31 दिसंबर, 2010

कल जब सुबह होगी


आप सब को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनायें |
कल जब सुबह होगी
एक वर्ष बाद आँखें खुलेंगी
रात भर में ही
पूरा वर्ष बीत जायेगा
क्योंकि इस वर्ष सोओगे
और कल होगा अगला वर्ष 
जब मंद-मंद मुस्कान लिए
उदित होते सूरज की
प्रथम किरण निहारोगे
अरुणिमा से आच्छादित आकाश
और मखमली धूप का अहसास
सब कुछ नया-नया होगा
क्योंकि नये वर्ष का स्वागत करोगे
संजोये स्वप्नों की उड़ानें
जो पूर्ण नहीं हो पाईं पहले
साकार उन्हें करने के लिए
खुद से कई वादे करोगे
आज रात नाचो गाओ
नव वर्ष के स्वागतार्थ
मन में होते स्पंदन का
खुल कर इज़हार करो
वैसे भी तुम्हें था कब से इन्तजार
आज की रात का
कल के प्रभात का ,
और नए सन् के प्रारम्भ का
नाचो गाओ खुशियाँ बाँटो
बीते कल को अलविदा कहो
आने वाले नये दिन का
दिल खोल स्वागत करो |


आशा

30 दिसंबर, 2010

एक वर्ष और बीत गया


एक वर्ष और बीत गया
कुछ भी नया नहीं हुआ
हर बार की तरह इस वर्ष भी
नया साल मनाया था
रंगारंग कार्यक्रमों से सजाया था
खुशियाँ बाँटी थीं सब को
कठिन स्थितियों से जूझने की
बीती बातें भुलाने की
कसमें भी खाई थीं
पर पूरा साल बीत गया
कोई परिवर्तन नहीं हुआ
ना तो समाज में, ना ही देश में
ओर ना ही प्रदेश में
एक ही उदाहरण काफी है
प्रगति के आकलन के लिए
सड़कों पर डम्बर डाला था
कुछ नई भी बनाईं थीं
बहुत कार्य हुआ है
बार-बार कहा गया था
एक बार की वर्षा में ही
सारा डम्बर उखड़ गया
रह गए बस ऊबड़ खाबड़ रास्ते
गड्ढे उनपर इतने कि
चलना भी दूभर होगया
महँगाई की मार ने
भ्रष्टाचार और अनाचार ने
सारी सीमाएं पार कीं
जीना कठिन से कठिनतर हुआ
पर स्वचालित यंत्र की तरह
आने वाले कल का स्वागत कर
औपचारिकता भी निभानी है !


आशा

29 दिसंबर, 2010

दुनिया एक छलावा है


हूँ एक ऐसा अभागा 
दुनिया ने ठुकराया जिसे
वे भी अपने न हुए
विश्वास था जिन पर कभी
सफलता कभी हाथ नहीं आई
असफलता ने ही माथा चूमा
साया तक साथ छोड़ गया
तपती धूप में जब खड़ा पाया
कभी सोचा है  भाग्य ही खराब 
हर असफलता पर कोसा उसे
जो दुनिया रास नहीं आई
बार-बार धिक्कारा उसे
मेरी बदनसीबी पर
चन्द्रमा तक रोया
प्रातः काल उठते ही
पत्तियों पर आँसू उसके दिखे
चाँदनी तक भरती सिसकियाँ
बादलों की ओट से
फिर भी जी रहा हूँ
ले लगन ओर विश्वास साथ
साहस अभी भी बाकी है
आशा की किरण देती  दिखाई 
सफल भी होना चाहां 
पर इतना अवश्य जान गया हूँ
है दुनिया एक छलावा
वह किसी की नहीं होती
जब भी बुरा समय आये
वह साथ नहीं देती |


आशा

28 दिसंबर, 2010

एक विचार मन में आया

देख प्रकृति की छटा
खोया-खोया उसमें ही
जा रहा था अपनी धुन में
ध्यान गया उस पीपल पर
था अनोखा दृश्य वहाँ
 खड़खड़ा रहे थे पत्ते
आपस में बतिया रहे थे
मंद पवन को संग ले
आकाश में उड़ना चाह रहे थे
हरे रंग के कुछ पक्षी
यहाँ वहाँ उड़-उड़ कर
पीपल के फल खाते
पहले सोचा तोते होंगे
पर उत्सुकता ने ली अंगड़ाई
छुपता छुपाता आगे बढ़ा
दुबका एक झाड़ी की आड़ में
अब  था दृश्य बहुत साफ
वे तोते नहीं थे
लगते थे कबूतर से
पर कबूतर नहीं थे
वे हरे थे
एक डाल से दूसरी पर जाते
शांत बैठना मनहीं जानते
पीली चोंच, पीले पंजे
उन्हें विशिष्ट बना रहे थे
मैं अचम्भित टकटकी लगा
उनके करतब देख रहा था
निकट के जल स्त्रोत पर
झुकी डाल पर बैठ-बैठ
गर्दन झुका जल पी तृप्त हो
पत्तियों में ऐसे छुपे
मानो वहाँ कोई न हो
 एक व्यक्ति जब  निकला 
वृक्ष के नीचे से
सारे पक्षी उड़ गये
रोका उसे और पूछ लिया
थे ये कौन से पक्षी
लगते जो कबूतर से
पर रंग भिन्न उनसे
उसने ही बताया मुझे
ये वृक्ष पर ही रहते हैं
वही है बसेरा उनका
मुड़े हुए पंजे होने से
धरती पर चल नहीं पाते
हरे रंग के हैं
हरियाल उन्हें कहते हैं  (ग्रीन पिजन )
वह तो चला गया
मैं सोचता रह गया
प्रकृति की अनोखी कृति
उन पक्षियों के बारे में
तभी एक विचार मन में आया
मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन नहीं है
पक्षी भी भय खाते उससे
तभी तो उसे देख
उससे किनारा कर लेते हैं
शरण आकाश की लेते हैं |


आशा

16 दिसंबर, 2010

सुरमई आँखों की स्याही

सुरमई आँखों की स्याही
फीकी पड़ गयी है
गालों पर लकीर आँसुओं की
बहुत कुछ कह रहीं हैं
ना तो है धन की कमी
ना ही कमजोर हो तुम
फिर भी घिरी हुई
कितनी समस्याओं से
क्यूँ जूझ नहीं पातीं उनसे
है ऐसा क्या जो सह रही हो
बिना बात हँसना रोना
एकाएक गुमसुम हो जाना
है कोई बात अवश्य
जिसे कह नहीं पातीं
और घुटन सहती गईं
जब सब्र का बाँध टूट गया
आँखों से बहती अश्रु धारा
तुम कहो या न कहो
कई राज खोल गई
वह समय अब बीत गया
गलत बात भी सह लेतीं थीं
प्रतिकार कभी ना करती थीं
अब तुम इतनी सक्षम हो
आगे अपने कदम बढ़ाओ
सच कहने की हिम्मत जुटाओ
उठो, जागो, अन्याय का सामना करो
आत्मविश्वास क़ी मशाल जला
पुरज़ोर प्रतिकार उसका करो
तभी तुम कुछ कर पाओगी
अपनी पहचान बना पाओगी |


आशा

15 दिसंबर, 2010

कल्पना ही रोमांचक है

दी है दस्तक दरवाज़े पर
ठंडी हवा ने, जाड़े ने
और गुनगुनी धूप ने
बेटे का स्वेटर बुन रही हूँ
जल्दी ही पूरा हो जायेगा
क्या करती कोई नई बुनाई
ना मिल पाई थी
उसे खोजने में ही
इतने दिन यूँही बीत गये
कई किताबें देखीं
पत्रिकाएँ खरीदीं
पर वही घिसे पिटे नमूने
कुछ भी तो नया नहीं था
छोटे मोटे परिवर्तन कर
की गयी प्रस्तुति उनकी
देख मन खराब हुआ ,
फिर पुराना जखीरा नमूनों का
खुद ही खोज डाला
नर्म गर्म उन का अहसास
सलाई पर उतरते फंदे
और जाड़ों की कुनकुनी धूप
बेहद अच्छी लगती है
उँगलियों की गति
तीव्र हो जाती है
और जुट जाती हूँ
उसे स्वेटर में सहेजने में
जब वह उसे पहन निकलेगा
उसे रोक कोशिश होगी
स्वेटर देख कर
नमूना उतारने की
असफलता जब हाथ लगेगी
सब को बहुत कोफ्त होगी
बुनाई क़ी होड़ में
सबसे आगे रहने में
जो आनंद मिलेगा
उसकी कल्पना ही रोमांचक है !


आशा





,

14 दिसंबर, 2010

खुलने लगे हैं राज

खुलने लगे हैं राज़ अब ,
अब उस किताब के ,
अनछुए पन्नों के ,
हर पन्ने पर थीं कुछ लाइनें ,
पेन्सिल से चिन्हित ,
वे ही पढ़ ली जाती थीं ,
और रस्म अदाई हो जाती थी ,
उसे पढ़ने की ,
जो पन्ने छुए नहीं गये ,
जानने क़ी इच्छा ज़रूर थी ,
लिखा है क्या उनमें ,
लगने लगा तुझ से मिल कर ,
कहीं भूल हुई है ,
पुस्तक को पढ़ने में ,
उसका तो हर शब्द बोलता है ,
तेरे मन में क्या था ,
कैसी अभिव्यक्ति थी ,
और अनुभवों का ,
रिसाव था कृति में ,
सच कहूँ अब लग रहा है ,
तुझमें और उसमें ,
है कितना अधिक साम्य ,
एक-एक शब्द यदि नहीं पढ़ा ,
उस पर विचार नहीं किया ,
तब समझना बहुत कठिन है ,
तुझे और तेरी किताब को ,
और उसमें छिपे राज़ को |


आशा




,

13 दिसंबर, 2010

एक आम आदमी


दिखाई देता है जैसा
वह उन सब सा नहीं है
बना सँवरा रहता है
पर धनवान नहीं है
दावा करता विद्वत्ता का
चतुर सुजान होने का
कुछ भी तो नहीं है
संतृप्त दिखाई देता 
पर हैं अपूर्ण आशाएं
हैं दबी हुई भावनाएं
वह संतुष्ट नहीं है
दिखावा ईमानदारी का
पर लिप्त भ्रष्टाचार में
दोहरा जीवन जी रहा 
है विरोधाभास व्यक्तित्व में
वह भी जानता है
पर स्वीकारता नहीं
परिवार की गाड़ी खींच रहा 
कितना बोझ उठा रहा है
किस बोझ तले दबा है
कितनों का  है कर्ज़दार 
यह नहीं जानता
या नहीं स्वीकारता
क्यूँकि वह है
एक आम आदमी
और कोशिश कर रहा है
विशिष्ट बनने की |


आशा

11 दिसंबर, 2010

सच क्यूँ नहीं कहते


बातों के लच्छे
गालों के डिम्पल
और शरारत चेहरे पर
किसे खोजती आँखें तेरी
लिए मुस्कान अधरों पर
कहीं दूर बरगद के नीचे
मृगनयनी बैठी आँखें मींचे
करती इंतज़ार हर पल तेरा
चौंक जाती हर आहट पर
आँखें फिर भी नहीं खोलती
यही भरम पाले रहती
नयनों में कैद किया तुझको
दिल में बंद किया तुझको
खुलते ही पट नयनों के
तू कहीं न खो जाये
स्वप्न स्वप्न ही न रह जाए
है अपेक्षा क्या उससे
स्पष्ट क्यूँ नहीं करते
 क्या चाहते हो
सच क्यूँ नहीं कहते 
 भ्रम जब टूट जायेगा
सत्यता जान पाएगी |
आशा


,

10 दिसंबर, 2010

सब तुम्हें याद करते हैं


तुम्हारी सादगी ने
सदाचरण ने
मुझे जीना सिखाया
मधुर स्वरों ने
गाना गुनगुनाना सिखाया 
पहले कभी गीतों की
नई धुन न बन पाती थी
वही स्वर वही राग
आरोह अवरोह स्वरों का
और भेद स्थाई अंतरे का
सभी तुम से सीख पाया
साज़ जब भी बेसुरा हुआ
स्वर में ला बजाया तुमने
 स्वर में लाना सिखाया तुमने ,
सोचा न था कभी
मंच पर भी जाऊँगा
तुमसे सीखी धुनों को
अपने गीतों में सजाऊँगा
अब जब भी
तालियाँ बजती हैं
प्रोत्साहन मुझे मिलता है
पर मुझसे पहले
तुम्हें याद किया जाता है
क्योंकि मैंने तुमसे
शिक्षा ली है
गुरू शिष्य परम्परा
भी निभाई है
तुमसे ही प्रेरणा ली है
गीतों को नया रंग दे कर
जब भी प्रस्तुत करता हूँ
तुम्हारी सादगी, सदाचार
 मधुर, मन छूती आवाज़
का ही बल मिलता है
सच्ची साधना
संगीत की आराधना
ओर बिंदास प्रस्तुति
सभी सराहे  जाते  हैं
मुझे मंच पर देख
सब तुम्हें याद करते हैं
तुम जैसे लोगों को
सादर प्रणाम करते हैं |


आशा

08 दिसंबर, 2010

संवेदना का ह्रास


मचा हुआ हाहाकार
सुलगती आग
धुँए का गुबार
और बारूद की गंध
आपस में  उलझते लोग
कितना शोर कर रहे हैं
पर हैआर्तनाद कैसा
सोचो ज़रा देखो है कहाँ
शायद कोई पल ठहर गया 
देख कर नृशंसता
हृदय हीन लोगों का कृत्य
कुत्सित इरादों का नृत्य
चारों ओर पसर गया है
बाहर झाँको देखो ज़रा
जाने कौन घिसट रहा है
दिखता रक्तरंजित
खूनी होली खेल चुका है
ज़िंदगी से जूझ रहा है
है सहायता अपेक्षित
जाओ वहाँ कुछ मदद करो
शायद वह कुछ बोल रहा है
उसे समझो सहारा दो
है यदि दया भाव शेष
आर्तनाद को   समझो
उपचार और दयाभाव
उसे संबल दे पायेंगे
जीवन उसे दे पायेंगे
आखिर क्यूँ रुक गये हो
क्या संवेदना विहीन हो 
जो कुछ जग में हो रहा 
उससे निस्पृह हो गये हो
यह आर्तनाद
हृदय को छलनी कर देगा
जब भी कभी ख्याल आयेगा
नींद हराम कर देगा
फिर कभी कोई
मदद नहीं माँगेगा
सब जान जायेंगे
 हृदयहीनता को
दम तोड़ती संवेदना को
कभी न उबर पाओगे
मन में उठती वेदना से
सोचते ही रह जाओगे
यदि सहायता की होती
संवेदना जीवित होती
उसे जीवन दान मिलाती
पत्नी को पति और
बच्चों को पिता का
स्नेह मिल सकता था|


आशा



,

07 दिसंबर, 2010

जो भूल न पाया


छूट गये सब संगी साथी
सभी से दूर हो गया 
साथ हैं केवल यादें
जो बार-बार साकार हो
स्मृति पटल पर
रखी किताब के
पिछले पन्ने खोल देती 
ना ही भुलाना चाहता
 ना ही भूल पाता है !
और लौट जाता है
बचपन क़ी मीठी यादों में
रंग बिरंगी अंटियाँ ले
करता इंतज़ार मित्रों का
जैसे ही कोई आता
खेल शुरू हो जाता था
कभी सड़क पर दौड़ लगाता
हल्ला गुल्ला और शरारत
छेड़ छाड़ और बतियाना
आते जाते लोगों से
क्या यह वही नटखट है
कुछ समानता तो दिखती है
पर पहचान नहीं पाता
धुँधली होती स्मृति को
विश्वास नहीं होता !
कुछ रुक कर आगे बढ़ता है
अगला पन्ना खोलता है
कुछ उम्र बढ़ी कुछ लम्बाई
आसमान छूना चाहा
प्रोत्साहन और कठिन परिश्रम
दोनों ने अपना रंग दिखाया
और बना वह बड़ा ऑफीसर !
पर बहुत कुछ पीछे छूट गया
ना सड़क पर होता खेल
और न होती कुट्टी मिठ्ठी
ना ही कोई लड़ाई झगड़े
बस सिलसिला शुरू हुआ
'जी सर का 'और
कुर्सी को सलाम का !
जब से सेवा मुक्त हुआ है
आस पास का जमघट
जाने कहाँ तिरोहित हो गया
रह गया वह नितांत अकेला
खोजता है कोई मिले
जिससे कुछ कह सुन पाये
बीता कल बाँट पाये
मन में उठी भावनाओं को
साकार शब्दों में कर पाये |


आशा

05 दिसंबर, 2010

नहीं होता जीवन एक रस


नहीं होता जीवन एक रस
कभी सरस तो कभी नीरस
जब होता जीवन संगीत मय
 हँसी खुशी रहती है
तभी जन्म ले पाती हैं
राग रागिनी और मधुर धुनें
जब हो जाता जीवन अशांत
थम जाता मधुर संगीत
धुनें या तो बनती ही नहीं
बन भी जायें यदि
मधुरता हो जाती गुम
समय के साथ-साथ
होते परिवर्तन दोनों में
समय निर्धारित है
हर राग गाने का
सही समय पर गाया जाये
तभी मधुर लगता है
बेसमय गाया राग
कर्ण कटु लगता है
समानता दोनों में है
पर है एक अन्तर भी
जीवन तो क्षणभंगुर है
संगीत स्थाईत्व लिये है
प्रकृति के हर कोने में
बिखरा पड़ा है संगीत
है यह मानव प्रकृति
उसे किस रूप में अपनाए
अपने कितने निकट पाए 
सृजन संगीत का
समय के साथ होता जाता है |


आशा

03 दिसंबर, 2010

एक छोटी सी गली


जीवन के कई रंग देखे
इस छोटी सी गली में
भिन्न-भिन्न लोग देखे
इस सँकरी सी गली में
प्रातःकाल भ्रमण करते
बुजुर्ग दिखाई देते 
जाना पहचाना हो
या हो अनजाना
हरिओम सभी से कहते 
जैसे ही धूप चढ़ती 
सभी व्यस्त हो जाते 
कोई होता तैयार
ऑफिस जाने के लिये
कोई बैठा पेपर पढ़ता
हाथ में गर्म चाय का प्याला ले !
बच्चों की दुनिया है निराली
करते शाला जाने की तैयारी
आधे अधूरे मन से
किसी का जूता नहीं मिलता
तो किसी का बस्ता खो जाता
फिर भी नियत समय पर
ऑटो वाला आ जाता
इतना शोरशराबा होता
तब कोई काम ना हो पाता
फिर भी जीने के अंदाज का
अपना ही नजारा होता |
भरी दोपहर में काम समाप्त कर
जुड़ती पंचायत महिलाओं की
करती रहतीं सभी वकालत
अपने अपने अनुभवों की !
है विशिष्ट बात यहाँ की
हर धर्म के लोग यहाँ रहते 
इस छोटी सी तंग गली में
सभी धर्म पलते हैं
अनेकता में एकता क़ी
अद्भुत मिसाल दिखते हैं |
सारे त्यौहार यहाँ मनते 
मीठा मुँह सभी करते हैं
अगर कोई समस्या आये
सभी सहायता करते हैं |
हिलमिल कर रहते हैं सभी
छोटा भारत दिखते हैं
यथोचित सम्मान सभी का
सभी लोग करते हैं
है तो यह छोटी सी गली
पर राखी, ईद, दिवाली, होली ,
सभी यहाँ मनते हैं |


आशा

30 नवंबर, 2010

कोई नहीं बचा इससे


जाति प्रथा का जन्म हुआ था
कार्य विभाजन के आधार पर
संकुचित विचार धारा ने
घेरा इसे कालान्तर में
शहरों में दिखा कम प्रभाव
पर गाँवों में विकृत रूप हुआ
जो भी वहाँ दिखता है
मन उद्वेलित कर देता है
ऊँच नीच और छुआ छूत
हैं अनन्य हिस्से इसके
दुष्परिणाम सामने दिखते
कोई नहीं बचा इससे
आपस में बैर रखते हैं
मनमुटाव होता रहता है
असहनशील हैं इतने कि
रक्तपात से नहीं हिचकते
बलवती बदले की भावना
जब भी हो जाती है 
हो जाते हैं आक्रामक
सहानुभूति जाति की पा कर
और उग्र हो जाते हैं
है स्वभाव मानव का ऐसा
बदला पूरा ना हो जब तक
चैन उसे नहीं आता
अधिक हिंसक होता जाता
लूटपाट और डकैती
नियति बनती जाने कितनों की
इनसे मुक्ति यदि ना मिलती
चम्बल का बीहड़ बुलाता
रोज कई असहिष्णु  लेते जन्म 
आपस में उलझते रहते 
जाति प्रथा के तीखे तेवर
देते  हवा उपजते वैमनस्य को
 मानव स्वभाव की उपज
और जातिवाद की तंग गलियाँ 
कितना अहित करती हैं
 क्या उचित इन सब का होना
शांत भाव से जीने के लिए
मनुज स्वभाव बदलने के लिए
है आवश्यक इनसे बचना
और आत्मनियंत्रित होना |


आशा

29 नवंबर, 2010

ठिठुरन


कोहरे की घनी चादर 
यह ठिठुरन और
ठंडी हवा की चुभन
हम महसूस करते हैं
सब नहीं
सुबह होते हुए भी
रात के अँधेरे का अहसास
हमें होता है
सब को नहीं
आगे कदम बढ़ते जाते हैं
सड़क किनारे अलाव जलाये
कुछ बच्चे बैठे 
कदम ठिठक जाते हैं
आँखों के इशारे
उन्हें मौन निमंत्रण देते 
इस मौसम से हो कर अनजान
तुम क्यूँ बैठे हो यहाँ
ऐसा क्या खाते हो
जो इसे सहन कर पाते हो
उत्तर बहुत स्पष्ट था
रूखी रोटी और नमक मिर्च
प्रगतिशील देश के
आने वाले कर्णधार
ये नौनिहाल
क्या कल तक जी पायेंगे
दूसरा सबेरा देख पायेंगे
मन में यह विचार उठा
पर यह मेरा भ्रम था
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ 
जैसा मैंने सोचा था
अगले दिन भी
कुछ देर से ही सही
कदम उस ओर ही बढ़े
सब को सुबह चहकते पाया
लगा मौसम से सामंजस्य
उन्होंने कर लिया है
धीरे से एक उत्तर भी उछाला
कैसा मौसम कैसी ठिठुरन
अभी काम पर जाना है
सुन कर यह उत्तर
खुद को अपाहिज सा पाया
असहज सा पाया
इतने सारे गर्म कपड़ों से
तन दाब ढाँक बाहर निकले
फिर भी ठण्ड से
स्वयं को ठिठुरते पाया |


आशा

28 नवंबर, 2010

आखिर कहाँ जायेगा

चेहरे पर नकाब लगाये
या बार-बार चेहरा बदले
है वह क्या ? जान नहीं पाता
पहचान नहीं पाता|
विश्वास टूट जाता है
 चेहरे पर चेहरा देख
हर बार अजनबी अहसास
अपना सा नहीं लगता |
वादा करके मुकर जाना
हर बात को हवा देना
उस पर अडिग न रहना
कभी मेरा हो नहीं सकता|
शब्द जाल बुनने वाला
बिना बात उलझाने वाला
सरल स्वभाव हो नहीं सकता |
गैरों सा व्यवहार करके
भरी महफिल में रुलाने वाला
अवमानना करने वाला
अपना हो नहीं सकता |
दूसरे के ग़म को
हँसी में उड़ाने वाला
सतही व्यवहार वाला
खुद का भी हो नहीं सकता |
कसम खाई हो जिसने
मर मिट जाने की
किसी को न अपनाने की
ना तो खुद का ही हुआ
और ना इस दुनिया में  किसी का |
वह यदि किसी का न हुआ
तो आखिर कहाँ जायेगा
समय की उड़ती चिंगारियों से ,
अपने को कैसे बचा पायेगा |


आशा

27 नवंबर, 2010

सच मौन सोना है

आधी अधूरी कही अनकही
जाने अनजाने कितनी बातें
रोज हुआ करती हैं
आसपास की मित्र मंडली
उनको हवा देती है |
कुछ को शब्द मिलते ही
आग सी भड़क जाती है
जो दबी छिपी रह जाती हैं
ठंडे बस्ते में चली जाती हैं
पर सब सच नहीं होतीं
कल्पना ही उन्हें हवा देती है
यदि उसके पंख कट जायें
ओर उड़ान ना भर पायें
तब दिल में छिपे अरमानों को
अभिव्यक्ति नहीं मिलती
जब कुछ शब्द मुँह से निकल
इधर उधर बिखर कर
वजह बन जाते हैं
स्थिति विस्फोटक होने की
तब लगने लगता है
मौन रहना ही उचित है
फिर मौन क्यूँ न रहा जाये
यदि इसे अपना पायें
अनजाने कष्टों से बच पायेंगे
सब झंझटों से मुक्ति पायेंगे
सच में मौन सोना है
जो भी इसे पा लेता है
वही धनवान हो जाता है
सफल जिन्दगी जी पाता है |


आशा








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26 नवंबर, 2010

जन्म लिया था साथ-साथ

जन्म लिया था साथ-साथ
खेले कूदे बड़े हुए
वय वृद्धि के साथ-साथ
राम राम न रहा
रहीम रहीम न हुआ
ऐसा ज़हर मज़हब का फैला
दोनों डूबे मज़हब में
दिलों में दूरी ऐसी हुई
दोस्ती में दरार पड़ गयी
नफरत के बीज ऐसे पनपे
जमीन में भी दरार पड़ गयी
दिलों के बीच की खाई
गहरी इतनी हो गयी
दो देशों के बीच
सीमा रेखा तक खिंच गयी
नफरत की नींव इतनी गहरी थी
हुआ बँटवारा दो मुल्कों में
खाई और गहरी हुई
अब उसे पाटना मुश्किल है
हो चाहे जितनी कोशिश
कोई कितने भी जतन करे
गहराई खाई की बढ़ती जाती है
हर ओर जहर के बढ़ते कदम
कोई रोक नहीं पाता
जब तक सुलह नहीं होती
आतंक का खौफ न जा पाता
हर बार नई कहानी होती है
भयाक्रांत जनता होती है
जब भी बीज से पेड़ उगेगा
कड़वाहट से भरा होगा
काँटों की कमी नहीं होगी
दिलों में नफरत और बढ़ेगी
यदि हो विकसित सहनशीलता
हृदय होगा परिवर्तित
एकता फिर से जन्म लेगी
राम रहीम को एक करेगी |


आशा

क्षणिका

मैंने तो बस सच कहा है ,
लाग लपेट उसमे ना कोई ,
इस पर भी यदि बुरा मानो ,
सोच लो कुछ कहा ही नहीं |

आशा

25 नवंबर, 2010

कोई नहीं जान पाया

चंचल चपला और बिंदास
दिखाई देती सदा ,
पर है इसमें ,
कितनी सच्चाई ,
यह भी कभी
देखा होता ,
थी भोली भाली,
सुंदर बाला ,
कब बड़ी हुई ,
जान न पाई ,
जानें कितनी वर्जनाएं ,
या समझाने की कोशिश ,
लड़कों से
बराबरी कैसी ,
लड़की हो लड़की सी रहो ,
मन में होती
उथल पुथल ,
अक्सर सालने लगी उसे ,
जो है जैसी भी है ,
क्या यह पर्याप्त नहीं है ?
निर्वाह कैसे होगा ,
ससुराल में ,
यही हजारों बार सुना,
ऐसी अनेक बातों का ,
मन पर विपरीत ,
प्रभाव हुआ ,
अनजाने भय ,
का बोध हुआ ,
मानो ससुराल नहीं ,
कैदखाना हुआ ,
सारे कोमल भाव दब गए ,
बाचाल उद्दण्ड ,
स्वभाव हुआ ,
क्या यही सब ,
संस्कारों से पाया ?
लगता यह दोष नहीं
संस्कारों का ,
या माता पिता के
पालन पोषण का ,
समाज में
कुछ देखा सुना ,
अनुभवों ने
बहुत कुछ सिखा दिया ,
अब जो दीखता है
वही सत्य लगता है ,
है क्या वह सच में
चंचल और बिंदास ,
एकांत पलों में ,
जब सोचती है ,
आँखें नम हो जाती हैं ,
वह और व्यथित,
हो जाती है ,
वर्जनाओं के झूले में
उसे सदा
झूलते पाया ,
है वह क्या ?
एक चंचल चपला सी ,
या शांत सुघड़ बाला सी ,
यह कोई ,
नहीं जान पाया |


आशा

23 नवंबर, 2010

है यह जीवन पान फूल सा

है यह जीवन पान फूल सा ,
हवा लगे मुरझा जाता ,
कैसे इसे सँवारा जाये ,
यह भी नहीं ज्ञात होता ,
हर मोड़ पर झटके लगते हैं ,
उर में दर्द उभरता है ,
हो जाती जब सीमा पार ,
हो जातीं बाधाएं पार ,
तभी मुक्ति मिलती है ,
आत्मा बंधन मुक्त होती है ,
इससे अनजानी नहीं हूँ ,
फिर भी मोह नहीं जाता ,
जीवन और उलझता जाता ,
इस सत्य से कब मुँह मोड़ा ,
क्या सही क्या गलत किया ,
गहन दृष्टि भी डाली ,
विचार मंथन भी किया ,
पर हल कुछ भी ना निकला ,
फिर भी इसकी देखरेख ,
बहुत कठिन लगती है ,
पान फूल से जीवन को ,
जाने कैसे नजर लग जाती है ,
हर झटका अब तक पार किया ,
कोई और उपाय न दिखाई दिया ,
कब आशा निराशा में बदली ,
इस तक का भी ना भान हुआ ,
आगे क्या होगा पता नहीं ,
बस दूर सच्चाई दिखती है ,
है यह जीवन नश्वर ,
और निर्धारित साँसों का कोटा ,
जब कोटा समाप्त हो जायेगा ,
और ना कोई चारा होगा ,
यह भी समाप्त हो जायेगा ,
पंच तत्व में मिल जायेगा ,
छोड़ कर पुराना घर ,
आत्मा भी मुक्त हो जायेगी ,
नये घर की तलाश में ,
जाने कहाँ जायेगी |


आशा

22 नवंबर, 2010

तुम मुझे ना पहले समझे

तुम मुझे ना पहले समझे ,
और न कभी समझ पाओगे ,
हर बात का कुछ अर्थ होता है ,
अर्थ के पीछे छिपा ,
कोई सन्देश होता है ,
वह भी यदि ना समझ पाए ,
तो क्या फायदा बहस का ,
बिना बात तनाव झेलने का ,
इसी तरह यदि रहना था ,
नदी के दो किनारों की तरह ,
जो साथ तो चलते हैं ,
पर कभी मिल नहीं पाते ,
इसका दुःख नहीं होता ,
पर है यह फर्क सोच का ,
मुझे बार-बार लगता है ,
है इतनी दूरी आखिर क्यूँ ?
यह दूरी है या कोई मजबूरी ,
ऐसा भी यदि सोचा होता ,
अपने को दूसरे की जगह ,
रखा होता फिर विचारा होता ,
तब शायद समझ पाते ,
प्यार क्या होता है ?
होती है भावना क्या ?
साथ-साथ रहना ,
धन दौलत में धँसे रहना ,
क्या यही ज़िंदगी है ?
भावना की कद्र ना कर पाये ,
तो क्या लाभ ऐसी ज़िंदगी का ,
मैं जमीन पर फैला पारा नहीं ,
जिसे उठाना बहुत कठिन हो ,
हूँ हाड़ माँस का इंसान ,
जिसमें दिल भी धड़कता है ,
मुझे समझ नहीं पाते ,
दिल की भाषा पढ़ नहीं पाते ,
तुम कैसे न्याय कर सकते हो ,
अपने साथ या मेरे साथ,
हो कोसों दूर भावनाओं से ,
अपनी बात पर अड़े रहते ,
है कहाँ का न्याय यह ,
कभी सही गलत समझा होता ,
कुछ झुकना भी सीखा होता ,
तब शायद कोई हल होता ,
किसी की क्या समस्या है ,
यदि दूर उसे नहीं कर सकते ,
दो बोल सहानुभूति के भी ,
मुँह से यदि निकल पाते ,
कुछ बोझ तो हल्के होते ,
पर शायद मेरा सोच ही है गलत ,
नागरिक दूसरे दर्जे का ,
पहली पंक्ति में आ नहीं सकता ,
अपना अधिकार जता नहीं सकता ,
वह सोचता है क्या ,
शब्दों में बता नहीं सकता |


आशा

21 नवंबर, 2010

सत्ता ईश्वर की

है ईश्वर का वास मनुष्य में
जानते हैं सभी
पर फिर भी क्यूँ
अच्छाई और बुराई
साथ-साथ रह पाती हैं
अच्छाई दबती जाती है
मन के किसी कोने में
खोता जाता है मनुष्य
बुराई के दलदल में
जब भी किसी ऐसे व्यक्ति से
हो जाता संबंध
वह रिश्ता नहीं होता
होता है केवल समझौता
धीरे-धीरे अवगुण भी
अच्छे लगने लगते हैं
और साथ रहते-रहते
रिश्ता निभाने लगते हैं
है मनुष्य खान अवगुण की
बुराई का वर्चस्व बना रहता
बुद्ध और महावीर तो
बहुत कम होते हैं
मन में यदि ईश्वर रहता है
ऐसा क्यूँ होता है
चाहे जितनी करें प्रार्थना
प्रभाव नगण्य होता है
एक ही बात दो लोग साथ-साथ
जब भी देखते हैं
प्रतिक्रिया भिन्न होती है
है अच्छाई और बुराई
मन की ही तो उपज
फिर ईश्वर की सत्ता हो जहाँ
बुराई क्यूँ पनपती है |


आशा

20 नवंबर, 2010

ना जाना ऐसे ऑफिस में

ना जाना ऐसे ऑफिस में ,
जिसमें बिना 'मनी',
कुछ काम ना हो ,
चक्कर लगाते रह जाओगे ,
था काम क्या
यह भी भूल जाओगे |
वहाँ हर मेज़ पर ,
बड़े २ झमेले हैं ,
सब आस लगाए बैठे हैं ,
हैं ऐसे गिद्ध भी ,
जो ताक लगाये बैठे हैं |
नोटों की एक झलक भी ,
यदि जेबों में दिखाई दी
आख़िरी पैसा,
तक छुड़ा लेंगे,
तभी चैन की सांस लेंगे |
आदर्श अगर बघारा तुमने ,
और ना ढीली अंटी की ,
लगाते रहोगे ,
चक्कर पर चक्कर ,
फिर भी काम ,
ना करवा पाओगे |
वहाँ कोई भी सगा नहीं है ,
दो मेज़ों में दूरी नहीं है ,
जब मेज़ों के नीचे से ,
मोटी रकम पहुँचती है ,
सिलसिला काम का ,
तभी शुरू होता है |
यदि है इतनी जानकारी ,
और दिलेरी दिल दिमाग में ,
तभी वहाँ का रुख करना ,
वरना भूले से भी कभी ,
उधर की ओर मुँह नहीं करना |
लगे मुखौटे चेहरे पर ,
असलियत कोई नहीं जानता ,
कथनी और करनी की दूरी ,
भी ना पहचान पाता ,
भूले से यदि फँस जाओ,
नोट साथ लेते जाना ,
तभी होगा कुछ हासिल ,
नहीं तो दीमक के बमीटे से,
कुछ भी हाथ न आयेगा |
है महिमा रिश्वत की अनोखी ,
जो भी इसे जान पाया ,
बहती गंगा में हाथ धो ,
मज़ा ज़िन्दगी का लूट पाया ,
अंत चाहे जो भी हो ,
वह वर्तमान में जीता है ,
घूस खोरी को भी ,
अपनी आय समझ लेता है |


आशा

19 नवंबर, 2010

बैलगाड़ी

दो पहियों की बैलगाड़ी ,
खींचते बैल जिसे ,
लकड़ी बाँस लोहा अदि,
होते साधन बनाने के ,
भार चाहे जितना होता ,
पहिये ही उसे वहन करते ,
अपना कर्त्तव्य समझ वे ,
पीछे कभी नहीं हटते |
है परिवार भी एक बैलगाड़ी ,
पति पत्नी गाड़ी के पहिये ,
संबंधी कभी सहायक होते ,
बच्चे मन का बोझ हरते ,
हो जाता पूरा परिवार ,
गाड़ी जीवन की चलती जाती ,
पर भार होता केवल ,
दोनों के कन्धों पर |


आशा

17 नवंबर, 2010

मन की ऑंखें

मन ने सोचा खोली आँखें ,
देखा अपने आस पास ,
था कुछ विशिष्ट इन आँखों में ,
कल्पना ने उड़ान भारी
ली अनुमति इन आँखों से ,
दूर जाती एक पगडंडी तक ,
जो खो जाती घने जंगल में ,
हैं अनगिनत निशान उस पर ,
हैं दस्तावेज उन क़दमों के ,
जो सुबह शाम बनते मिटते ,
कहते कथा वहाँ रहने वालों की ,
नित नए निशान करते वर्णन ,
उस दिन हुई घटनाओं की |
बहुत निकट झुण्ड हिरणों का ,
ओर दर्शन बायसन समूह का ,
एकाएक सुन दहाड़ बाघ की ,
सारा जंगल गूँज उठा ,
पशु पक्षी कॉल दे दे कर ,
उपस्थिति उसकी दर्शाने लगे ,
जैसे ही वह गुज़र गया ,
शांत हुआ पूरा जंगल ,
शेष था कहीं-कहीं बहता पानी ,
ठंडी हवा और घना जंगल |
जाने अनजाने कितनी बातें,
सहेजी गईं कल्पना में ,
हालत कुछ ऐसी हुई ,
ह़र जगह वही दिखने लगा ,
जो देखा मन की आँखों ने ,
और सिमटने लगा ,
दृश्यों में, कृतियों में |
एक झाड़ी की दो शाखाएँ ,
पीछे उसके बड़ा पत्थर ,
हिरन सा ही दिखने लगा ,
पास पहुँच जब देखा ,
पाया केवल पेड़ और पत्थर |
सच्चाई सामने आई ,
तरस भी आया एक बार ,
मन की आँखों पर ,
कल्पना की उड़ान पर ,
फिर भी जो आनन्द मिला ,
भूल ना पाई आज तक |
हैं आखिर मन की आँखें ,
जो सोचती हैं वही देखती हैं ,
होता है ऐसा क्यूँ ?
यह तक नहीं समझ पाई ,
इस क्यूँ से परेशानी क्यूँ ,
जब मिलता भरपूर ,
आनंद मन की आँखों से |


आशा

16 नवंबर, 2010

इच्छा अधूरी रही मन में

इच्छा अधूरी रही मन में ,
कि दो कदम साथ चलो ,
बेगानों का साथ छोड़ ,
कभी अपनों को भी याद करो ,
यूँ चुप ना रहो अनसुनी न करो ,
कुछ तो बोलो बात करो ,
पर तुम मौन हुए ऐसे ,
खुद को अपने में कैद किया ,
चाहा पर लब नहीं खोले ,
शब्द मुँह से नहीं निकले ,
हो गये इतनी दूर कि ,
यह दूरी नहीं पट पाती ,
गैरों के साथ के अहसास की ,
छाया नहीं मिट पाती,
जब भी मौन टूटे, दिल बोले ,
मन का बोझ हल्का करना हो ,
मुझे याद कर लेना ,
ज़रा सी जगह दिल के कोने की ,
मेरे लिए भी रख लेना ,
किसी और को ना देना ,
शायद यह दूरी मिट जाये ,
कभी मेरी याद आये ,
और इच्छा पूरी हो पाये ,
दो कदम साथ चलने की |


आशा

14 नवंबर, 2010

है तू क्या ?

है तू क्या मैं समझ नहीं पाती
एक हवा का झोंका
भी सह नहीं पाता
खिले गुलाब की पंखुड़ी सा
इधर उधर बिखर जाता
है नाजुक इतना कि
दर्द तक सहन नहीं होता
पंकज सा तैरता रहता
इस नश्वर सरोवर में
नहीं डरता किसी उर्मी से
ना ही आँच आने देता
अस्तित्व पर अपने
संगीत की मधुर स्वर लहरी
जैसे ही तुझे छू जाती 
तुझे स्पंदित कर जाती है
पर एक कटु वचन
तुझे हिला भी सकता है
जो भी हो तेरी विशालता
तेरी गहराई नापना मुश्किल है
है तू क्या ?
क्या है विशेष तुझमें
जानना बहुत कठिन है
कवियों ने या शायरों ने
तुझे समझा या ना समझा हो
पर जब भी नया सृजन होता है
तेरा संदर्भ जरूर होता है |
चाँद तारों पर लोग लिखते हैं
पर तुझ पर नगण्य लिखा हो
ऐसा भी नहीं है
दर्द बाँटने की  क्षमता की 
अदभुद मिसाल है तू
बोझ तले दबा हुआ हो
पर अहसास तक होने नहीं देता
तुझ पर जो भी लिखा जाये
बहुत कम लगता है
सच में बेमिसाल है तू
ए हृदय तुझे कैसे पहचानूँ
किस मिट्टी का बना है तू
है कितनी गहराई तुझ में
इसका आभास ही बहुत है |


आशा

13 नवंबर, 2010

डाल से बिछुड़ा एक पत्ता

घना घनेरा साल वन
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष वृन्द
सूर्य किरणों से
हाथ मिलाने की होड़ में
ऊँचे और ऊँचे होते जाते
एक पेड़ की टहनी से
बिछड़ा एक पीला सूखा पत्ता
मंद हवा के साथ-साथ
गोल-गोल घूम रहा
धीमी गति से आते-आते
नीचे की धरती ताक रहा
कई विचारों का मंथन
और मन में उथल पुथल
अपना अस्तित्व तलाश रहा
गहन मनन चिंतन
बहुत बार किया उसने
पर एक ही झटके में
जैसे ही धरती छुई उसने
अपनों से बिछुड़ जाने पर
व्यथित बहुत मन हुआ
कुछ पल भी ना बीते होंगे
एक राहगीर ने अनजाने में
उस पर अपना पैर रखा
जैसे ही पैर पड़ा उस पर
वह बच न सका
टूट गया
अपनों से अलग होने का दुःख
मन ही मन में रह गया
कुछ सोच भी न पाया था कि
स्वयं धूल धूसरित हुआ
धरती में विलीन हुआ
और सो गया चिर निंद्रा में
दूसरी सुबह भी ना देख सका |


आशा

06 नवंबर, 2010

मेरी यादो में ---

मेरी यादों में तू भी,
कभी रोया होगा ,
मेरी तस्वीर को,
आँसुओं से भिगोया होगा ,
पुरानी बातों का जिक्र ,
हर बार हुआ करता था ,
दिल की बातों का इज़हार ,
हो कैसे मालूम न था ,
यूँ बिछुड़ जायेंगे ,
यह सोचा न था ,
कभी ना मिल पायेंगे ,
इसका अन्दाज़ा न था ,
जब भी तेरे साये से ,
लिपट कर रोया मैं ,
सीने में उठे दर्द को ,
सम्हाल ना पाया मैं |


आशा

05 नवंबर, 2010

मन खिन्न हुआ








                                                               मन खिन्न हुआ दिल टूट गया
थी  जो अपेक्षा   उस पर खरे न उतरे 
जाने कितने अहसान किये
पर जताना कभी नहीं भूले
संख्या इतनी बढ़ी कि
 भार सहन ना हो पाया
बेरंग ज़िंदगी का एक और रूप नज़र आया
कहने को  सब कुछ है पर कहीं न कहीं अंतर है
छोटी-छोटी बातों से
 किरच-किरच हो दिल बिखर गया
गहरे सोच में डूब गया
 वेदना ने दिये ज़ख्म ऐसे
नासूर बनते देर न लगी
अब कोई दवा काम नहीं करती
अश्रु भी सूख गये अब तो
पर आँखे विश्राम नहीं करतीं 
वेदना इतनी गहरी कि
रूठा मन शांत नहीं होता
है इन्तजार उस परम सत्य का
जब काया पञ्च तत्व में विलीन होगी
झूठी माया व्यर्थ का मोह
 सभी से मुक्ति मिल पायेगी
वेदना तभी समाप्त हो पाएगी |

                                                                           आशा

04 नवंबर, 2010

और तुलना कैसी

तारों से दमकता आकाश
दीपावली की रात
और सतत टिमटिमाते
माटी के दीपक
घर रोशनी से चमकने लगे
मंद हवा के स्पर्श से
दिये भी धीरे-धीरे
बहकने लगे
ख़ुद पर ही
मोहित होने लगे
तारों से तुलना करने लगे |
जो बात हम में है
उन तारों में कहां
हैं मीलों दूर
हमारी चमक दमक से
और वंचित
सब के प्रेम से
प्यार हमें सब करते हैं
स्नेह से सजाते हैं
तारे तोअपने आप ही
टिमटिमाते हैं !
तारे चुप कैसे रहते
पलट वार किया बोले
है जीवन तुम्हारा
बस एक रात का
जल्दी ही बुझ जाते हो
फिर आते होअगले बरस
हम तो समस्त सृष्टि के दुलारे
रोज यहाँ आते हैं
अमावस की रात्रि को
कुछ अधिक ही सजा जाते हैं
झिलमिलाती चुनरी पहन
जब वह जाती है
बहुत आल्हादित करती है
तभी तो हमारा वर्णन
चाहे जब होने लगता है
माना कविता
तुम पर भी बनती है
पर छाए तो हम रहते हैं
रचनाकार के
मन मस्तिष्क पर |
तुम याद किये जाते
वर्ष में एक बार
हम तो जाने अनजाने
हर दिन याद किये जाते हैं |
विदीर्ण हृदय लिये दीपक
बहुत उदास हो गये
सारी रात जल ना सके
भोर से पहले ही बुझ गये |
जुगनू यह सब सुन रहे थे
बारम्बार सोच रहे थे
हम भी तो चमकते हैं
वीरानों तक को
करते गुलजार
अल्प आयु भी रखते हैं
हैं दीपक जैसे ही
अच्छा है हमसे
कोई ईर्ष्या नहीं रखता
हमारे क्षणिक जीवन का
कोई हिसाब नहीं रखता |
 तारों से है  क्या बराबरी
जो पूरे अम्बर पर
अधिकार जमाए बैठे हैं
उनसे हो क्यूँ तुलना
वे  अपने आप में खोये रहते हैं |
सब में हैं गुण दोष कई
फिर आपस में बराबरी क्यूँ ?
और तुलना कैसी ?


आशा

02 नवंबर, 2010

हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का

हो स्वागत कैसे लक्ष्मी का ,
अन्धकार ने घेरा है ,
तेल बाती लायें कहाँ से ,
महँगाई ने घेरा है ,
हर ओर उदासी छाई है ,
कमर तोड़ महँगाई है ,
बाजार भरा पड़ा सामान से ,
पर धन परिसीमित करना है ,
चंद लोगों ने ही त्यौहार पर,
कुछ नया खरीदा है ,
बाकी तो रस्म निभा रहे हैं ,
बेमन से पटाखे ला रहे हैं ,
बच्चों का मन रखने के लिए ,
गुजिया पपड़ी बने कैसे ,
मँहगाई की मार पड़ी है ,
खील बताशे तक मँहगे हैं ,
क्रेता का मुँह चिढ़ा रहे हैं ,
शक्कर की मिठास भी,
कम से कमतर होने लगी है ,
हर चीज फीकी लगती है ,
जब भाव उसका पूछते हैं ,
मन को कैसे समझायें ,
देना लेना सब करना है ,
कहाँ-कहाँ हाथ रोकें ,
हर बात है समझ से परे ,
पसरे पैर मँहगाई के ,
गहरा घना अंधेरा है ,
फिर भी सब कुछ करना है ,
क्योंकि यहीं रहना है ,
हर त्यौहार की तरह ,
दीपावली भी ,
मन ही जायेगी ,
पर आने वाले दो माह का ,
बजट बिगाड़ कर जायेगी |


आशा

01 नवंबर, 2010

ऐ दिल तुझे क्या हो गया है

ऐ दिल तुझे क्या हो गया है
गलत कदम उठाया क्यूँ
रिश्ता ऐसा बनाया क्यूँ
जो निभाना संभव न था
था नियम विरुद्ध समाज के
लोगों ने रोकना चाहा 
कुछ ने तो टोका भी 
तब भी सचेत ना हो पाया
और गर्त में फँसता गया
वापिस लौट नहीं पाया
बहुत व्यस्त किया स्वयं को
फिर भी भूल नहीं पाया
बार-बार वही बात, वही रोना
उसमें ही खोये रहना
अब तो दर्द भी
दिखने लगा है चेहरे पर
यह कितने दिन यूँ ही रहेगा
ना कोई दवा इसकी
और ना कोई असर इस पर
भूले से जो भूल हुई थी
यदि उसे सुधारा होता
पूरी तरह भुला दिया होता
नियंत्रण खुद पर रखा होता
तब तू यूँ बेचैन ना होता |


आशा

31 अक्टूबर, 2010

मैं लिखती हूँ तेरे लिये

सब लिखते हैं स्वयं के लिये ,
आत्म संतुष्टि के लिये ,
पर मैं लिखती हूँ तेरे लिये ,
कहीं तेरा लगाया यह पौधा ,
मुरझा ना जाये ,
तू उदास ना हो जाये ,
रोज पानी देती हूँ ,
खाद देती हूँ ,
तेरे उगाए पौधे को ,
बहुत प्यार करती हूँ ,
मुरझाये पीले पत्तों की ,
काट छाँट करती हूँ ,
बस रह जाते हैं ,
हरे-हरे नर्म-नर्म,
कोमल मखमली पत्ते ,
अब तो फूल भी आ गये हैं ,
फल की आशा रखती हूँ ,
जिस दिन पहला फल आयेगा ,
तुझे ही समाचार दूँगी ,
तेरी देखरेख बगिया की ,
व्यर्थ नहीं जाने दूँगी ,
मेहनत से नहीं डरती ,
पूरी शक्ति लगा दूँगी ,
यह पेड़ फलफूल रहा है ,
दूसरा बोने की इच्छा है ,
उन्नत बीज तुझी से मिलेगा ,
खाद पानी की जुगत करूँगी ,
तभी वह चेत पायेगा ,
दिन रात बड़े जतन से ,
उसकी भी सेवा करूँगी ,
सबसे रक्षा करूँगी ,
सुगन्धित पुष्पों से जब ,
वह भी लड़ जायेगा ,
तुझे और उन सब को ,
जो प्रोत्साहित करते हैं ,
दिल से साधुवाद दूँगी !


आशा

है यह कैसा व्यवसाय

है कैसा व्यवसाय
जो फल फूल रहा
कुकर मुत्ते सा 
चाहे जहां दिख जाता 
रहते लिप्त सभी जिसमें
ऊपर से नीचे तक |
बिना बजन के
कोई फाइल नहीं हिलती
कितनी भी आवश्यकता हो
अनुमति नहीं मिलती
हें सजी कई दुकानें
यह व्यवसाय जहां होता |
देने वाला भी प्रसन्न
लेने वाला अति प्रसन्न
पहला सोचता है
कोई व्यवधान ना आए
दूसरा इसलिए कि
नव धनाड्य हो जाए |
हें जितने लोग लिप्त इसमें
ढोल में पोल की
कड़ी बने हें
धन अधिक पा जाने पर
हर संभव पूर्ती करते हें
दबी हुई आकांक्षा की
जब भय होता
पकडे जाने का
मुंह छिपाए फिरते हें
ले कर सहारा इसका ही
बेदाग़ छूट भी जाते हें
है यह विज्ञान या कला
विश्लेषण करना है  कठिन
विज्ञान में शोध होते हें
नियम सत्यापित भी होते हें
कला होती संगम भावनाओं का
मिलता नया रूप जिसे
भावनाओं से दूर बहुत
ना ही कोई नियम धरम
यह दौनों से मेल नहीं खाता
लगता सबसे अलग
इसे क्या कहें
घूसखोरी ,तोहफा या रिश्वत |
आशा

29 अक्टूबर, 2010

तुम हो एक सौदागर


तुम हो एक सौदागर
लुभाते अपने व्यक्तित्व से
अनजाने में कभी कभी
बातों को हवा देते 
भावनाओं को उभार कर
मन मस्तिष्क पर छाते गए
फिर कहीं चले गए
दर्द अजीब सा दे गए
नाम ह्रदय पर लिख गए |
यही सब यदि करना था
भुलाने की कोई विधि
तो बता कर जाते
या विस्मृति की
दवा ही दे जाते |
कभी किसी बात को
अधिक ही उछाल देते थे
पर किसी ने न जाना
कि तुम बेवफा थे |
तस्वीर जो दी तुमने
चैन से जीने नहीं देती
बहुत बेचैन करती है
अतीत याद दिलाती है |
लोग तुमसे जोड़ कर
मेरा नाम तक लेने लगे
जाने क्यूं ऐसा कहने लगे |
याद तो उन्हें किया जाता है
जो प्यार करते हों
या इस दुनिया में
अपना नाम कर गए हों |
जी चाहता है
कहीं तुम मिल जाओ
मेरी भावनाओं को
फिर से रंग जाओ
इन्तजार न रहे
ऐसा कुछ कर जाओ |
कहां तक सोचूं तुम्हारे लिए
कई ऋतुएं बीत गईं
अब तो लगता है
हर मौसम भी हरजाई |
आशा

28 अक्टूबर, 2010

हो शरद पूनम की रात

हो शरद पूनम की रात
और सर पर हो
माँ शारदे का हाथ
स्वर्णिम आभा होती है
होती है वर्षा अमृत की
उससे जो सुख मिलता है
कैसे विचारों में ढालूँ उसे
उस अदभुद दृश्य को
कैनवास पर उतारूं कैसे
चांद जब उतरता आंगन में
खुशियों से भर देता आंचल
उसे देख उत्पन्न भाव,
को कैसे अभिव्यक्ति दूं
शब्द नहीं मिलते
तब वाग देवी समक्ष होती है
कलम में लगी जंग दूर होती है
कुछ नया लिखने के लिए
अंतरद्वंद बढने लगता है
और जंग विचारों की
थमने का नाम नहीं लेती
कुछ नया सृजन होता है
 सुकून मन को मिलता है |

आशा

27 अक्टूबर, 2010

है अनूठा जलनिधि,

है अनूठा जल निधि
कभी शांत तो कभी रौद्र
जब भी शांत होता है
मन भावन दृश्य होता है
लहरों का आना जाना
फेनिल जल का तट छू जाना
सीपी घोंगे ,जाने क्या क्या
किनारों पर ही छोड़ जाना
उनका संचय अच्छा लगता है |
मछुआरों की नौकाएं
गहरे समुद्र तक जातीं हें
करती एकत्र सागर संपदा
देती संतुष्टि माझी को
जब शाम होने लगती है
सूरज अस्ताचल का
रुख करता है
तभी लौटती नौकाएं
जल पर तैरती उतरातीं
बार बार हिचकोले लेतीं
स्पर्धा करतीं लहरों से
दृश्य मनोहर लगता है |
बहुत दूर समुन्दर में
जहाज का मस्तूल
दिखाई देता है
मानो वह जहाज को
अपनी गोद में लिए बैठा है|
विश्रान्ति के पलों में माझी
खो जाता है सपनों में
तोयधि का गर्जन तर्जन
उसे विचलित नहीं करता ,
लहरों का साथ यदि न हो ,
उसे अच्छा नहीं लगता |
जब होता सागर अशांत
बड़ी बड़ी ऊंची लहरें
टकरातीं जब चट्टानों से
,वह अट्टहास करता है
जब कोई उत्तंग लहर
टकरा कर तट से
लौट रही होती
और एक अन्य लहर
उस पर से गुजरती है
दृश्य जलप्रपात सा दिखता है |
नाव समुन्दर में डालना
तब सरल नहीं होता
यदि टकरा जाए लहर से
फिरसे आ लगती है तट पर
कई बार प्रयत्न करते माझी
सफलता तभी मिल पाती है
नौका समुद्र में जा पाती है |
जब समुद्र उग्र होता है
अपना आपा खो देता है
तभी कहर टूटता है
हानि होती जन धन की |
फिरभी विशालता उसकी
,कई रहस्य समेटे रहती है |
उस अथाह जल राशी में
है अनूठा आकर्षण
बार बार खींच ले जाता
है विपरीत भावों का संगम
कभी शांत तो कभी उग्र |
छिपी अपार संपदा इसमें
कई लोगों को जीवन देता है
पर यदि आपा खो बैठे
कई जीवन हर लेता है |
आशा







,

26 अक्टूबर, 2010

है माँ तेरी


वह चाहती नहीं कि
कोई तुझसे कुछ कहे
है बस अधिकार उसी का
जो भी कहे वही कहे
तू भी कुछ न कहे
केवल सुने
और उसी से जुड़ा रहे
कोई अन्य अपना
वर्चस्व न जता पाए
ना ही तुझे भरमाए
तू है दूर मीलों उससे
फिर भी हर आहट
तेरी ही लगती है
तुझे अगर ठोकर लगे
वह जान लेती है
कुछ कर तो नहीं सकती
पर सचेत कर देती है
है माँ तेरी
 भला चाहती है तेरा
उसे स्वीकार नहीं
तू मनमानी करे
कठिन परिस्थिति से गुजरे
यदि कुछ उसकी सुने
विचार करे
सलाह का सत्कार करे
तभी शायद तुझे
सही राह मिल पाएगी
तेरी दशा सुधर पाएगी |
आशा

25 अक्टूबर, 2010

व्रत

एक दिन एक व्रत लिया
दिन भर खड़े रहने का
सारे दिन मौन रहने का
सोचा दिन भर चुप रहूंगी
एक भी शब्द ना कहूंगी
पर जैसे ही सुबह हुई
आवाजों का क्रम शुरू हो गया
और मौन टूट गया
उस पर भी  था उल्हाना 
जबाब क्यूं नहीं देतीं
कब से पुकार रहे हें
तुम ध्यान नहीं देतीं
इतना शुब्ध मन हुआ
बैठने का मन हुआ
और प्रण टूट गया
फिर सोचा पूजा करू
निर्जला व्रत रखूं
आधा दिन तो बीत गया
फिर सहनशक्ति ने कूच किया
और उपवास टूट गया
जब भी व्रत रखती हूं
कई व्यवधान आते हें
कारण चाहे जो भी हो
हो जाता है मन विचलित
सोच रही हूं अब मैं
कोई उपवास नहीं रखूं
आस्थाओं पर टिक न पाती
सारी महानत व्यर्थ जाती
ऐसे व्रत से लाभ क्या 
जो पूर्ण नहीं हो पाता
मन असंतुलित कर जाता
सत् कर्म से अच्छा
शायद ही कोई व्रत होता हो
मन चाहता उसी पर अडिग रहूं
आस्था उसी पर रखूं |
आशा

24 अक्टूबर, 2010

एक गज़ल लिखूं

दिल से आवाज आई है ,
कि एक गज़ल लिखूं
वीरान फ़िजाओं पर,
कुछ न कुछ कहूं ,
मंजर उदास लम्हों का ,
कैसे बयां करू,
लफ्ज़ों का कोई ,
ज़खीरा नहीं मिलता ,
दिल में उठे गुबार का ,
कोई हमराज नहीं मिलता ,
रहता हूं तन्हां तन्हां ,
अपना वजूद खोजता हूं ,
गर तेरे दामन की हवा ,
तनिक छू गई होती ,
शायद कोई सितम ,
और ना सहा होता ,
सिलसिला गज़ल का ,
शुरू हुआ होता ,
जलती शमा कि रोशनी में ,
परवाने की तरह ,
शब् भर रहा होता ,
नज्म यूँ ही न बनी होती ,
गर मेरे दिल से ,
आह न निकली होती |
आशा

23 अक्टूबर, 2010

पर्वत पर बिछी सफेद चादर

पर्वत पर बिछी श्वेत चादर
  और धवल धरा सारी  
लगती बेदाग़ सफेद चादर सी 
 है सिंधु उदगम यहीं पर 
 यह है रेगिस्तान बर्फ का
  दुनिया की सबसे ऊँची सड़क
 जिस पर गुजरते वाहन 
 नहीं वह भी अछूती बर्फ से 
 यदि विहंगम द्रष्टि डालें 
 दिखती है बिछी सफेद चादर सी 
 जाड़ा कम ही लगता है 
 जब गुजरते सड़क से 
 फिर भी भय रहता है 
 कहीं फिसल ना जाएं 
 कोई हादसा ना हो जाए 
, गाड़ी पिघलती बर्फ 
 और बर्फीला द्रश्य 
 कहीं कहीं पानी सड़क पर 
धीमी गति से गाडी बढ़ना 
 लगता है पैदल चल रहे हें 
एक ओर दीवार बर्फ की 
दूसरी ओर गहरी खाई 
रूह कांप जाती है 
जब दृष्टि पडती खाई पर 
वहाँ बने बंकरों में 
 रहते देश के रक्षक 
 होता जीवन कठिन उनका 
 पर सच्चे निगहवान देश के 
 सदा प्रसन्न होते हें 
 जब मिलते किसी भारत वासी से 
 देख उनकी कठिन तपस्या 
 श्रद्धा से नत होता मस्तक | 
आशा

22 अक्टूबर, 2010

है जीवन काँटों की बस्ती ,

है जीवन काँटों की बस्ती ,
जो भी इस में रहता है
,बच नहीं पाता उनसे ,
एक ना एक चुभ ही जाता है ,
सहन करना है बहुत कठिन ,
मिलता दंश जो उससे ,
कभी नहीं मिट पाता |
है जीवन दुखों का समुन्दर ,
यदि तैरना नहीं आता ,
कोई बाहर निकल नहीं पाता ,
तब डूब ही जाना है ,
व्यर्थ है हाथ पैर मारना |
हर ओर निराशा ही हो ,
आशा की किरण,
न दिखाई दे ,
हो छुपी कहीं गहरे में ,
उसकी एक झलक पा कर ,
जीवन हरा भरा होता है ,
पर है वह क्षणिक ,
उसमे यदि खो जाओ ,
स्वयं को भी भूल जाओ ,
ढेरों खुशियाँ आ सकती हें |
पर जीना केवल अपने लिए ,
है नहीं उचित किसी के लिए ,
है परोपकार भी आवश्यक ,
थोड़ा हित किसी का हो ,
तब उसमे है बुराई क्या |
जो कुछ भी करोगे,
वह यादों में रह जाएगा ,
जो किया अपने लिए,
उसे ना कोई जानेगा ,
ना ही तुम्हें पहचानेगा ,
तुम कृपण समझे जाओगे ,
यदि काम किसी के ना आओगे |
विहंगम द्रष्टि डाल कर देखो ,
जिसने भी परोपकार किया ,
छोड़ कर दुनिया भी चल दिया ,
पर दुनिया ने उसे,
बारम्बार याद किया ,
यथोचित सम्मान दिया |
आशा

21 अक्टूबर, 2010

उन यादों में खो जायें



यहां आओ पास बैठो हम उन यादों में खो जाएं
वे गीत गुनगुनाएं जो कभी गाया करते थे
उन्हें रचते थे एक दुसरे को सुनाया करते थे
मुझसे कहीं दूर न जा सकोगे

अटूट प्यार के बंधन को यूं ठुकरा न सकोगे
कैसे भुला पाओगे
जब भी यह मौसम आएगा उन यादों को साथ लाएगा
बार बार वहीँ ले जाएगा
जहां कभी हम मिलते थे अपनी रचनाएं गाते थे
कई धुनें बनाते थे
जब भी आँखें बंद करोगे याद आएंगे वे लम्हें
आखें नम हो जाएगीं
उन्हें विदा ना कर पाओगे
ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिसे सच समझ बैठे
कुछ ऐसा कर गए
जिसे सोचना भी कठिन था
अब सीख लिया है वह चर्चा कभी ना हो
जो दिल में चुभ जाए
 घाव कर जाए हमें दुखी कर जाए
कभी लव पर वे बातें नहीं आएंगी
गैरों के समक्ष चर्चा का विषय ना बन पाएंगी
चिंता नहीं है कि लोग क्या कहेंगे
पर बंधन यदि टूटा
मुझे मिटा कर रख देगा जीवन वीरान कर देगा
है मेरी इच्छा बस इतनी
हम दौनों फिर से गीत लिखें पहले से प्यार मैं खो जाएं
मेरी  अधूरी चाह छोड़
तुम कहीं भी ना जा सकोगे
यदि भूले से हुआ ऐसा मुझे कभी ना पा सकोगे
फिर एकाकी कैसे रह पाओगे |
आशा