18 मई, 2011

कहर गर्मी का


कड़ी धूप लू के थपेड़े

बहुत कष्ट देते हैं

जब पैरों में चप्पल ना हों

डम्बर तक पिघलने लगता है

पक्की सड़क यदि हो |

धरती पर पडती दरारें

गहरी होती जाती हैं

लेती रूप हवा अंधड का

गुबार उठता रोज धूल का

बढता जाता कहर गर्मी का |

फिर भी कोई काम नहीं रुकता

निर्वाध गति से चलता रहता

बस गति कुछ धीमी होती है

दोपहर में सड़कें अवश्य

सूनी सी लगती हैं |

यह तपन गर्मी की चुभन

ऊपर से आँख मिचौली बिजली की

हर कार्य पर भारी पड़ती है

जाने कितने लोगों का

जीवन बदहाल कर देती है |

होता जन जीवन अस्त व्यस्त

पर एक आशा रहती है

इस बार बारिश अच्छी होगी

क्यूंकि धरती तप रही है

उत्सुक है प्यास बुझाने को |

अच्छी बारिश की भविष्य वाणियां

मन को राहत देती हैं

कभी सत्य तो कभी असत्य भी होती हैं

फिर भी वर्तमान में

कटते पेड़ तपती दोपहर

और बिजली की आवाजाही

सारी सुविधाओं के साधन

यूँ ही व्यर्थ कर देती हैं |

सब इसे सहते हैं सह रहे हैं

आगे भी सहते जाएंगे

प्रकृती से छेड़छाड़ का

होता है यही परिणाम

इससे कैसे बच पाएगे |

आशा

17 मई, 2011

कितने अच्छे लगते हो


(१)
कितने अच्छे लगते हो तुम
जब अध् खुली आँखों से देखते हो
अधरों पर मीठी मुस्कान लिए
मन के भाव सहेजते हो |
(२)
यह भावों का दर्शाना
कुछ कहना कुछ छिपा जाना
अनोखी अदा लगती है
गालों पर डिम्पल का आना |
(३)
यही अदा आकर्षित करती
जीवन में रंग सुनहरे भरती
जब भी बंद आँखें होतीं
तुम्हारी छबी सामने होती |

आशा

16 मई, 2011

है वंचित स्नेह से

आशाओं पर टिकी हुई है
हताश भी कभी होती है
क्यूँ कि है वंचित स्नेह से
बच्चों की हर आहट पर
चौंक सी जाती है
कोई नहीं आता
वह आस लगाए रहती है |
जाने कितने कष्ट सहे थे
उन्हें बड़ा करने में
पर सब तिरोहित हो जाते थे
चहरे पर भोली मुस्कान देख |
अब वही बातें याद आती हैं
गहराई तक साल जाती हैं
सात फेरे क्या लिए
वे वर्तमान में खो गए
किसी और के हो गए |
जो थे कभी माँ के बहुत निकट
सब हैं अब अलग
है गहरी खाई दौनों के संबंधों में |
बस एक ही वाक्य याद है उसे
"आपने क्या विशेष किया ,
यह तो था कर्तव्य आपका "
ये शब्द पिघलते सीसे से
जब कान में पड़ते हैं
वह अंदर तक दहल जाती है |
अंदर से आह निकलती है
क्या वे कभी बूढ़े नहीं होंगे
उनके बच्चे भी वही करेंगे
जो आज वे कर रहे हैं |
फिर भी जाने क्यूँ
वह राह देखती रहती है
बच्चों के बच्चों की
हल्की सी आहट भी उसे
कहीं दूर ले जाती है
अपने बच्चों के बचपन में
पल भर के लिएभूल जाती है
वे किसी और के हो गए हैं |

आशा



14 मई, 2011

साकार होती कल्पना



मंथर गति से चलती

गज गामिनी सी

वह लगती ठंडी बयार सी

जो सिहरन पैदा कर जाती |

कभी अहसास दिलाती

आँखों में आये खुमार का

मन चंचल कर जाती

कभी झंझावात सी |

ना है स्वयम् स्थिर मना

ना चाहती कोई शांत रहे

पर मैं तो कायल हूँ

उसके आकर्षक व्यक्तित्व का |

है वह बिंदास और मुखर

क्या चाहती है मैं नहीं जानता

पर चंचल हिरनी सी

चितवन यही

जहां भी ठहर जाती है

एक भूकंप सा आ जाता है

जाने कितने दिलों में

बजती शहनाई का

दृश्य साकार कर जाता है |

उसका यही रूप

सब को छू जाता है

हर बार महकते गुलाब की

झलक दिखा जाता है |

मन के किसी कौने में

उसका विस्तार नजर आता है

है इतनी प्यारी कि

उसे भुला नहीं पाता |

यही सोच था

बरसों से मन में

जो सपनों में साकार

होता नजर आता |

आशा

12 मई, 2011

जब कंचन मेह बरसता है


जब कंचन मेह बरसता है
वह भीग सा जाता है
जितना अधिक लिप्त होता है
कुछ ज्यादा ही भारी हो जाता है |
उस बोझ तले
जाने कितने
असहाय दब जाते हैं
निष्प्राण से हो जाते हैं |
वर्तमान में यही सब तो हो रहा है
धनिक वर्ग का धन संचय
दिन दूना रात चौगुना
बढाता ही जा रहा है |
अपनी बदनसीबी पर निर्धन
महनत कर भी रो रहा है
शायद ईश्वर ने भी सब को
बाँट कर खाना नहीं सिखाया |
कुछ ने तो भर पेट खाया
और कुछ को भूखा सुलाया
बड़े तो सह भी लें
पर नन्हीं जानों का क्या करें |
यदि पेट में अन्न ना हो
सोने का नाम नहीं लेते
उनका रोना हिचकी भर भर
विध्वंसक विचार मन में लाता है |
नकारात्मक सोच उभरते हैं
मन विद्रोही हो जाता है
भूले से कोई सज्जन भी हो
वह भी दुर्जन ही नजर आता है |
आशा






10 मई, 2011

नाता जाने कब का





माँ है धरती
और पिता नीलाम्बर
दूर क्षितिज में
मिलते दौनों
सृष्टि उपजी है दौनों से |
धरा पालती जीवों को
पालन पोषण उनका करती
खुद दुखों तले दबी रहती
उफ नहीं करती |
पर जब क्रोध आता उसको
कम्पित भूकंप से हो जाती
कभी ज्वालामुखी हो
फूटती मुखर होती |
पर फिर धीर गंभीर हो जाती
क्यूं कि वह पृथ्वी है
अपना कर्तव्य जानती है
उसी में व्यस्त हो जाती है |
आकाश निर्विकार भाव लिए
उसे निहारता रहता है
पर वह भी कम यत्न नहीं करता
सृष्टि को सवारने के लिए
जग जगमगाता है
उसी के प्रकाश से |
हर जीव के विकास में
होता पूर्ण सहयोग दौनों का
रात्री में चाँद सितारे
देते शीतलता मन को
और विश्रान्ति के उन पलों को
कर देते अधिक सुखद |
दौनों ही संसार के
संचालन में जुटे हैं
गाड़ी के दो पहियों की तरह
एक के बिना
दूसरा लगता अर्थ हीन सा
अधूरा सा
हैं दौनों जीवन के दाता
पञ्च तत्व के निर्माता
है ना जाने उनका
नाता जाने कब का |

आशा









प्रस्तुतकर्ता आशा पर २:०६ अपराह्न

2 टिप्पणियाँ:

SAJAN.AAWARA ने कहा

ANMOL , SATAY KA GYAN KRATI EK KAVITA. . . . . . JAI HIND JAI BHARAT

९ मई २०११ १:०३ अपराह्न टिप्पणी हटाएँ">

विजय रंजन ने कहा

माँ है धरती
और पिता नीलाम्बर
दूर क्षितिज में
मिलते दौनों
सृष्टि उपजी है दौनों से |
Bahut sateek Aasha ji...ek dusre ke bina jeevan ki gari nahi chalti

९ मई २०११ १:१२ अपराह्न टिप्पणी हटाएँ">

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भारतीय ब्लॉगस का संपूर्ण मंच

09 मई, 2011

A butterfly



A butter fly flew in the sky

With a love leaden heart

To the garden of flowers

Searching for the missing one

Whom it missed too much

But not find it in meadow

It moved hear and there

With broken heart

The search came to an end

As the fragrance had spread

It was easy to recognize now

to whom it missed.

It felt pleased

Finding the missing one

With embalming heart

It ,kissed and hugged .

Others envied

Then gazed with pleasure

Prayed God to bless them

as they will be living together .

Asha






A bookworm

A book worm crammed the whole book without knowing what was he doing .

Was that justice to book and its writer .

He did not know about the author too ,

By the way he had met a person in a party .

He was trying to impress him so he recited some lines of that book .

That fellow came to him and asked "From where lines are borrowed ."

He said,"Ido not know much about it ।I think I have coined them."

"Do you know about its author ."

Again he said "I do not know ."

"

"It is stupid to behave like a fool ."He murmured .

You have borrowed lines from the book written by me .

He was so ashamed that did not turn up in the hall again

Asha

08 मई, 2011

भावना असुरक्षा की


है बेचैन असुरक्षित
अपनी राह तलाश रही
जीवन की शाम के
लिए आशियाना खोज रही |
अपनों ने किनारा किया
बोझ उसे समझा
बेगानों में अपने पन का
अहसास तलाश रही |
क्या कुछ नहीं किया उसने
उन सब के लिए
जो आज भुला बैठे उसे
अपने में ही व्यस्त हुए |
आज भी याद है उसे
कैसे उन्हें पाला पोसा
खुद ने कठिनाई झेली
पर उनकी प्रगति नहीं रोकी |
आज वही उसे छोड़ गए
वृद्ध आश्रम के कौने में
असुरक्षा की भावना
मन में समा गयी है |
ना कभी ममता जागी
ना ही उसके कष्टों पर
मन में कभी मलाल आया
अपने ही घर के लिए
वह पराई हो गयी |
आज मातृ दिवस मनाया तो क्या
जाने कितनी माँ हैं ऐसी
जो स्नेह से हैं वंचित
इस संवेदन शून्य दुनिया में
भरी हुई असुरक्षा से
जूझ रही हैं जिंदगी से |


आशा


06 मई, 2011

प्यारी माँ



तुझ से लिपट कर सोने में
जो सुकून मिलता था
तेरी थपकियों का जो प्रभाव होता था
वह अब कहाँ |
जब बहुत भूख सताती थी
सहन नहीं कर पाती थी
तब रोटी में नमक लगा
पपुआ बना
जल्दी से खिलाती थी
मेरा सर सहलाती थी |
वह छुअन वह ममता
अब
कहाँ |
जब स्कूल से आती हूँ
बेहाल थकी होती हूँ
कुछ खाने का सोचती भी हूँ
पर मन नहीं होता
तेरे हाथों से बने खाने का
अब स्वाद कहाँ |
जब भी शैतानी करती थी
तू कान गरम करती थी
आज भी यदि गलती हो
जल्दी से हाथ कान तक जाए
पर तेरे हाथों का स्पर्श
अब कहाँ |
तू बसी है मन के हर कौने में
मुझ से दूर गयी तो क्या
तेरी दुआ ही है संबल मेरा
माँ होने का अहसास क्या होता है
मैं माँ हो कर ही जान पाई
तेरी कठिन तपस्या का
मोल पहचान पाई
पर अब क्या |
तूने कितने कष्ट सहे
मुझे बड़ा करने में
मेरा व्यक्तित्व निखारने में
आज बस सोच ही पाती हूँ
वे दिन अब कहाँ |

आशा





04 मई, 2011

वह अपना नहीं रहा


यह दूरी यह अलगाव
और बेगानापन
रास नहीं आता
कड़वाहट बढते ही
मन उद्वेलित हो जाता |
आस्था का दामन
दाग दार होता
तार तार हो छूटता नजर आता
ज्वार भावनाओं का
थमता नज़र नहीं आता |
यह रूखापन इतनी बेध्यानी
कठोरता चहरे पर
मन छलनी कर जाता
कटु वचन और मन मानी
गहरा घाव कहीं दे जाती |
पूर्णरूपेण विश्वास किया
क्या गलत किया
विचार जब भी मन में आता
इष्ट पहुँच से
बहुत दूर नजर आता |
क्या किसी और ने विलमां लिया
भटका दिया
उससे बाँट कर जीने में
कोई सार नजर नहीं आता |
रात और गहरा जाती है
पलकें बंद होते ही
वही भोला बेदाग़ चेहरा
नजर आता है
पर जब वह कहीं लुप्त हो जाता है
एक ही विचार मन में आता है
वह अपना नहीं रहा
बेगाना हो गया है |

आशा




03 मई, 2011

क्षुधा के रूप अनेक


क्षुधा के रूप अनेक
कुछ की पूर्ति होती सम्भव
पर कुछ अधूरे ही रह जाते
विवेक शून्य तक कर जाते |
हर रूप होता विकराल इसका
हाहाकार मचा जाता
क्षुधा की तृप्ति ना होने पर
गहन क्षोभ जन्म लेता |
हो भूख उदर या तन की
उससे है छुटकारा सम्भव
प्रयत्न तो करना पड़ता है
पर होता नहीं असंभव |
होती क्षुधा विलक्षण मन की
सब्ज बाग दिखाता है
कभी पूर्ति होती उसकी
कभी अधूरी रह जाती है |
आत्मा की क्षुधा
परमात्मा से मिलने की
कभी समाप्त नहीं होती
उस क्षण की प्रतीक्षा में
जाने कहाँ भटकती फिरती |
करते ध्यान मनन चिंतन
ईश्वर से एकात्म न होने पर
मन भी एकाग्र ना हो पाता
है मार्ग दुर्गम इतना कि
क्षुधा शांत ना कर पाता |

आशा



01 मई, 2011

हमारी काम वाली


उम्र के साथ दुकान लगी है
समस्याओं की
घर का काम कैसे हो
है सबसे कठिन आज |
नित्य नए बहाने बनाना
आए दिन देर से आना
भूले से यदि कुछ बोला
धमकी काम छोड़ने की देना
हो गयी है रोज की बात |
यदि कोई आने वाला हो
जाने कैसे जान जाती है
मोबाइल का बटन दबा
तुरंत सूचना पहुंचाती है
आज आना ना हो पाएगा
मेरा भैया घर आएगा
मुझे कहीं बाहर जाना है
कल तक ही आ पाऊँगी |
अर्जित ऐच्छिक और आकस्मिक
सभी अवकाश जानती है
उनका पूरा लाभ उठाती है
नागे का यदि कारण पूंछा
नाक फुला कर कहती है
क्या मेरे घर काम नहीं होते
या कोई आएगा जाएगा नहीं|
चाहे जैसी भी हो कामवाली
दो चार दिन ही ठीक काम करती है
फिर वही सिलसिला
हो जाता प्रारम्भ |
वे सभी एक जैसी हैं
उनसे बहस का क्या फ़ायदा
सारे दावपेच जानती हैं
हर बात का उत्तर देती हैं
अवसर मिलते ही
हाथ साफ भी कर देती हैं |
क्या करें परेशानी है
आदतें जो बिगड़ गयी हैं
ऊपर से उम्र का तकाजा
एक दिन भी उनके बिना
काम चलाना मुश्किल है
अब तो ये कामवाली
बहुत वी.आई.पी .हो गयी हैं |

आशा





30 अप्रैल, 2011

बर्फ का लड्डू


घंटी का स्वर
पहचानी आवाज

सड़क के उस पार
करती आकृष्ट उसे |
स्वर कान में पड़ते ही
उठते कदम उस ओर
रँग बिरंगे झम्मक लड्डू
लगते गुणों क़ी खान |
जल्दी से कदम बढाए
अगर समय पर
पहुंच ना पाए
लुट जाएगा माल |
पैसे की कोइ बात नहीं
आज नहीं
तो कल दे देना
पर ऐसा अवसर ना खोना |
ललक बर्फ के लड्डू की
बचत गुल्लक की
ले उडी
पर जीभ हुई लालम लाल |
फिर होने लगा धमाल
क्यूँ की
गर्मी की छुट्टी भी आई
ओर परिक्षा हुई समाप्त |
आशा




28 अप्रैल, 2011

वह तो एक खिलौना थी



उसने एक गुनाह किया
जो तुम से प्यार किया
उसकी वफा का नतीजा
यही होगा सब को पता था |
जाने वह ही कैसे अनजान रह गयी
तुम्हें जान नहीं पाई
यदि जान भी लेती तो क्या होता
प्यार के पैर तो होते नहीं
जो वह बापिस आ जाता |
उसके तो पंख थे
वह दूर तक उड़ता गया
लाख चाहा रोकना पर
इतना आगे निकल गया था
लौट नहीं पाया |
उसका रंग भी ऐसा चढ़ा
उतर नहीं पाया
बदले में उसने क्या पाया
बस दलदल ही नजर आया |
बदनामी से बच ना सकी
उसकी भरपाई भी सम्भव ना थी
अब तो नफरत भरी निगाहें ही
उसका पीछा करती रहती हैं |
पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
तुम तो वफा का
अर्थ ही नहीं जानते
होता है प्यार क्या कैसे समझोगे |
वह तो एक खिलौना थी
चाहे जब उससे खेला
मन भरते ही फेंक दिया
जानते हो क्या खोया उसने
आत्म सम्मान जो कभी
सब से प्यारा था उसे |

आशा




25 अप्रैल, 2011

कहीं तो कमी है


परिवर्तन के इस युग में
जो कल था
आज नहीं है
आज है वह कल ना होगा |
यही सुना जाता है
होता साहित्य समाज का दर्पण
पर आज लिखी कृतियाँ
बीते कल की बात लगेंगी
क्यूँ कि आज भी बदलाव नजर आता है |
मनुष्य ही मनुष्य को भूल जाता है
संबंधों की गरिमा ,रिश्तों की उष्मा
गुम हो रही है
प्रेम प्रीत की भाषा बदल रही है |
समाज ने दिया क्या है
ना सोच निश्चित ना ही कोई आधार
कई समाज कई नियम
तब किस समाज की बात करें |
यदि एक समाज होता
और निश्चित सिद्धांत उसके
तब शायद कुछ हो पाता
कुछ सकारथ फल मिलते |
देश की एकता अखंडता
पर लंबी चौड़ी बहस
दीखता ऊपर से एक
पर यह अलगाव यह बिखराव
है जाने किसकी देन
वही समाज अब लगता
भटका हुआ दिशाहीन सा
वासुदेव कुटुम्बकम् की बात
लगती है कल्पना मात्र |
आशा









23 अप्रैल, 2011

यह कैसा आचरण


आज मैं अपनी ३५१ बी पोस्ट डाल रही हूँ | आशा है एक सत्य कथा पर आधारित यह रचना आपको पसंद आएगी |

थी आकर्षक अग्नि शिखा सी
आई थी ऑफिस में नई
सब का मन मोह लेती थी
अपनी मनमोहक अदाओं से |
दिखता था अधिकारी बहुत सौम्य
था अनुभवी ओर धनी व्यक्तित्व का
तथा स्वयं योग प्रशिक्षित |
उसने प्रेरित किया
योग की शिक्षा के लिये
फिर प्रारम्भ हुआ सिलसिला
सीखने ओर सिखाने का |
भावुक क्षणों में वह बौस को गुरू बना बैठी
ऑफिस आते ही नमन कुर्सी को कर
चरण रज माथे लगाती
तभी कार्य प्रारम्भ करती |
सभी जानते थे क्या हों रहा था
वह मर्यादा भी भूल चुकी थी
आगे पीछे घूमती थी
स्वविवेक भी खो बैठी थी |
जब मन भर गया बौस का
उससे दूरी रखने लगा
वह मिलने को भी तरस गयी
अपना आपा खो बैठी |
पर एक दिन अति हो गयी
गाडी रोक कर बोली
मैं जाने नहीं दूंगी
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी |
सभी यह दृश्य देख रहे थे
मन ही मन में
कुछ सोचा उसे धक्का दिया
पागल कहा और चल दिया |
जो कभी विहंसती रहती थी
थी चंचल चपला सी
अब बासी फूल सी
दिखने लगी |
फिर भी इतिश्री नहीं हुई
करा दिया उसका स्थांतरण
दूरस्थ एक शहर में
केवल अपने प्रभाव से |
मझा हुआ खिलाड़ी था
जानता था किसको कैसे जीता जाता है
अपने पद का दुरूपयोग कर
कैसे लाभ लिया जाता है |
आशा








21 अप्रैल, 2011

अब तक तलाश जारी है


कुछ भी अधिक नहीं चाहा
जो मिला उसी को अपनाया
फिर भी जब मन में झांका
खुद को बहुत अकेला पाया |
सामंजस्य परिस्थितियों से
आज तक ना हो पाया
अपनों ने जब भी ठुकराया
गैरों ने अपना हाथ बढ़ाया |
तब भी सोच नहीं पाया
है कौन अपना कौन पराया
कब कोई भीतर घात करेगा
यह भी ना पहचान पाया |
जब भी गुत्थी सुलझानी चाही
कोई अपना नजर ना आया
है स्वार्थी दुनिया सारी
फिर भी स्वीकार ना कर पाया |
कई बार विचार आता है
सब एक से नहीं होते
कोई तो ऐसा होगा
जो निस्वार्थ भाव लिए होगा |
अब तक तलाश जारी है
जाने कब कौन
किस रूप में आए
पूर्ण रूप से अपनाए |

18 अप्रैल, 2011

कई कंटक भी वहाँ होते हें


ना तो जानती थी
ना ही जानना चाहती थी
वह क्या चाहती थी
थी दुनिया से दूर बहुत
अपने में खोई रहती थी |
कल क्या खोया
ओर कल क्या होगा
तनिक भी न सोचती थी
वर्त्तमान में जीती थी |
जो भी देखती थी
पाने की लालसा रखती थी
धरती पर रह कर भी
चाँद पाना चाहती थी |
क्या सही है वह क्या गलत
उस तक की पहचान न थी
अपनी जिद्द को ही
सर्वोपरी मानती थी |
हर बात उसकी पूरी करना
संभव न हों पाता था
अगर कहा नहीं माना
चैन हराम होजाता था |
जब कठोर धरातल
पर कदम रखा
थी बिंदास
कुछ फिक्र न थी |
जिन्दगी इतनी भी
आसान न थी
गर्म हवा के झोंकों ने
उसे अन्दर तक हिला दिया |
उठापटक झगडे झंझट
अब रोज की बात हों गयी
तब ही वह समझ पाई
सहनशीलता क्या होती है |
जब मन पर अंकुश लगाया
बेहद बेबस ख़ुद को पाया
तभी वह जान पाई
माँ क्या कहना चाहती थी |
जिन्दगी ने रुख ऐसा बदला
पैरों के छाले भी
अब विचलित नहीं करते
ठोस धरा पर चलती है
क्यूँ की वह समझ गयी है
जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
कई कंटक भी वहाँ होते हें |

आशा







17 अप्रैल, 2011

चिंगारियां दबी रहने दो


आपस की बातों को
बातों तक ही रहने दो
जो भी छिपा है दिल में
उजागर ना करो
नाकाम मोहब्बत
परदे में ही रहने दो |
वक्त के साथ बहुत
आगे निकल गये हें
याद ना करें पिछली बातें
सब भूल जाएं हम |
कोशिश भुलाने की
दिल में छिपी आग को
ओर हवा देती है
यादें बीते कल को
भूलने भी नहीं देतीं |
हें रास्ते अलग अपने
जो कभी न मिल पाएंगे
हमारे बीच जो भी था
अब जग जाहिर न हों |
बढ़ती बेचैनी को
और न भड़कने दो
हर बात को तूल न दो
चिंगारियां दबी रहने दो |
आशा




16 अप्रैल, 2011

विभिन्न आयाम सौंदर्य के

सभ्यता विकसित हुई
सौन्दर्य बोध भी हुआ
प्रारम्भ हुआ दौर
सजाने ओर सवरने का |
सुडौल देह दाड़िम दन्त पंक्ति
ओर गालों में पड़ते डिम्पल
होते केंद्र आकर्षण के
केश विन्यास विशिष्ट होता था
बढाता था ओर इसे |
कमर तक बल खाती चोटी
चेहरा चूमती काकुल
सोलह श्रृंगार कर कामिनी
लुभाती अपने प्रियतम को |
हिरणी से चंचल कजरारे नयन
ताम्बुल रचित रक्तिम अधर
लगती थी गज गामिनी सी
शायद उसे ही उकेरा गया था
प्रस्तर की प्रतिमाओं में |
धीरे से परिवर्तन आया
लम्बी बलखाती चोटी
जुड़े में सिमटने लगी
पर था उसका अपना आकर्षण |
अब कटे लहराते खुले बाल
बालाओं की पसंद बने
आधुनीक कहलाने की होड़ में
वे छोटे होने लगे |
पुरुषों में भी परिवर्तन आया
दाढी बढ़ाई मूंछें रंगीं
कुछ अलग दिखने की चाह में
बाल तक रंगने लगे |
वय प्राप्त लोग भी
कैसे पीछे रह जाते
कुछ आदत या युवा दिखने की चाहत
बाल रंगना न छूट पाया |
जब बालों में पतझड़ आया
उम्र ने भी प्रभाव दिखाया
पहले तो उन्हें रंगा सवारा
फिर भी जब असंतोष रहा
कह दिया, है गंज
निशानी विद्वत्ता की |
आशा



14 अप्रैल, 2011

प्रेम के प्रतीक


प्रकृती के आँचल में
जहाँ कई प्राणी आश्रय लिये थे
था एक सुरम्य सरोवर
रहता था जिस के समीप
श्याम वर्ण सारस का जोड़ा |
लंबा कद लालिमा लिये सर
ओर लम्बी सुन्दर ग्रीवा
सदा साथ रहते थे
कभी जुदा ना होते थे |
नैसर्गिक प्रेम था उनमें
जो मनुष्य में लुप्त हो रहा
वे स्वप्नों में जीते थे
सदा प्रसन्न रहते थे |
एक सरोवर से अन्य तक
उड़ना और लौट कर आना
अपनी भाषा में ऊंचे स्वर में
इक दूजे से बतियाना
था यही जीवन उनका |
प्रेमालाप भी होता था
पास आ कर
एक दूसरे की ग्रीवा सहला कर
बड़े प्रसन्न होते थे |
उनका चलना ,उनका उड़ना
जल में चोंच डाल
आहार खोजना
मनभावन दृश्य होता था |
जिसने भी देखे ये क्रिया कलाप
उसने ही सराहा प्यार के अनोखे अंदाज को
कुछ तो ऐसे भी थे
उनके प्यार की मिसाल देते थे |
समय के क्रूर हाथों ने
इस प्यार को ना समझ पाया
क्षुधा पूर्ति हेतु
किसी ने एक को अपना शिकार बनाया |
दूसरा सारस उदास हुआ
जल त्यागा
भोजन भी त्यागा
क्रंदन करता इधर उधर भटका |
जिसने भी यह हालत देखी
सोचा कितना
क्रूर होगा वह
जिसने इसे बिछोह दिया
थी जहां पहले खुशी
अब थी व्यथा ही व्यथा |
एक सुबह लोगों ने देखा
वह भी दम तोड़ चुका था
चारों ओर सन्नाटा था
सारस युगल अब ना था
पर यादें उनकी बाकी थीं |

आशा












13 अप्रैल, 2011

पहला प्यार


होती है प्रीत वह भावना
जो कभी समाप्त नहीं होती
कोमल भावनाओं का संचार
होता जाता अंतर मन में |
दिन दिन नहीं रहता
रात रात नहीं लगती
मन करता रमण उसी में |
प्यार है ऐसा जज्बा
जिसे भुलाया नहीं जाता
आकर्षण और समर्पण
होते
निहित इस में |
भूल
नहीं पाता कोई इसे
रहता अहसास इसका
जिंदगी के
आख़िरी
क्षण तक |
आवश्यक नहीं वह मिल पाये
जब अन्य किसी से नाता जुड़ जाये
उसकी निकटता पा कुछ तो मन बदलता है
पर यह प्यार नहीं समझौता है |
जो मिला नहीं उसकी यादें
धुँधली सी होने लगती हैं
पर उन यादों की ऊष्मा
एकांत क्षणों में, स्वप्नों में
बारम्बार सताती है
मन में दबी चिंगारी
ज्वाला बन जाती है |
प्यार पहला ही होता सच्चा
दूसरा मात्र समझौता है|
वह प्यार क्या
जिसकी याद नहीं आये
होता बहुत भाग्य शाली
जो उस तक पहुँच पाये |

आशा



11 अप्रैल, 2011

बदनाम हो गये



जब भी देखा तुम्हें

तुम अनदेखी कर चली गईं

कई बार यत्न किये मिलने के

वे भी सम्भव ना हो पाए

चूंकि हैसियत कमतर थी

पैगाम शादी का भी स्वीकार ना हुआ |

एक अवसर ऐसा भी आया

निगाहें चार तुमसे हुईं

नयनों की भाषा ना समझा

तुम क्या चाहती थीं

जान नहीं पाया |

घर में लोगों का आना जाना

और शादी की गहमागहमीं

मैं भी व्यस्त होने लगा

सभी से मिलने जुलने लगा

चाहे बेमन से ही सही |

हाथों में चूडियों की खनक

हिना से हथेलियाँ लाल

जब नजरें तुमनें उठा

सजल नयनों से मुझे देख

जल्दी से आंसू पोंछ लिये

झुका लिया निगाहों को |

डोली में बैठ जानें की तैयारी देख

सुन दिल की आवाज

मिलने को कदम बढाए भी

पर समाज का ख्याल आते ही

इस विचार को झटक दिया

उसे मन में ही दफन किया |

देखी तुम्हारी विदाई

गहन उदासी में डूबा

वह भी इतनी गहराई

चेहरे तक से झलकने लगी

लोगों ने कुछ भांप लिया

फुसफुसाहट चर्चा में बदली

तुम तो चली गईं लेकिन

हम तो बिना प्यार किये ही

बदनाम हो गए |


आशा






10 अप्रैल, 2011

है ऐसा क्या तुम में


हो मेरे ह्रदय की धडकन
तुम में ही समाहित मेरा मन
तुम्हारी इच्छा थी
मैं कुछ लिखूं
पर सोचता ही रह गया
तुम पर क्या लिखूं |
तुम में छिपी कई कलाएं
मैं गाना तक नहीं जानता
है हम में इतना अंतर
जितना पृथ्वी और अम्बर के अंदर
फिर भी अलग नहीं हम
मिले रहे क्षितिज की तरह
मैं अधिक ही व्यस्त रहा
फिर भी दूरी सह ना सका
कई बार लौट कर आया
जब भी कोई तकरार हुई
क्रोध पर काबू किया
भुला दिया उसे
असहयोग तक दर्ज न किया |
जब भी कभी मनन करता हूँ
सोचता ही रह जाता हूँ
है ऐसा क्या तुममें
मुझे पूरा ही
बदल कर रख दिया |
यह दैहिक मोह नहीं लगता
बैचारिक सामंजस्य भी नहीं ,
कार्य कुशल तो सभी होते हैं
कर्त्तव्य परायण भी ।
पर ना जाने तुम में है क्या ?
लगता जन्म जन्मांतर का साथ
जिसे निभाया बहुत जतन से
अब ना रहे कोई आकांक्षा अधूरी
संतुष्टि हो जीवन में |

आशा









07 अप्रैल, 2011

है व्यक्ति परक


है व्यक्ति परक बहुत चंचल
बहता निरंतर
पहाड़ों से निकलती
श्वेत धवल जल की धारा सा
ले लेता रूप जल प्रपात का
फिर कल कल करता झरने सा
कभी शांत , कभी आकुल ,
तो उत्श्रृखल कभी
हो जाता वेग वती सा |
जल की गति
बाधित की जा सकती है
पर मन पर नियंत्रण कहाँ |
बंधन स्वीकार नहीं उसको
निर्वाध गति चाहता है
होता है व्यक्ति परक
जो दिशा दश मिलती है
उस पर ही चलता जाता है |
बुद्धि का अंकुश नहीं चाहता
भावनाओं से दूर बहुत
अपनी स्वतंत्रता चाहता है |
आशा




06 अप्रैल, 2011

तस्वीर उजड़े घर की



बहारों ने दी थी दस्तक
इस घर के दरवाजे पर
पैर पसारे थे खुशियों ने
छोटी सी कुटिया के अंदर |

लाल जोड़े मैं सजधज कर
जब रखा पहला कदम ,
अनेक स्वप्न सजाए थे
आने वाले जीवन के |
था मेंहदी का रंग लाल
प्यार का उड़ता गुलाल ,
सारे सुख सारे सपने
सिमट गए थे बाहों में |
वह मंजर ही बदल गया
जब झूमता झामता वह आया ,
गहरी चोट लगी मन को
जब यथार्थ सामने आया |
कारण जब जानना चाहा
उत्तर था बड़ा सटीक ,
रोज नहीं पीता हूँ
खुश था इसी लिए थोड़ी ली है |
पीने का क्रम ,
गम गलत करने का क्रम
अनवरत बढ़ता गया
सामान तक बिकने लगा |
हाला का रंग ऐसा चढ़ा
पीना छूट नहीं पाया ,
रोज रोज कलह होती थी
रात भर ना वह सोती थी |
बिखर गए सारे सपने
अरमानों की चिता ज़ली
कल्पनाएँ झूठी निकलीं
बस रह गयी यह
तस्वीर उजड़े घर की |

आशा







02 अप्रैल, 2011

जो आहुति दी


बाट जोहते थक गए नयना
टकटकी लगा देखते रहना
अश्रु धारा थमने का
नाम नहीं लेती |
शायद कोई पाती आ जाती
वह बैठी राह देखती
प्रियतम के इन्तजार में
वे आये भी पर इस रूप में |
आँखे पथरा गईं
हृदय खंड खंड हो गया
मरणोपरांत मिले मेडिल का
सम्मान ही शेष रह गया |
देश हित की कुर्बानी को
जग जाहिर कर
आँसू बहाना
अपमान है बलिदान का |
जो आहुति दी देश के लिए
मन श्रद्धा से भर उठता है
आँखे नम होने लगी
एक मुठ्ठी मिट्टी दी
जब उसे बिदाई में |
सन्देश वह जो दे गया
नौनिहालों के लिए
उस राह पर वे चलेंगे
देश हित में आत्मोत्सर्ग करेंगे |


आशा




31 मार्च, 2011

सौहार्द


खेल को खेल समझा
युद्ध का मैदान नहीं
प्यार का सन्देश समझा
नफरत की दुकान नहीं |
खेल का मैदान था
अहम मैच हो रहा था
स्नेह का सेतु बन रहा था
भाई चारा पनप रहा था |
कोई हारे कोई जीते
बस खेल भावना बनी रहे
दुश्मनी ना हो किसी से
केवल प्यार ही पले |
जीवन का आनंद यही है
खेल भावना फूले फले
यह खेल का मैदान है
यहाँ सौहार्द ही पले |

आशा

30 मार्च, 2011

अडिग विश्वास


झोंपड़े में टिमटिमाता दिया
है अपार शान्ति वहाँ
ना बैर न प्रीत किसी से
केवल संतुष्टि का भाव वहां |
था निश्चिन्त निश्छल
श्रम ही था जीवन उसका
वर्तमान में जीता था
कल क्या होगा सोचा न था |
था अटूट विश्वास कर्ता पर
पर कभी कुछ चाहा नहीं
प्रारब्ध में जो कुछ लिखा था
विधाता की देन समझता था |
अडिग विश्वास नियति पर था
अतृप्ति का भाव न था
कठिन परिश्रम करता था
गहरी नींद में सोता था |
है जीवन क्या और मृत्यु क्या
मन में कभी आया नहीं
मोक्ष किसे कहते हें
यह भी कभी विचारा नहीं |
व्यस्तता इतनी रहती थी
ऐसी बातों के लिये समय न था
ये सब व्यर्थ लगती थीं
कर्म पर ही विश्वास था |
कभी हार नहीं मानीं
एक दिन सब छोड यहीं
प्रकृति की गोद में सर रख कर
चिर निद्रा में खो गया |

आशा





27 मार्च, 2011

जाने ऐसा क्या है इसमें



जाने ऐसा क्या है इसमें
बहुत मोह होता इससे
यदि हल्की सी ठोकर भी लगे
मन को विचलित कर जाए |
झूठे अहम चैन से
उसे रहने नहीं देते
उलझ कर उनमे ही रह जाता
नियति के हाथ की
कठपुतली बन कर |
क्या है उचित और क्या अनुचित
इसका भी ध्यान नहीं रखता
चमक दमक की दुनिया में
इतना लिप्त होता जाता
यह तक समझ नहीं पाता
कि वह क्या चाहता है |
गर्व की चरम सीमा पर
होता है प्रसन्न इतना कि
वह सब से अलग नहीं है
यह तक भूल जाता है |
संयम और सदा चरण
होने लगते दूर उससे
फिर भी भागता जाता है
आधुनिकता की दौड़ में |
दिन में व्यस्त काम काज में
रात गवाता चिंताओं में
फिर भी मन भटकता है
शान्ति की तलाश में |
है संतुष्टि से दूर बहुत
माया मोह में आकंठ लिप्त
शायद भूल गया है
सब यहीं छूट जाएगा |
है यह तन विष्ठा की गठरी
ऊपर से सुंदर दिखा तो क्या
एक दिन मिट जाएगा
चंद यादें छोड़ जाएगा |

आशा


26 मार्च, 2011

जिज्ञासा मन की


वह जब भी अकेला होता है
सोचता पापा कब आएँगे
एक रात छत पर
तारों भरे अम्बर के नीचे
वही प्रश्न किया दादी से
कुछ क्षण मौन रहीं
फिर इंगित किया एक तारे को
तेरे पापा हैं वहाँ
अब तू जल्दी से सो जा |
वह अब रोज तारे देखता
मन ही मन प्रार्थना करता
पापा जल्दी आओ ना
मुझे अपने पास सुलाओ ना |
दादी का सिर सहलाना
हल्की हल्की थपकी देना
जाने कब नींद आ जाती
वह सपनों में खो जाता |
एक रात एक तारा टूटा
उसे नीचे आते देखा
सोचा पापा आते होंगे
पर वे नहीं आए |
सुबह हुई वे जब ना मिले
दादी से फिर प्रश्न किया
टूटा तारा गया कहाँ
पापा क्यूँ नहीं आए ?
दादी हौले से बोलीं
जब भी कोई तारा टूटता है
किसी को भगवान बुला लेता है
वही प्रश्न और वही उत्तर
पर हल खोज नहीं पाया
पापा का प्यार पाने के लिए
नन्हा सा दिल तरस गया |
जब दरवाजे पर दस्तक होती
या क़दमों की आहट होती
वह पापा की कल्पना करता
हर रात यही सोचता कि पापा आएंगे |
तारों को रोज देखता
जाने कब आँख लग जाती
और मन की जिज्ञासा
अधूरी ही रह जाती |

आशा

24 मार्च, 2011

जीवन

माटी से दीपक बनाया
अग्नि से उसे पकाया
सुन्दर दिखे इस प्रयास में
कई रंगों से उसे सजाया |
छोटा सा जीवन उसका
स्नेह भरा बाती डाली
ज्योति जब जलने लगी
रौशनी फैलने लगी |
मार्ग पर चलने वालों की
आवश्यकता उसने समझी
कल्याण भावना से भरा
सेवा में वह जुट गया |
कल्याण मार्ग अवरुद्ध ना हो
मार्ग सदा रौशन रहे,
वायु के झोंकों से,
उसे बचाने के लिए
कई प्रयास अनवरत किये |
वह टिमटिमाता रहा
स्नेह चुकता गया
बाती
ने भी साथ छोड़ा
लौ तेज हुई
वह भभका और बुझ गया
मिट्टी से बना था
उसमें ही विलीन हो गया |
पर एक नए दिए ने
उसका स्थान लिया
जो मार्ग दिखाया उसने
उसी को अपना लिया
और परिष्कृत किया |
परिवर्तन अपेक्षित था
एक गया दूसरा आया
यही क्रम चलता रहा
संसार आगे बढ़ता रहा |

आशा


23 मार्च, 2011

है उम्र ही ऐसी


बढ़ता अन्तर द्वन्द
टूटते बिखरते सपने
होते नहीं
किसी के अपने |
अपने भी लगते बेगाने
चाहे कोई
माने ना माने |
कशिश ओर तपिश उसकी
कर देती बेचैन
उसकी ही तलाश में
हुआ प्यासे चातक सा हाल |
मनोदशा ऐसी हुई
पंख कटे पक्षी जैसी
वह छटपटाहट और बदहाली
रात और हो जाती काली |
उस की स्याही में
डूबती उतराती
व्यथा और बढ़ती जाती
रात अधिक हो जाती काली |
सही राह नहीं दिखती
सलाह उचित नहीं लगती
सभी लगते दुश्मन से
जो भी उसका विरोध करते |
होना है जीवन का
अहम फैसला
जिस पर निर्भर
जीवन उसका |
पर है उम्र
ही कुछ ऐसी
जब बहकते कदम
नाम नहीं लेते ठहरने का |


20 मार्च, 2011

आँखें आद्र हुईं


बागवान ने बड़े प्यार से
पाला पोसा बड़ा किया
सुन्दर स्वस्थ देख उन्हें
अपने पर भी गर्व किया |
दो फूल लगे एक डाल पर
सौहार्द की मिसाल लिए
साथ ही विकसित हुए
कलिकाओं से फूल बने |
दिन रात साथ रहते थे
दृष्टा को सुख देते थे
सुख
की दुनिया में खोए
अपने पर था नाज़ उन्हें|
एक अजनबी वहाँ आया
उसने डाली को हिलाया
एक फूल डाली से टूटा
गुलदस्ते की शोभा बना |
दूसरा भी कमजोर होगया
फिर पनप नहीं पाया
अब ना वह प्रेम था
और ना ही अपनापन |
सब बदल गए थे
आज के सन्दर्भ में
वे अजनबी हो गए थे
रह कर विभिन्न परिवेश में |
माली ने जब यह सब देखा
आँखें आद्र हुईं उसकी
पर वह यह भूल गया था
है जीवन का कटु सत्य यही |

आशा


19 मार्च, 2011

दरकते रिश्ते


रिश्ते निभाना वही जानता है
जिसने उन्हें कभी पाला हों
गहराई से समझा हों
कभी मन से अपनाया हों |
होती है एक सीमा उनकी
निश्चित होती मर्यादा उनकी
यदि अधिक उन्हें खीचा जाए
असहनीय हों जाते हें
मन व्यथित कर जाते हैं |
होते नाजुक इतने कि
काँच से दरक जाते हें
उसने बहुत करीब से
दरकते रिश्तों को देखा है |
उन्हें किरच किरच हों
बिखरते भी देखा है
उनसे उपजे दर्द को
मन की गहराई मैं
उतरते देखा है |
पर कभी चेहरे पर
कोइ भाव नहीं देखा
लगती निर्विकार
दर्द से बहुत दूर ,
कुचले गए अरमानों पर
नंगे पाँव चल रही है
सुलगती आग से भी
ठंडक का अहसास दिला जाती है|
संसार से दूर बहुत
अपने आप में सिमट गयी है
वह कहीं खो गयी है
भौतिकता वादी दुनिया से
शायद दूर हो गयी है
अपने आप मैं गुम हो गयी है |

आशा

16 मार्च, 2011

वह जड़ सा हो गया


बदलता मौसम
बेमौसम बरसात
अस्त व्यस्त होता जीवन
फसलों पर भी होता कुठाराघात |
इस बूंदा बांदी से
कई मार्ग अवरुद्ध हो गए
मानो जाम लगा सड़कों पर
बंद के आवाहन से |
अल्प वर्षा या अति वर्षा
या कीटों के संक्रमण से
सारी फसल चौपट हो गयी
गहरा दर्द उसे दे गयी |
जब ऋण नहीं चुका पाया
मृत्यु के कगार तक आया
बड़ी योजनाओं के लाभ
चंद लोग ही उठा पाए |
बचत या अल्प बचत
या आधे पेट खा बचाया धन
जब मंहगाई की मार पड़ी
सारी योजना ध्वस्त हो गयी |
जाने कितने बजट आए
और आ कर चले गए
ना तो कोई उम्मीद जगी
ना ही राहत मिल पाई |
मुद्रा स्फीति की दर ने भी
अधिक ही मुंह फाड़ा
सब ने हाथ टेक दिए
विकल्प ना कोई खोज पाए |
मंहगाई और बढ़ गयी
बेरोजगार पहले से ही था
असह्य सब लगने लगा
और वह जड़ सा हो गया |

14 मार्च, 2011

कटु सत्य



यदि पहले से जानते
दुनिया कल्पना की ,
स्वप्नों की ,
होती है खोखली
है प्रेम डगर
काँटों से भरी ,
सोचते
दिमाग से
दिल लगाने से पहले |
कई मुखौटे लगाए
इसी चेहरे पर ,
उतारते गए उन्हें
कपड़ों की तरह
अपने सपने साकार
करने के लिये |
पहले था विश्वास ख़ुद पर
वह भी डगमगाने लगा
यथार्थ के सत्य
जान कर |
समझते थे खुद को
सर्व गुण संपन्न ,
वे गुण भी गुम हो गए
कठिन डगर पर चलके |
सम्हल भी ना पाए थे
सोच भी अस्पष्ट था
कि बढ़ती उम्र ने दी दस्तक
जीवन के दरवाजे पर |
सारी फितरत भूल गए
बस रह गए
कोल्हू का बैल बन कर
सारे सपने बिखर गए
प्रेम की डगर
पर चल कर |
चिंताएं घर की बाहर की
प्रति दिन सताती हैं
प्रेम काफूर हो गया है
कपूर की तरह |
बस ठोस धरातल
रह गया है
गाड़ी जिंदगी की
खींचने के लिए |

आशा