछ स्पष्ट
 नजर नहीं आता
अतिवादी अक्सर मिलते हैं
कोइ तथ्य नजर नहीं आता
आँखें तक धोखा खा जाती हैं
अंजाम नजर नहीं आता |
जो दिखाई देता है
कभी सत्य 
तो कभी असत्य रहता 
जो कुछ सुनते हैं
उस पर विश्वास करें कैसे
आखों देखी कानों सुनी
बातों पर भी
विश्वास नहीं होता |
समाचार पत्रों के आलेख भी
अक्सर होते एक पक्षीय
और अति रंजित
जानकारी निष्पक्ष कम ही देते हैं
आक्षेप एक दूसरे पर
और छींटाकशी
इसके सिवाय और कुछ नहीं |
हैं जाने कैसे वे लोग
कितनी ही कसमें खाईं
वादे किये कसमें दिलाईं
पर उन पर भी 
खरे नहीं उतारे
विश्वास किस पर कैसे करें
यह तक स्पष्ट नहीं है 
आँखें धुंधला गईं हैं
शब्द मौन हैं
वहाँ  भी भ्रम ही 
  नजर आता है|
है यह कैसा चलन
आम जनता की
कोइ आवाज नहीं है
हर ओर दिखावा होता है
सत्य कुछ और होता है

आशा

22 जुलाई, 2011

वर्षा की पहली फुहार


वर्षा की पहली फुहार
कुछ इस तरह पडी चहरे पर
स्पंदन हुआ ऐसा
लगा आगई बहार बंजर खेतों में |
चमक द्विगुणित हुई
उस मखमली अहसास से
तेजी से हाथ चलने लगे
बोनी करने की आस में |
है कितना सचेत वह
यदि पहले से जानते
कई हाथ जुड़ गए होते
कार्यों के आबंटन में |
अभी भी देर नहीं हुई है
मिल बाँट कर सब होने लगा है
वह स्वप्न में खो गया है
अच्छी फसल की आस में |
जब हरियाली होगी
संतुष्टि का भाव होगा
ना घूमना पडेगा उसे
बहारों की तलाश में |

आशा


19 जुलाई, 2011

है मौन का अर्थ क्या




तुम मौन हो ,
निगाहें झुकी हैं
थरथराते अधर
कुछ कहना चाहते हैं |
प्रयत्न इतना किस लिए
मैं गैर तो नहीं
सुख दुःख का साथी हूँ
हम सफर हूँ |
दो मीठे बोल यदि ना बोले
सीपी से सम्पुट ना खोले
तब तो ये अमूल्य पल
यूं ही बीत जाएंगे |
मैं समझ नहीं पाता
मौन की भाषा
कुछ सोच रहा हूँ
चूडियों की खनक सुन |
है शायद यह अंदाज
प्यार जताने का
फिर भी दुविधा में हूँ
है मौन का अर्थ क्या |
आशा

15 जुलाई, 2011

वे ही तो हैं



कोरी स्लेट पर ह्रदय की

कई बार लिखा लिख कर मिटाया

पर कुछ ऐसा गहराया

सारी शक्ति व्यर्थ गयी

तब भी न मिट पाया |

कितने ही शब्द कई कथन

होते ही हैं ऐसे

पैंठ जाते गहराई तक

मन से निकल नहीं पाते |

बोलती सत्यता उनकी

राज कई खोल जाती

जताती हर बार कुछ

कर जाती सचेत भी |

कहे गए वे वचन

शर शैया से लगते हैं

पहले तो दुःख ही देते हैं

पर विचारणीय होते हैं |

गैरों की कही बात

शायद सही ना लगे

पर अपनों की सलाह

गलत नहीं होती |

शतरंज की बिछात पर

आगे पीछे चलते मोहरे

कभी शै तो

कभी मात देते मोहरे |

फिर बचने को कहते मोहरे
पर कुछ होते ऐसे

होते सहायक बचाव में

वे ही तो हैं,

जो अपनों की पहचान कराते |

14 जुलाई, 2011

धीरज छूटा जाए




रिमझिम वर्षा की फुहार
अंखियों से बहती अश्रुधार
देखती विरहणी राह
प्रिय के आगमन की |
वे नहीं आए 
नदी नाले पूर आए
कैसे मन सम्हल पाए
बार बार बहका जाए |
बादलों का गर्जन
करता विचलित उसे
दामिनी दमके
चुनरी हवा में उड़ी जाए |
गहन उदासी छाए
धीरज छूटा जाए
पर ना हुई आहट
प्रीतम के आगमन की |
द्वारे पर टकटकी लगाए
वह सोचती शायद
मन मीत आ जाए
इन्तजार व्यर्थ ना जाए |
आशा

12 जुलाई, 2011

ऐसा क्यूँ होता है


है कारण क्या परेशानी का

उदासी की महरवानी का

गर्मीं में अहसास सर्दी का

गहराती नफरत में छिपे अपनेपन का |

कभी आकलन न किया

जो कुछ हुआ उसे भुला दिया

फिर भी कहीं कुछ खटकता है

मन बेचारा कराहता है |

है कारण क्या

चाहता भी है जानना

पर दूर कहीं उससे

चाहता भी है भागना |

गहरी निराशा

पंख फैलाए आती है

मन आच्छादित कर जाती है

रौशनी की किरण कोइ

दूर तक दिखाई नहीं देती |

सिहरन सी होने लगती है

विश्वास तक

डगमगा जाता

मन आक्रान्त कर जाता |

क्या खोया कितना खोया

यह महत्त्व नहीं रखता

बस एक ही विचार आता है

क्यूँ होता है ऐसा

उसी के साथ हर बार |

आशा

11 जुलाई, 2011

तेरा प्यार




तेरा प्यार दुलार

भूल नहीं पाती

जब पाती नहीं आती

मुझे बेचैन कर जाती |

तेरे प्यार का

कोइ मोल नहीं

तू मेरी माँ है

कोई ओर नहीं |

आज भी

रात के अँधेरे में

जब मुझे डर लगता है

तेरी बाहें याद आती हैं |

कहीं दूर स्वप्न में

ले जाती हैं |

फिर सुनाई देती है

तेरी गाई लोरियाँ

आँखें बंद करो कहना

मेरा झूठमूठ उन्हें बंद करना |

सारा डर

भाग जाता है

जाने कब सो जाती हूँ

पता ही नहीं चलता |

आशा

09 जुलाई, 2011

कांटा गुलाब का



तू गुलाब का फूल
मैं काँटा उसी डाल का
है तू प्रेम का प्रतीक
और मैं उसकी नाकामी का |
दौनों के अंतर को
पाटा नहीं जा सकता
है इतनी गहरी खाई
कोइ पार नहीं कर पाता|
फिर भी तुझे पाने की आशा
हर व्यक्ति को होती है
मुझे देख भय लगता है
कभी विरक्ति भी होती है |
गुलाब तुझे पता नहीं
मैं दुश्मन प्रेम का नहीं
तेरे पास रहता हूँ
तुझे बचाने के लिए |
 चाहता हूँ यही
खुशबू तेरी बनी रहे
प्रेम का प्रतीक तू
ऐसा ही सदा ही बना रहे |
आशा

08 जुलाई, 2011

आज भी वही बात



तुम भूले वे वादे

जो रोज किया करते थे

बातें अनेक जानते थे

पर अनजान बने रहते थे |

तुम्हारी वादा खिलाफी

अनजान बने रहना

बिना बाट रूठे रहना

बहुत क्रोध दिलाता था |

फिर भी मन के

किसी कौने में

तुम्हारा अस्तित्व

ठहर गया था |

बिना बहस बिना तकरार

बहुत रिक्तता लगती थी

तुमसे बराबरी करने में

कुछ अधिक ही रस आता था |

वह स्नेह और बहस

अंग बन गए थे जीवन के

रिक्तता क्या होती है समझी

जब रास्ते अलग हुए |

बरसों बाद जब मिले

बातें करने की

उलाहना देने की

फिर से हुई इच्छा जाग्रत |

जब तुम कल पर अटके

कसमों वादों में उलझे

तब मैं भी उन झूठे बादों की

याद दिलाना ना भूली |

पर आज भी वही बात

ऐसा मैंने कब कहा था |

यह तो तुम्हारे,

दिमाग का फितूर था |

आशा

06 जुलाई, 2011

ग़म




अपने ग़मों के साथ

कई ग़म और लिये फिराता हूँ

देता हूँ तसल्ली उनको

खुद उन्हीं में डूबा रहता हूँ |

नहीं चाहता छुटकारा उनसे

वे हमराज हैं मेरे

हम सफर हैं जिंदगी के

जाने अनजाने आ ही जाते हैं

स्वप्नों को भी सजाते हैं |

हद तो जब हो जाती है

जाने कब चुपके से

मेरे मन में उतर जाते हैं

मन में बसते जाते हैं |

अब तो बिना इनके

अधूरी लगती है जिंदगी

क्यूँ कि खुशी तो

क्षणिक होती है |

इनका अहसास ही जताता है

दौनों में है अंतर क्या

इन्हीं से सीख पाया है

धबरा कर जीना क्या |

अब जहां कहीं भी जाएँ

बचैनी नहीं होती

क्यूँ कि साथ जीने की

आदत सी हो गयी है |

खुशियों की झलक होती मुश्किल

हैं मन के साथी ग़म

सदा साथ रहते हैं

बहते दरिया से होते हैं |

04 जुलाई, 2011

एक अनुभव बौलीवुड का


गहरा प्रभाव था चल चित्रों का मुझ पर

चेहरे पर चमक आ जाती थी आइना देख कर |

चस्का हीरो बनाने का इस तरह हावी हुआ

आगा पीछा कुछ ना देखा मुम्बई का रुख किया |

सुबह हुई आँख खुली खुद को स्टेशन पर पाया

मुंह धोने नल तक पहुंचा कोई बैग उठा कर चल दिया|

ना तो थे पैसे पास में ना ही ठिकाना रहने का

बस देख रहा था सड़क पर आती जाती गाड़ियों को |

अचानक एक गाड़ी रुकी इशारे से पास बुलाया

कहा क्या घर से भाग आए हो, कुछ काम करना चाहते हो |

कुछ करना हो तो मुझ से मिलना ,मैंने जैसे ही सिर हिलाया

स्वीकृति समझ पता बताया, और आगे चल दिया |

वहाँ पहुंच कर देखा मैंने , कोई शूटिग चल रही थी

भीड़ की आवश्यकता थी ,उत्सुकता मेरी भी कम न थी |

मिलते ही कुछ प्रश्न किये ,देखा परखा और शामिल कर लिया

शूटिग समाप्त होते ही ,कुछ रुपए दे चलता किया |

थकान बहुत थी , फुटपाथ पर ही सो गया

था बड़ा अजीब शहर ,वहाँ सोने के पैसे भी मांग लिए |

अब मेरी यही दिनचर्या थी, दिन भर भटकता था

कभी काम मिल जाता था कभी भूखा ही सो जाता था |

चेहरे का नूर उतरने लगा ,नियमित काम न मिल पाया

बॉलिवुड की सच्चाई ,पहचान नहीं पाया |

बापिसी की हिम्मत जुटा नहीं पाया

क्या खोया क्या पाया आकलन ना कर पाया |

अब तक हीरो बनाने का भूत भी पूरा उतर गया था

अपनी भूल समझ गया था ,सपनों से बाहर आ गया था |

एक दिन बड़े भाई आए जबरन घर बापिस लाए

आज अपने परिवार में रहता हूँ छोटी सी नौकरी करता हूँ |

जब भी वे दिन याद आते है ,लगता है मैं कितना गलत था

केवल सपनों में जीता था वास्तविकता से था दूर |

थी वह सबसे बड़ी भूल ,जो आज भी सालती है

चमक दमक की दुनिया की सच्चाई कुछ और होती है |

आशा

01 जुलाई, 2011

जहां अपार शान्ति होती है

अपनी ४०० वी रचना आज ब्लॉग पर डाल रही हूँ |:-

ऊंचे पर्वतों से निकली
चंचल चपल धवल धाराएं
मार्ग अपना प्रशस्त किया
आगे बढ़ीं सरिता बनीं |
अलग अलग मार्गों से आईं
मंदाकिनी विलीन हो गयी
अलखनंदा में मिल गयी
नदिया में बिस्तार आया
वह और रमणीय हो गयी |
आसपास हरियाली थी
तेज बहती जल धारा थी
कल कल ध्वनि बहते जल की
खींच रही थी अपनी ओर |
घंटों बैठे उसे निहारते
नयनों में वे दृश्य समेटे
एक चित्र कार बैठा पत्थर पर
उकेरता उन्हें कैनवास पर |
जब दिन ढला शाम हुई
दी दस्तक चाँद ने रात में
चंचल किरणें खेलने लगी
जल धारा के साथ में |
खेलता चन्द्रमा लुका छिपी
पेड़ों से छन कर आती
घरोंदों में होती रौशनी से
था दृश्य ही ऐसा
कि मन की झोली में भर लिया |
अब जब भी मन उचटता है
कहीं दूर जाना चाहता है
आखें बंद करते ही
वे दृश्य उभरने लगते हैं
मन सुकून से भर जाता है |
सच कहा था चित्रकार नें
जहां अपार शान्ति होती है
मानसिक थकान नहीं होती
कुछ नया सर्जन होता है |

आशा

30 जून, 2011

नार बिन चले ना

नार कटवाती दाई ,जन्म होता सुखदाई

मनुष्य जीवन पाया ,यूं व्यर्थ जाए ना |

वह सुन्दरी सुमुखी ,सज सवर चल दी

रीत यहाँ की जाने ना ,चाल सीधी चले ना |

उसकी नागिन जैसी ,बल खाती लंबी वेणी

मुख में बीड़ा दबाना ,बिना हंसे चले ना |

मंद मंद मुस्काना ,ध्यान कहीं भटकाना

गुमराह होती जाना ,मार्ग है अनजाना |

मन में होती अशांति ,तूती बजे ना फिर भी

प्रभु के भजन गाना ,नार बिन चले ना|

आशा

29 जून, 2011

है यही रीत दुनिया की


हरीतिमा वन मंडल की

अपनी ओर खींच रही थी

मौसम की पहली बारिश थी

हल्की सी बूंदाबांदी थी

तन भीगा मन भी सरसा

जब वर्षा में तेजी आई

पत्तों को छू कर बूंदे आईं |

पगडंडी पर पानी था

फिर भी पास एक

सूखा साखा पेड़ खडा था

था पत्ता विहीन

था तना भी बिना छाल का |

उसमें कोई तंत न था

जीवन उसका चुक गया था

कई टहनियाँ काट कर

ईंधन बनाया उन्हें जलाया

जब भी कोई उसे देखता

सब नश्वर है यही सोचता |

पहले जब वह हरा भरा था

कई पक्षी वहाँ आते थे

अपना बसेरा भी बनाते थे

चहकते थे फुदकते थे

मीठे फल उसके खाते थे

जो फल नीचे गिर जाते थे

पशुओं का आहार होते थे |

घनी घनेरी डालियाँ उसकी

छाया देती थीं पथिकों को

था वह बहुत उपयोगी

सभी यही कहते थे |

पर आज वह

ठूंठ हो कर रह गया है

सब ने अनुपयोगी समझ

उसका साथ छोड़ दिया है

है यही रीत दुनिया की

उसे ही सब चाहते हैं

जो आए काम किसी के

उपयोगिता हो भरपूर

तभी मन भाए सभी को |

जैसे ही मृत हो जाए

जो कुछ भी पास था

वह भी लूट लिया जाता है

कुछ अधिकार से

कुछ अनाधिकार चेष्टा कर

अस्तित्व मिटा देते हैं उसका

वह आज तो ठूंठ है

कल शायद वह भी न रहेगा

लुटेरों की कमी नहीं है

उनको खोजना न पड़ेगा |

आशा

26 जून, 2011

इसी तरह जी लेंगे


जब से तेरी तस्वीर सीने से लगाई है

दिल पर अधिकार न रहा

उसकी धडकन कभी धीमीं

तो कभी तेज हो जाती है

तस्वीर कभी रंगीन तो कभी रंग हीन

नजर आती है |

उससे निकली आवाज कभी ताल में

तो कभी बेताल हो जाती है

यह कहीं मेरे अंतर्मन में उठते

विचारों का सैलाव तो नहीं

जो मुझे बहा ले जाता है |

जब भी मैं खुश होता हूँ

उस पर भी खुशी झलकती है

देख कर मेरी उदासी

वह गम के साये में खो जाती है

बहुत उदास नजर आती है |

तू जाने किस अन्धकार में खो गई

पर मन में इस तरह बस गई

जहां भी नजर पडती है

तेरी याद आ जाती है

दिल की धड़कन बढ़ जाती है

यह कहीं मेरा भ्रम तो नहीं

तू जीती जागती

सजीव नजर आती है |

ऐसे ही अगर जीना है

हम यह भी सह लेंगे

कोई गिला शिकवा न करेंगे

किसी सहारे की दरकार नहीं है

बस इसी तरह जी लेंगे |

आशा